पादुआ के सन्त अन्तोनी

फ्रान्सिस - समाजी एवं सारी कलीसिया में अत्यन्त लोकप्रिय सन्त अन्तोनी का जन्म पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में 15 अगस्त 1195 को एक कुलीन परिवार में हुआ। बपतिस्मा में उनको फेर्डिनंड नाम दिया गया। उनके माता - पिता उच्च वर्ग के होते हुए भी बहुत धार्मिक थे और उन्होंने अपने पुत्र की शिक्षा - दीक्षा का भार लिस्बन महागिरजाघर के पुरोहितों को सौंप दिया। वहाँ रहते हुए उन्हें उत्तम शिक्षा प्राप्त हुई। साथ ही धार्मिक जीवन की प्रबल इच्छा भी उनमें हुई । अतः पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में ही वे सन्त अगस्तिन के धर्मसंघ में भरती हो गये।

दो वर्ष बाद उन्हें कोइंब्रा के मठ में भेजा गया। वहाँ वे प्रार्थना एवं धर्मशास्त्रों के गहरे अध्ययन में लगे रहे। उनकी बुद्धि एवं स्मरण शक्ति अत्यन्त तीव्र थी। तीन वर्षों के गहन अध्ययन के द्वारा उन्होंने धर्मशास्त्रों का असाधारण ज्ञान प्राप्त कर लिया और ईश - शास्त्र के पंडित बन गये । वे आठ वर्षों तक वहीं रहते हुए धर्मज्ञान की शिक्षा देने में लगे रहे। तब उन्हें मोरोक्को में फ्रान्सिस - समाजियों के शहीद होने का समाचार प्राप्त हुआ। उससे वे इतने प्रभावित हुए कि उनके हृदय में भी प्रभु येसु के प्रेम से शहीद बनने की तीव्र अभिलाषा जाग उठी। अतः इसी उद्देश्य से वे अधिकारियों की अनुमति ले कर सन्त फ्रान्सिस के धर्मसंघ में भरती हुए और अपना नाम बदल कर अन्तोनी नाम धारण किया। वहाँ उनके पुरोहिताभिषेक के पश्चात् उन्होंने अपने अधिकारियों से निवेदन किया कि सुसमाचार प्रचार के लिए उन्हें मोरोक्को भेजा जाए। उनकी माँग मंजूर हुई और वे मोरोक्को गये। किन्तु मोरोक्को पहुँचते ही वे किसी गम्भीर रोग के शिकार हुए और फलस्वरूप उन्हें वापस आना पड़ा। लौटते समय उनका जहाज समुद्री तूफन में भटक गया और इटली के पास सिसिली नामक द्वीप में पहुँच गया। वहाँ से वे फ्रान्सिस समाज की महासभा में भाग लेने अस्सीसी गये और वहाँ सन्त फ्रान्सिस से उनकी मुलाकात हुई। किन्तु अन्तोनी ने अपनी असाधारण विनम्रता के कारण अपनी तीव्र बुद्धि एवं विद्वता को बिल्कुल छिपाये रखा और अपने विषय में पूर्णतः मौन रहे। अतः उन्हें मठ के अन्दर साधारण सेवा - कार्यों में लगाया गया। किन्तु आगे किसी विशेष समारोह के अवसर पर पूर्व नियत विशिष्ट वक्ता के अनुपस्थित होने से उनकी जगह प्रवचन देने का कार्य अन्तोनी को सौंपा गया । उन्होंने नम्रतापूर्वक आदेश का पालन किया। जब उन्होंने प्रवचन देना प्रारम्भ किया, तो सभी श्रोतागण उनकी वाक्पटुता, विद्वता, धार्मिक जोश एवं पवित्रात्मा के सामर्थ्य से पूर्ण वचन सुन कर आश्चर्य चकित रह गये और मंत्र - मुग्ध हो सुनते रहे। अन्तोनी के इस अनुपम वरदान से प्रभावित होकर अधिकारियों ने उन्हें उत्तरी इटली के गैर - ख्रीस्तीयों तथा दक्षिणी फ्रांस के अल्बीजेन्सियन विधर्मियों के बीच सुसमाचार - प्रचार के लिए नियुक्त किया। लोगों को प्रवचन देने के अलावा सन्त फ्रान्सिस ने उन्हें अपने धर्मबन्धुओं के लिए ईश - शास्त्र का शिक्षक भी नियुक्त किया। फ्रान्सिस - समाज में यह पद प्राप्त करने वाले प्रथम व्यक्ति वे ही थे। सन्त अगस्तिन के सिद्धातों को फ्रान्सिस - समाज में चलाने का श्रेय भी सन्त अन्तोनी को है। विद्वता एवं धर्मोत्साह के साथ - साथ उनकी वाणी भी अत्यन्त प्रभावशाली थी। उनका प्रवचन सुनने के लिए श्रोताओं की भीड़ उमड़ पड़ती थी। उनके प्रवचन के प्रभाव से लोगों के जीवन में आमूल परिवर्तन तथा सुधार होता था। उन दिनों जबकि गिरजाघर छोटे ही हुआ करते थे , अन्तोनी गलियों और चौराहों पर प्रवचन देते थे।

अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में वे पादुआ में ही रह कर लोगों को शिक्षा देते रहे और उनकी हर आवश्यकता एवं कष्ट - कठिनाइयों में उनकी मदद किया करते थे। विशेष कर गरीबों और दुःखियों के प्रति उनके हृदय में अपार दया एवं सहानुभूति थी। फलस्वरूप वहाँ उन्हें लोगों से बहुत प्यार प्राप्त हुआ। किन्तु लगातार कार्य करने और घण्टों तक बोलते रहने के कारण उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया। उनकी हालत दिनों - दिन बिगड़ती गयी और 36 वर्ष की अल्पायु में ही उनका स्वर्गवास हो गया।

उनके देहान्त के एक ही वर्ष बाद 30 मई 1232 को सन्त पिता ग्रेगोरी नवें के द्वारा उन्हें सन्त एवं कलीसिया के गुरू घोषित किया गया। इसका कारण यह था कि उनके नाम पर अनेकों चमत्कार हुए । रोगी चेंगे हो गये, दुष्ट आत्माएँ उनके नाम की प्रार्थना से भाग जाते थे और लोगों को खोयी हुई वस्तुएँ मिल जाती थीं। इसी तरह अन्य असंख्य चमत्कार जिनके सच्चे प्रमाण प्राप्त हुए थे। 16 जनवरी 1946 को सन्त पिता पियुस 12 वें ने सन्त अन्तोनी को कलीसिया के आचार्य घोषित किया।

सन्त अन्तोनी के चित्र में उन्हें बालक येसु को गोद में लिये हुए चित्रित किया जाता है । कहा जाता है कि एक बार उनके कोई मित्र उनसे मिलने गये। उनके कमरे के बाहर पहुँचने पर उस व्यक्ति ने देखा कि कि सन्त अन्तोनी बालक प्रभु को गोद में लिये उनकी ओर परम आनन्द में मग्न हो कर देख रहे हैं। सन्त अन्तोनी माता मरियम के परम भक्त थे। मरियम के प्रति उनकी भक्ति शिशु - तुल्य थी । वे कहते थे- “मरियम का नाम होंठो के लिए मधु से भी मधुर, सुरीले गान से भी अधिक श्रुति- मधुर एवं हृदय के लिए निर्मलतम आनन्द से बढ़ कर मूल्यवान हैं।" आत्मिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार की आवश्यकताओं में सन्त अन्तोनी की भक्ति की जाती है । कलीसिया में उनका पर्व 13 जून को मनाया जाता हैं ।

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