सुप्रीम कोर्ट ने धर्मांतरण याचिका पर विचार करने से किया इनकार। 

सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में डरा-धमकाकर और उपहारों के ज़रिये अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों के सामूहिक धर्मांतरण, काले जादू, अंधविश्वास को नियंत्रित करने के लिए केंद्र को निर्देश देने की मांग की गई थी। शीर्ष अदालत द्वारा इस पर सुनवाई से ही इनकार कर दिया गया।
उच्चतम न्यायालय ने 9 अप्रैल को कहा कि लोग अपने धर्म का चयन करने के लिए स्वतंत्र हैं और उसे ऐसा करने की पूरी आजादी है। धर्मातरण पर रोक लगाने की मांग वाली याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह बात कही है। अधिवक्ता और बीजेपी लीडर अश्विनी उपाध्याय ने अपनी अर्जी में शीर्ष अदालत से काला जादू, अंधविश्वास और धोखाधड़ी से धर्मांतरण कराने पर बैन लगाने की मांग की थी।
न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ. नरीमन के नेतृत्व वाली बेंच ने कहा कि लोगों को धर्म के प्रचार, अभ्यास और प्रचार के लिए संविधान के तहत एक अधिकार है। उन्होंने इस याचिका को खारिज कर दिया और उपाध्यय को फटकार भी लगाई। कोर्ट ने कहा, ʺ18 साल से अधिक आयु के व्यक्ति को धर्म चुनने से रोकने की हम कोई वजह नहीं मानते।ʺ इसके साथ ही अदालत ने कहा कि यह पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन (पीआईएल) जैसी हो गई है, जिसका मकसद लोकप्रियता हासिल करना है।
शीर्ष अदालत ने संविधान का जिक्र करते हुए कहा कि अनुच्छेद 25 में प्रचार की बात कही गई है, जो धर्म की आजादी देता है। सुप्रीम कोर्ट की ओर से सुनवाई से इनकार के बाद उपाध्याय ने अपनी अर्जी को वापस ले लिया। उपाध्याय का कहना है कि वह इस संबंध में कानून मंत्रालय और विधि आयोग के समक्ष अपनी बात रखेंगे। अधिवक्ता ने अपनी अर्जी में सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि वह केंद्र और राज्य सरकारों को अनुसूचित जाति/जनजाति के सामूहिक धर्मांतरण को रोकने के लिए आदेश जारी करे।
इसके अलावा, याचिका में कहा गया है कि अनुच्छेद 46 के तहत संघीय और राज्य सरकार अनुसूचित जाति/जनजाति के सामाजिक अन्याय और शोषण के अन्य रूपों से बचाने के लिए बाध्य है। याचिका में मांग की गई थी कि धर्मांतरण विरोधी कानूनों के पालन के लिए एक कमिटी के गठन का आदेश दिया जाना चाहिए, जिसका काम धोखाधड़ी से धर्मांतरण के मामलों की निगरानी करना होगा।

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