सन्त बोनिफस

'जर्मनी के प्रेरित ' नाम से सुप्रसिद्ध सन्त बोनिफस का जन्म इंग्लैण्ड के डेवनशेयर में सन् 673 ईसवी में हुआ। उनके माता - पिता बड़े कुलीन होते हुए भी उत्तम ख्रीस्तीय थे। उन दिनों कई मिशनरी मठवासी अतिथि के रूप में उनके घर आया करते थे। बालक बोनिफस उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनते और उनसे प्रेरणा पा कर नन्हें बोनिफस ने स्वयं को ईश्वर की सेवा में समर्पित करने का निर्णय लिया। पाँच वर्ष की अवस्था से ही बोनिफस को बेनेदिक्त - समाजी मठवासियों के विद्यालय में शिक्षा पाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उनकी बुद्धि अत्यन्त तीव्र थी और वे शीघ्र ही धर्मशास्त्रों में प्रवीण हो गये। तब वे बेनेदिक्त - समाज में भरती हो गये । धार्मिक व्रत - धारण के पश्चात् उसी विद्यालय में शिक्षक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। उनकी आकर्षक शिक्षण - कला और विद्वता से वे शीघ्र ही बहुत लोकप्रिय बन गये। तीस वर्ष की अवस्था में उनका पुरोहिताभिषेक हुआ। इसके बाद वे लोगों को प्रवचन एवं धार्मिक शिक्षा देने में जुट गये । उनके प्रवचन सुनने के लिए लोग दूर दूर से आने लगे। किन्तु उनकी तीव्र अभिलाषा यह थी कि एक मिशनरी बन कर मूर्तिपूजकों , अविश्वासियों के बीच जाएँ और उनको प्रभु के सुसमाचार का सन्देश दें। नौ वर्ष पश्चात् उनकी मनोकामना पूर्ण हुई। उन्हें मिशनरी बन कर फ्रीजलैंड में सैक्सन लोगों के बीच जाने की अनुमति मिली।

वहाँ कार्य करते हुए उन्ह ज्ञात हुआ कि सम्पूर्ण उत्तरी जर्मनी तथा मध्य जर्मनी के अधिकांश क्षेत्र तब तक अविश्वास के अन्धकार में डूबा हुआ था। बोनिफस ने महसूस किया कि उनका कार्यक्षेत्र वहीं होना चाहिये। अतः वे रोम गये और सन्त पिता से मिले। उन्होंने बोनिफस को जर्मनी के हेसिया और तुरिजिया के धर्माध्यक्ष बोनिफ़स शीघ्र ही अनेकों कठिनाईयों को पार करते हुए जर्मनी पहुँच गये। उन्होंने वहाँ सुसमाचार प्रचार का कार्य प्रारम्भ किया ही था कि उन्हें समाचार मिला कि वहाँ के मूर्तिपूजक शासक की मृत्यु हो गयी और उनके उत्तराधिकारी बड़े भले व्यक्ति हैं । इससे उन्हें अपने कार्यों में सफलता की बड़ी आशा हुई। अतः वे अपने मुदिन आ गया है । हम अपन प्रभु ईश्वर में आसरा रखे । वह हमारी आत्माओं का बचा लेंगे । " उनका इतना कहते ही वे दृष्ट लोग सन्त एवं उनके साथियों पर दूर पड़े और उन सब की हत्या कर दी। इस प्रकार वे सब अपने प्रभू के लिए शहीद बन गये । उस समय सन्त बानिफस की आयु 75 वर्ष की थी । के रूप में अभिषिक्त किया और उन्हें मूर्तिपूजकों के बीच सुसमाचार प्रचार के लिए , सहयोगियों के साथ तन - मन से ईश वचन की घोषणा करने लगे । यद्यपि अनेक व्यापक अधिकार भी दिया । हुए धैर्यपूर्वक कठिनाइयाँ सामने आयीं , फिर भी वे प्रभु पर पूर्ण विश्वास रखते काम करते गये और उन्हें आशाप्रद सफलता प्राप्त हुई । हजारों मूर्तिपूजक लोगों ने प्रभु येसु में विश्वास किया और वहाँ कलीसिया की बड़ी उन्नति जब सन्त पिता ग्रेगरी को उनके कार्यों का समाचार मिला तो उन्होंने बोनिफस को सारी जर्मनी का महाधर्माध्यक्ष नियुक्त किया । सन् 738 में महाधर्माध्यक्ष बोनिफस जर्मनी में सन्त पिता के प्रतिनिधि नियुक्त हुए । उन्होंने सन् 742 में जर्मनी के सभी धर्माध्यक्षों की एक सभा बुलायी और वहाँ की कलीसिया में आवश्यक सुधार एवं उन्नति के लिए अनेक कदम उठाये । वहाँ के मठवासियों के प्रशिक्षण के लिए भी उन्होंने यथेष्ट प्रबन्ध किया । अब महाधर्माध्यक्ष बोनिफस वृद्ध हो चले थे । फिर भी वे अपनी मिशनरी यात्रा दुबारा फ्रीज़लैंड गये । जब वे वहाँ के नव दीक्षित ख्रीस्तीयों को दृढ़ीकरण देने की तैयारी में शिक्षा दे रहे थे , तब अचानक शस्त्र - धारी मूर्तिपूजकों का एक दल आ पहुँचा ; और उन लोगों ने सन्त एवं उनके सहयोगियों पर तलवारों और भालों से आक्रमण कर दिया । सन्त के साथियों ने उन आक्रमणकारियों को रोकना चाहा । किन्तु बोनिफस ने उनसे कहा- “ मेरे बच्चो , इन्हें मत रोको । वह चिर - प्रतीक्षित सुदिन आ गया है । हम अपने प्रभु ईश्वर में आसरा रखें । वह हमारी आत्माओं को बचा लेंगे । ” उनका इतना कहते ही वे दुष्ट लोग सन्त एवं उनके साथियों पर टूट पड़े और उन सब की हत्या कर दी । इस प्रकार वे सब अपने प्रभु के लिए शहीद बन गये । उस समय सन्त बोनिफस की आयु 75 वर्ष की थी ।

सन्त बोनिफस का पार्थिव शरीर जर्मनी के फुल्दा नगर ले जाया गया और वहीं चिर - विश्राम कर रहा है । सैकड़ों भक्तगण नित्य उनकी कब्र पर प्रार्थना करने आते हैं । सन्त बोनिफस के जीवन से हमें यह नमूना मिलता है कि ख्रीस्त का प्रेम हमें किस प्रकार बदल देता है । प्रभुवर ख्रीस्त के प्रेम के कारण ही सन्त बोनिफस ने आत्माओं की मुक्ति के लिए कठिन परिश्रम किया और अपने जीवन में धन सम्पत्ति की अपेक्षा निर्धनता को अपनाया , आराम की अपेक्षा परिश्रम को ; सुख भोग की अपेक्षा दुःख - पीड़ाओं को और नश्वर सांसारिक जीवन की अपेक्षा मृत्यु को चुना ताकि वह ख्रीस्त के साथ महिमामय अनश्वर जीवन प्राप्त कर सकें । कलीसिया में उनका पर्व 5 जून को मनाया जाता है ।

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