सन्त जोस मरिया एस्क्रीवा

ख्रीस्तीय सिद्धता वहाँ पायी जाती है जहाँ प्रार्थना एवं प्रेमपूर्ण सेवा आपस में संयुक्त रहती हैं। सन्त जोस मरिया एस्क्रीवा का जीवन इस बार का उज्ज्वल उदाहरण है।

 

जोस मरिया का जन्म स्पेन देश के बारबसटोइल नामक नगर में सन् 1902 में हुआ। उनके पिता का नाम जोस एस्क्रीवा और माता का नाम मरिया डोलोरस था। परिवार के छ : बच्चों में जोस मरिया दूसरे थे। उन्हें बपतिस्मा में जोस मरिया नाम दिया गया। उनके माता - पिता दोनों बड़े धार्मिक थे और ख्रीस्तीय विश्वास एवं सद्गुणों का नमूना थे। प्रतिदिन घर में अपने बच्चों के साथ नियमित रूप से प्रार्थना करना उनका जीवन - नियम था। इस प्रकार जोस मरिया को बचपन में ही अपने माता - पिता से सुदृढ़ ईश्वर - विश्वास , माँ मरियम के प्रति पुत्र - तुल्य भक्ति एवं अन्य सद्गुण प्राप्त हुए थे। उनकी बुद्धि अत्यन्त तीव्र थी और पढ़ाई में वे सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आते थे।

 

ईश्वर की यह इच्छा थी कि जोस मरिया को बचपन से ही कष्ट सहन के क्रूस मार्ग पर ले चले। उन्हीं दिनों उनकी तीन छोटी बहनें अचानक संक्रामक रोग के शिकार हो कर अकाल - मृत्यु को प्राप्त हुई, और उनके परिवार आर्थिक तंगी में फंस गया। अतः सन् 1914 में उनके माता - पिता अपने परिवार को ले कर लोगेरानो नामक स्थान में रहने चले गये। जब जोस मरिया 15 वर्ष के थे, तो उस वर्ष की शीत - ऋतु में वहाँ बहुत भारी हिमपात हुआ और सारी धरती बर्फ से ढक गयी। एक दिन वे किसी काम से घर से बाहर गये तो बर्फ की परत के ऊपर उन्हें किसी के नंगे पैरों के पदचिन्ह दिखाई दिये। यह देख कर वे आश्चर्यचकित हो गये । बाद में उन्हें पता लगा कि वे पदचिह्न कार्मेल - संघ के किसी साधु के थे जो कड़ाके की ठण्ड में भी जूते या चप्पल नहीं पहनते थे। जोस मरिया के कोमल हृदय में इस बात का अमिट प्रभाव पड़ा। वे सोचने लगे– “यदि दूसरे लोग ईश्वर के प्रेम और पड़ोसी की सेवा के लिए इतने कष्ट झेलने को तैयार होते हैं, तो मैं क्यों ऐसा जीवन नहीं अपना सकता?" उन्होंने यह अनुभव किया कि ईश्वर के प्यार से किसी विशिष्ट कार्य के लिए उनका हृदय तरस रहा है। किन्तु वे तुरन्त यह नहीं समझ सके कि ईश्वर उनसे क्या चाहते हैं। तब उन्होंने सोचा कि यदि मैं एक पुरोहित बन जाऊँ तो ईश्वर की इच्छा पूरी करने में मुझे अधिक मदद मिलेगी। अतः उन्होंने पुरोहित बनने का निर्णय लिया और सन् 1920 में सेमिनरी में प्रवेश लिया। वहाँ भी वे अध्ययन में बड़े तीव्र थे और अपनी प्रसन्नता, निष्कपटता एवं सौम्यता के कारण वहाँ के प्राध्यापक एवं सहपाठी उनके मित्र बन गये। वे प्रतिदिन अपने अवकाश के समय सेमिनरी के चैपल में परम प्रसाद के सम्मुख प्रार्थना में लीन रहते थे। उनके आध्यात्मिक जीवन का आधार युखरिस्तीय येसु धे । साथ ही वे नियमित रूप से पिलार की माता मरियम के गिरजे में माँ की प्रतिमा के सम्मुख घुटने टेक कर उनसे वह निवेदन करते थे कि उनके विषय में ईश्वर की क्या इच्छा है , यह उन्हें बताने की कृपा करें।

 

