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पोप ने कहा- ख्रीस्तीय स्वतंत्रता, वैश्विक स्वतंत्रता का खमीर।
संत पिता फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में संत पौलुस द्वारा ख्रीस्तियों को बतलाये गये स्वतंत्रता पर प्रकाश डालते हुए इसे वैश्विक स्वतंत्रता का खमीर निरूपित किया।
संत पिता फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पापा पौल षष्ठम के सभागार में एकत्रित हुए सभी विश्वासियों और तीर्थयात्रियों को संबोधित करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों, सुप्रभात।
गलातियों के नाम संत पौलुस के पत्र पर अपनी धर्मशिक्षा के अंतर्गत हमने स्वतंत्रता के मूलमंत्र पर चिंतन किया जो संत पौलुस के जीवन का अहम भाग है। वास्तव में, हम सभी येसु ख्रीस्त की मृत्यु और पुनरूत्थान के द्वारा पाप और मृत्यु की दासता से स्वतंत्र किये गये हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हम सभी स्वतंत्र हैं क्योंकि हमें कृपा स्वरुप मुक्ति मिली है, हम प्रेम में स्वतंत्र किये गये हैं, जो ख्रीस्त जीवन का सर्वोतम और सबसे बड़ा नियम बनता है। हमें प्रेम के कारण उदारता में यह स्वतंत्रता मिली है।
संत पिता फ्रांसिस ने कहा कि आज मैं इस नये जीवन के संबंध में उस बात पर जोर देना चाहूँगा जो हमें खुले रूप में सभी संस्कृति और लोगों का स्वागत करने और सभी लोगों और संस्कृति को स्वत्रंतता हेतु अग्रसर करती है। वास्तव में, संत पौलुस कहते हैं कि जो येसु ख्रीस्त का अनुसरण करते हैं उनके लिए यह कोई महत्व नहीं रखता कि वे यहूदी हैं या गैरयहूदी, “महत्व विश्वास का है जो प्रेम से अनुप्रेरित है” (गला.5.6)। संत पौलुस के विरोधी उनकी इस नवीन सोच का विरोध करते हैं इस धारणा के साथ कि वह प्रेरिताई के अवसर का लाभ उठाने या सभों को खुश करने हेतु इस विचार को प्रसारित करते हैं, अपनी संकुचित धार्मिक परंपरा के कारण धार्मिक मांगों को न्यूनतम बनाते हैं। हम देख सकते हैं कि सुसमाचार प्रचार की नवीनता का विरोध न केवल हमारे समय किया जाता है बल्कि इसका एक प्राचीन इतिहास रहा है। संत पौलुस यद्यपि इस संबंध में चुपचाप नहीं रहते हैं। वे पारेसिया (यूनानी शब्द, साहस और दृढ़ता की अभिव्यक्ति) में इस उत्तर देते हुए कहते हैं, “मैं अब किसी का कृपापात्र बनने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ- मनुष्यों का अथवा ईश्वर काॽ क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूँॽ यदि मैं अब तक मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता, तो मैं मसीह का सेवक नहीं होता” (गला.1. 10)। थेसलनीकियों के नाम अपने पत्र में संत पौसुल अपने इन विचारों को पहले ही अभिव्यक्त कर चुके थे यह कहते हुए कि उनके प्रवचनों में “चाटुकारी की बातें कभी नहीं निकलीं और न हमने लोभ से प्रेरित होकर कुछ किया, हमने मनुष्य का सम्मान पाने की चेष्टा नहीं की” (1.थेस.2.5-6)।
संत पौलुस के विचार हमारे लिए पुनः अपने में एक गहरी प्रेरणा को व्यक्त करते हैं। विश्वास का स्वागत करना उनके लिए उन बातों को अस्वीकरना नहीं जो संस्कृति और परंपरा के हृदय में हैं बल्कि उन बातों का जो नवीनता और सुसमाचार की शुद्धता पर बाधा उत्पन्न करते हैं। क्योंकि स्वतंत्रता जो हमें येसु ख्रीस्त की मृत्यु और पुनरूत्थान से मिली है वह संस्कृति और परंपराओं से युद्ध नहीं करती जिसे हमने पाया है वरन यह उनमें एक नई स्वतंत्रता, मुक्ति की नवीनता को लाती है जो सुसमाचार से आती है। वास्तव में, बपतिस्मा में मिली स्वतंत्रता हमें पूर्ण मानवीय सम्मान में ईश्वर की संतान बनाता है जिसके फलस्वरूप हम अपनी संस्कृति की जड़ों में मजबूती से जुड़े रहते हैं, वहीं हम अपने को वैश्विक विश्वास के लिए खोलते जो सभी संस्कृति में प्रवेश करता, जिसके द्वारा हम मौजूद सत्य की गुठली को पहचानते, उसे विकसित करते और उसमें निहित अच्छाई को पूर्णता में लाते हैं। येसु ख्रीस्त के दुःखभोग, मृत्यु और पुनरूत्थान में मिली स्वतंत्रता को स्वीकारना हमें दूसरे लोगों को स्वीकारने और उनमें पूर्णतः लाने में मदद करता है जो सच्ची पूरिपूर्णतः है।
अपनी स्वतंत्रता के बुलावे में हम सुसमाचार के अर्थ को दूसरे सांस्कृतिक संदर्भो में अच्छी तरह समझते हैं। यह हमें दूसरी संस्कृतियों में व्याप्त सच्चाई और अच्छाई का सम्मान करते हुए येसु ख्रीस्त के सुसमाचार को घोषित करने में मदद करता है। यह अपने में सहज नहीं है। यहाँ हम अपने लिए बहुत सारी परीक्षाओं को पाते हैं जहाँ हम अपनी जीवन शैली को दूसरों में थोपने की चाह रखते हैं मानो वह अपने में सबसे अच्छी और परिष्कृत हो। सुसमाचार प्रचार के नाम पर इतिहास में कितनी सारी गलतियाँ हुई हैं क्योंकि हम केवल एक संस्कृति के आदर्श को लागू करने की चाह रखते हैं। कभी-कभी, एक विचार धारा को लागू करने के लिए हिंसा का भी उपयोग किया गया। इस भांति हम कलीसिया में मूल्यवान बहुमुखी स्थानीय अभिव्यक्ति का अभाव पाते हैं जो विभिन्न सांस्कृतिक परंपरा के लोगों द्वारा लाया जाता है। लेकिन यह ख्रीस्तीय स्वतंत्रता के एकदम खिलाफ है। संत पापा ने चीन में प्रेरिताई कार्य हेतु रिच्ची और भारत में फादर रोबर्ट डी नोबिली के द्वारा अपनाये गये स्थानीय परंपराओं की चर्चा की जिसे कलीसिया ने अस्वीकार किया था।
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