
कुछ ही दिनों बाद उसकी सास मर गयी और साल भर बाद पति भी दो पुत्रों और एक पुत्री को छोड़ कर चल बसा। मोनिका पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा किन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी। पति की मृत्यु के बाद मोनिका की सारी आशा अपने बड़े बेटे अगस्तिन पर लगी थी जो उस समय सत्रह वर्ष का था। वह बड़ा प्रखर बुद्धि एवं परिश्रमी था। किन्तु कार्थेज नगर में उच्च शिक्षा प्राप्त करते हुए उसने मनिकेयी नामक विधर्मी मत को स्वीकार कर लिया। और आवारा जीवन बिताने लगा। यह समाचार पाकर मोनिका का हृदय तीव्र दुःख से कराह उठा। वह अनेकों रात जाग कर घुटनों के बल गिरती अपने पुत्र के मन-परिवर्तन के लिए प्रार्थना करने लगी। इस तरह नौ वर्ष बीत गए। किन्तु बेटे के मन परिवर्तन के लिए माँ की प्रार्थना और तपस्या में कोई कमी नहीं आयी। उसका हृदय भीतर ही भीतर रोता रहा। कहा जाता है कि -जहाँ कहीं भी वह प्रार्थना किया करती थी, वहां की धरती को आंसुओं से भिगोती थी। ऐसे में उसकी भेंट मिलान के ज्ञानी एवं अनुभवी धर्माध्यक्ष अम्ब्रोस से हुई। उसने धर्माध्यक्ष जी को अपने पुत्र की दुर्दशा के विषय में बताकर उनसे निवेदन किया कि वे अपने पुत्र को मनिकेयी विधर्म से वापस लाएं। धर्माध्यक्ष ने मोनिका को धीरज बांधते हुए कहा- "यह कैसे संभव है कि जिस पुत्र के लिए इतने आंसू बहाये जा रहे है, वह नष्ट हो जाए ?" इन शब्दों ने मोनिका को आशा की एक किरण दिखयी पड़ी और वह आशा पूर्वक अपनी प्रार्थनाओं में निरंतर बनी रही।
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