25 मार्च 1925 को जोस मरिया का पुरोहिताभिषेक सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् अपने धर्माध्यक्ष की अनुमति से उन्होंने गरीबों की बस्तियों में जा कर बच्चों, रोगियों तथा अत्यन्त गरीबी के कारण कष्टपूर्ण जीवन बिताने वाले लोगों की सेवा सहायता करना प्रारम्भ किया। बड़े प्यार से उनकी मदद करते हुए वे प्रतिदिन घण्टों तक उनके साथ बिताने लगे। तब उन्होंने कुछ दिन एक आध्यात्मिक साधना में बिताये । प्रभु के साथ एकान्त में रह कर मनन करते हुए उन्हें अपने जीवन के उस विशिष्ट कार्य का स्पष्ट अनुभव हुआ कि प्रभु उनसे क्या चाहते थे । वह था “कलीसिया में एक ऐसा नवीन सेवा - मार्ग प्रारम्भ करना जिसका लक्ष्य है - साधारण विश्वासियों के हृदय में ख्रीस्तीय सिद्धता-प्राप्ति की इच्छा जागृत करना तथा पड़ोस - प्रेम, निःस्वार्थ सेवा - भाव एवं प्रार्थना - जीवन का विकास करना। ” अतः उन्होंने 2 अक्टूबर 1928 को ' ओपुस देई ' नामक संस्था की नींव डाली। ‘ओपुस देई' एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है- “ईश्वर का कार्य।” यह संस्था इस बात पर जोर देती है कि ईश्वर- प्रेम में सिद्धता प्राप्त करने का आह्वान सभी लोगों के लिए है; और प्रत्येक व्यक्ति अपने साधारण कार्यों द्वारा सन्त बनने के लिए बुलाया गया है। अतः ओपुस देई के द्वारा फादर जोस मरिया ने सब विश्वासियों को इस बात के लिए प्रेरणा एवं सहायता देना प्रारम्भ किया कि किसी प्रकार वे अपने साधारण दैनिक कार्यों द्वारा ईश्वर के प्रेम और पड़ोसी की प्रेमपूर्ण सेवा करते हुए सन्त बन सकते हैं।

 

सन् 1943 में फादर जोस मरिया ने “पवित्र क्रूस के पुरोहित संघ” नाम से पुरोहितों को भी ‘ओपुस देई' में शामिल किया। सन् 1950 में इस संस्था को सन्त पिता की ओर से पूर्ण स्वीकृति प्राप्त हुई और अकाथलिकों को भी इसके सदस्य बनने की अनुमति दी गयी। मार्च 1975 में फादर जोस मरिया ने अपने पुरोहिताई की स्वर्ण - जयन्ती मनायी। तब उन्होंने कहा- “यद्यपि मेरे पुरोहितीय जीवन के पचास वर्ष बीत गये, किन्तु मैं अब भी स्वयं को एक नन्हें बालक जैसा महसूस करता हूँ। मैं अब जीवन प्रारम्भ कर रहा हूँ ; अपने अन्तिम दिनों तक भी मैं ऐसा ही रहूँगा ; अर्थात् प्रतिदिन नये सिरे से प्रारम्भ करना।”

 

तीन ही महीनों पश्चात् 26 जून 1975 को हृदयघात से उनका देहान्त हुआ। तब तक ‘ओपुस देई' के करीब साठ हजार सदस्य हो गये थे और यूरोप और अमेरिका के 80 देशों में उसका प्रसार हो चुका था। अब तक इसके सदस्यों की संख्या 87 हजार से भी अधिक हैं जिनमें अधिकांश अयाजक विश्वासीगण ही हैं। सन्त पिता पियुस 12 वें ने कहा कि 'ओपुस देई' आज सारे संसार में फैल गयी है। यह एक विशेष मिशन है, एक जीवन - मार्ग है जो साधारण ख्रीस्तीयों को यह समझने का अवसर देता है कि उनका जीवन पवित्रता का मार्ग है और सुसमाचार- घोषणा का एक साधन है। जो लोग पवित्रता के इस आदर्श को ग्रहण करते हैं, उन्हें 'ओपुस देई' सभी आवश्यक आध्यात्मिक सहायता एवं प्रशिक्षण प्रदान करती है।

 

सन् 1992 में सन्त पिता जॉन पौल द्वितीय ने फादर जोस मरिया को धन्य घोषित किया और 6 अक्टूबर 2002 को उन्हें सन्त की उपाधि से विभूषित किया। उन्हें साधारण लोगों का सन्त कहा जाता है। उनका जीवन हमें स्मरण दिलाता है कि ईश्वर पिता सभी लोगों को सिद्धता - प्राप्ति के लिए बुलाते हैं। 26 जून को इनका पर्व मनाया जाता है।

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