बिन ब्याही मां ही बच्चे की सब कुछ, पिता की अनुमति जरूरी नहीं। 

सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने हाल ही में फैसला दिया है कि जिन कयाही मां अपने बच्चे की सब कुछ होगी । पिता के नाम के स्थान पर कई बार ऐसी मां को अपने आती थीं, इसी संदर्भ में यह फैसला दिया गया है। संभवतः यह पहली बार है कि न तो मां का और न ही उसके बच्चे का नाम जाहिर किया गया है। अदालतले आदेश देते समय 'ममता' शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा कि मां मारो के हिल को सबसे बेहतर समझती है।
कुछ समय पहले ही विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि तलाक के मामलों में बच्चों को माता और पिता दोनों के साथ रहने का मौका मिलना चाहिए। बच्चों के हक में एक अहम फैसला सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश विक्रमजीत सेन और न्यायाधीश अभय सप्रे की खंडपीठ ने दिया है। इस फैसले में कहा गया है कि बिन ब्याही मां ही बच्चे की पालक होगी। इसमें पिता की अनुमति की जरूरत नहीं रहेगी।
इस मामले में जो तथ्य हैं वे कुछ इस तरह से हैं- एक जिन ब्याही मां अपने नाबालिग बच्चे को बैंक खाते और बीमा पॉलिसी में नोमिनी बनाना चाहती है। इसमें यदि किसी सूरत में मां को कुछ हो जाता है तो सारा लाभ बच्चे को मिल सकेगा। यहीं से सारी समस्याएं शुरू हुई। समस्त फॉर्स भरने के दौरान पिता का नाम भरने का कॉलम रहता है। मां नहीं चाहती थी कि पिता के नाम का खुलासा हो, क्योंकि उसकी बच्चे के पिता से कभी शादी नहीं हुई। न ही मां ने इस बात के लिए कोई नाराजगी जाहिर की। 5 साल का अबोध बच्चा कभी अपने पिता से नहीं मिला और न ही कभी पिता ने उससे मिलने में कोई रूचि दिखाई थी। न ही बच्चे को बड़ा करने में पिता ने कभी मां की मदद की।
जब इस मां ने निचली अदालतों में पिता का नाम न भरने की छूट मांगी, तो वहां से इस गुहार को नकार दिया गया। सभी जगह यह कहा गया कि पिता का नाम लिखना ही होगा। साथ ही बच्चे के पिता की ओर से लिखित अनुमति भी लगेगी, ताकि कानूनी जरूरतें पूरी की जा सकें। इस मां ने इससे इंकार किया तो उससे पालक या दत्तक प्रमाण - पत्र अदालत से लाने को कहा गया। निचली अदालतों में जब इस मां को बच्चे की एकमात्र पालक मानने की याचिका नहीं मानी गई तो वह गार्जियनशिप एंड वाईस कानून की धारा 7 के तहत मामला सुप्रीम कोर्ट लेकर पहुंची।
किसी को पालक साबित करने के ये अधिकार अदालत के पास हैं।
(1) यदि अदालत को लगता है कि यह बच्चे की भलाई के लिए ठीक है , तभी अदालत इस तरह के आदेश दे सकती है- 
(अ) किसी बच्चे या संपत्ति या दोनों का पालक बना सकती है। 
(ब) किसी व्यक्ति को उक्त बच्चे का पालक घोषित कर सकती है। 
(2) इस धारा के अंतर्गत आदेश ऐसे किसी भी पालक को हटा सकते हैं, जो वसीयत या अन्य किसी दस्तावेज के आधार पर नहीं बनाए गए हैं। या इनको अदालत ने पालक घोषित नहीं किया हो। 
(3) यदि किसी मामले में अदालत पालक तय करती है या वसीयत के मुताबिक कोई पालक है तो कोई दूसरा व्यक्ति पालक तब तक नहीं बन सकता, जब तक कि पहले पालक की अवधि समाप्त नहीं होती है। 
सरल शब्दों में पालक की नियुक्ति अदालत द्वारा की जा सकती है। इसमें बच्चे की भलाई और उसके हितों को सबसे ऊपर रखा जाता है। यह दिलचस्प है कि इस मामले में महिला है, लेकिन फिर भी अदालत ने हिंदू अल्पसंख्यक एवं पालक अधिनियम का जिक्र किया और आदेश समान आचार संहिता के तहत दिया। अदालत ने आदेश देते समय 'ममता' शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा कि मां बच्चे के हित को सबसे बेहतर समझती है। 
इस फैसले से अदालत ने पिता पर भी यह भार डाला कि वह भी बच्चे की जिम्मेदारी को समझे। दूसरी ओर, इसमें मां की आय या अर्जन की क्षमता का भी ध्यान रखा गया है और वह किस हद तक बच्चे की देखरेख कर सकती है, इसको भी संज्ञान में लाया गया है। फिर भी कोई किसी भी आस्था या धर्म का पालन करता हो, माता- पिता के लिए बच्चे की भलाई सर्वप्रथम है।
जिस तरह से सभी फैसलों में होता है, इस फैसले में भी 'गेटकीपर्स' हैं। यदि इस मामले में पिता अदालत के फैसले को चुनौती देता है और बच्चे की भलाई को समझते हुए उसका जिम्मा उठाने को तैयार है तो अदालत इस तरह के आवेदन पर विचार करेगी। इस लिहाज से यह उस महिला की जीत नहीं, वरन बच्चे की भलाई की दिशा में प्रयास है। अन्यथा बच्चे इस तरह के मामलों में हमेशा हथियार या माता- पिता के अहंकार के बीच फुटबॉल बन जाते हैं। 
इस फैसले में एक और चौंकाने वाली बात यह है कि कहीं भी मां, पिता और बच्चे का नाम जाहिर नहीं किया गया है। इसमें मां का नाम एबीसी लिखा है औ केस एबीसी बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) के नाम से चला। बिन ब्याही मां का ठप्पा नाम जाहिर न होने से नहीं लगेगा, न ही बच्चे को इस निगाह से देखा जाएगा। सबसे अहम यह है कि वह ऐसी मां है, जो अपने बच्चे से प्रेम करती है। यहां तक कि पिता का नाम भी इसमें नहीं दिया है जो पूरे मामले में खलनायक है। वह सिर्फ कागज पर ही पिता है, वास्तव में नहीं। इस फैसले में साफ कहा है, कोई जवाबदारी नहीं है तो कोई अधिकार भी नहीं होगा- इस एक लाइन से कई लोगों में उम्मीद जगी है- घरों में नौकरानी का काम करने वाली सुलभा की शादी गांव में हुई है। उसे हमेशा डर रहता है कि उसका पति उसके 6 साल के बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं निभाता है, लेकिन अंततः वह उसका जैविक पिता रहेगा और उसका अधिकार रहेगा, लेकिन इस एक पंक्ति ने बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया है। 
सामाजिक और कानूनी पक्ष : यह फैसला समाज में बदलाव का एक अच्छा उदाहरण है। किसी कानून के विकास में समाज आइने का काम करता है। समाज ने उन महिलाओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया है, जिन्होंने जीवन में एक गलती की है और उसका खामियाजा वह बच्चे का भार उठाकर कर रही है। वह पूरा जीवन इस दाग के साथ क्यों गुजारे कि वह बिन ब्याही मां है? जस्टिस सेन ने टिप्पणी की है कि 'आज के समाज में महिलाएं बच्चों को अकेले ही बढ़ा कर रही हैं। ऐसे में अनिच्छुक पिता या ऐसा पिता जिसे चिंता ही नहीं है, उसे थोपने का तात्पर्य नहीं है।'

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