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शहीद सन्त पेरपेतुआ
कलीसिया के प्रारम्भिक इतिहास में सन्त पेरपेतुआ ऐसी वीर नारी थी जो अख्रीस्तीयों के बीच अपने मुक्तिदाता प्रभुवर ख्रीस्त का साक्ष्य देने के लिए बड़ी बहादुरी के साथ घोर यातनाएँ झेलते हुए अपना जीवन अर्पित कर, शहीद बनी। पेरपेतुआ के जन्म तथा बचपन के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। किन्तु उनकी शहादत के विषय में पूर्ण जानकारी उन्हीं के लिखे प्रलेख से प्राप्त है।
सन् 203 ई . के आस- पास उत्तरी आफ्रीका के कार्थेज नगर में पेरपेतुआ नामक कुलीन युवती बपतिस्मा पाने के लिए शिक्षा ग्रहण कर रही थी। उन्हीं दिनों वहाँ रोमी- सम्राट सेप्तिमुस सेवेरूस का शासन प्रारम्भ हुआ और उसने ख्रीस्तीयों पर अत्याचार करना नये सिरे से प्रारम्भ किया। उसका आदेश था कि जो कोई रोमी देवताओं की पूजा करने से इन्कार करे, उन्हें मृत्यु दण्ड दिया जाए। इस ख्रीस्त- विरोधी आदेशानुसार पेरपेतुआ और अन्य चार साथी पकड़े गये और कारावास में डाले गये। पेरपेतुआ 22 वर्षीय सुन्दर युवती थी जिसका विवाह किसी उच्च पदाधिकारी से हुआ था। उनका एक नन्हा बच्चा भी था। उसकी दासी फेलिसिती भी उनके साथ पकड़ी गयी थी।
पेरपेतुआ के माता- पिता जीवित थे और वह अपने पिता की लाडली पुत्री थी। पिता मूर्तिपूजक था किन्तु माँ ख्रीस्तीय थी। उसके दो भाई थे जिनमें से एक ख्रीस्तीय था और दूसरा दीक्षार्थी। पकड़े जाने के बाद वह और उसके साथी कैद में रखी गयी और उन पर कड़ा पहरा था। यह समाचार पाकर उसका पिता उसके पास उससे बोला- “ बेटी , मेरे पके बालों पर तरस खा और मुझ बूढ़े पर दया कर। अपने पिता का अपमान न होने दे। अपनी माता तथा नन्हें बच्चे पर तरस खा। वह तो तुम्हारे बिना जी नहीं सकेगा।” यह कहते हुए वह अपनी प्यारी बेटी के हाथ चूम- चूम कर देर तक रोता रहा। अपने पिता का दुःख देखकर आया और रोते पेरपेतुआ भी बहुत रोयी। किन्तु अपने प्रियतम प्रभुवर खीस्त से शक्ति पा कर उसने अपने पिता को दिलासा देते हुए धैर्यपूर्वक कहा- "पिताजी, इस घोर संकट में ईश्वर की जो इच्छा है, वही होगी। हम अपने हाथों में नहीं, बल्कि ईश्वर के हाथों में है।
कारागार के अधिकारियों ने उसके बच्चे पर दया करके उसे अपने साथ रखने की अनुमति दे दी। वह बच्चे को बड़े प्यार से दूध पिलाती और उसका लाड़ प्यार करती थी। यह देखकर जेल के अधिकारियों को उन पर तरस आया और उन्होंने पेरपेतुआ और उसके बच्चे के लिए कुछ सुविधाएँ प्रदान की। साथ ही उन्होंने उसे उसकाया कि ख्रीस्तीय धर्म त्याग दे और कम से कम बाह्य रूप से मूर्तिपूजा कर ले जिससे मृत्युदण्ड से बच सके। किन्तु पेरपेतुआ अपने निर्णय पर अटल रही और अपने प्रभु के प्रेम के लिए अपना जीवन त्यागना ही उचित समझा पेरपेतुआ की दासी फेलिसिती तथा अन्य तीन साथी दीक्षार्थी भी उसी के समान मृत्युदण्ड वरण करने के लिए तैयार हो गये।
सम्राट का कठोर आदेश टाला नहीं जा सका और पेरपेतुआ और उसके साथियों को बिना देरी प्राणदण्ड की सजा सुनायी गयी। वह भयानक दिवस शीघ्र ही आ गया। पेरपेतुआ और उसके साथी अखाड़े में जंगली जानवरों के सम्मुख डाले गये। उस महासंकट की घड़ी में पेरपेतुआ प्रभु की स्तुति में गीत गा रही थी; और उसके साथीगण भी जोरदार आवाज में प्रभु येसु की स्तुति कर रहे थे। उन सबको येसु प्रभु के समान कोड़ों से मारा गया। तब पेरपेतुआ और फेलिसिती पर एक जंगली साँड़ छोड़ा गया और तीन पुरुष साथियों पर चीता एवं भालू छोड़े गये। साँड ने उनको सींग पर उठाकर पटका और शरीर पर कई जगह अपने नुकीले सींग गड़ा कर उन्हें बुरी तरह घायल किया। जब उन अत्याचारियों ने देखा कि तब भी वे जीवित हैं, तब एक दुष्ट ने उनके वक्ष पर छूरा भौंका और उसके द्वारा ख्रीस्त की वीर शिष्या पेरपेतुआ ने अपने साथियों के साथ विजयोल्लास पूर्वक स्वर्ग में प्रवेश किया और अपने प्रभु से शहादत की मुकुट प्राप्त की।
आज जब कि हमारे देश में चारों ओर ख्रीस्तीयों को सतावट एवं अपमान तथा ख्रीस्त- विरोधी भावनाओं का सामना करना पड़ रहा है, संकट की इस घड़ी में सन्त पेरपेतुआ हमारा आदर्श एवं स्वर्ग में हमारी मध्यस्था है। हम उनसे सहायता की याचना करें। उनका पर्व 7 मार्च को मनाया जाता है ।
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