अब अगस्तिन ने रोम जाकर वहाँ अलंकार-शास्त्र का प्रोफेसर बनना चाहा। वहाँ से वे मिलान गए जहाँ उसे प्राध्यापक का पद प्राप्त हुआ। मिलान में उसका परिचय महान धर्माध्यक्ष संत अम्ब्रोस से हुआ। धर्माध्यक्ष की संगती एवं पवित्र जीवन से अगस्तिन बहुत प्रभावित हुआ। माँ की प्रार्थना सुनी गयी और पवित्र जीवन से अगस्तिन ने सन 387 में मनिकेयी विधर्म त्याग दिया और काथलिक धर्म में दीक्षित हुआ। माँ की चिरकाल की अभिलाषा पूर्ण हुई। इतना ही नहीं उसने एक पुरोहित बनकर ख्रीस्त के सुसमाचार का प्रचार करना चाहा। माँ का हृदय आनंदातिरेक से उमड़ पड़ा। उसने कहा-"बीटा, जिस दिन को देखने के लिए मैं जी रही थी, ईश्वर ने उससे भी बड़ा दिन मुझे दिखा दिया। तुम ख्रीस्त के लिए जीवन अर्पित करने जा रहे हो, इससे बढ़कर आनंद की बात क्या हो सकती है ? प्रभु ने तुम्हे सीखा दिया है कि उनका अनुसरण करने के लिए इस संसार की सभी खुशियों को त्याग देना है। मेरा एक ही निवेदन है कि तुम प्रभु की वेदी पर प्रतिदिन मेरी याद करना।" जब मोनिका अपने महान पुत्र के साथ कार्थेज जाने के लिए रोम तक पहुँची, वहीं अपने पुत्र के ही बाँहों में उसका देहांत हो गया। उसकी आयु केवल छप्पन वर्ष थी। उसका पुत्र अगस्तिन आगे हिप्पो नगर के धर्माध्यक्ष, कलीसिया के धर्माचार्य एवं संत बने। अगस्तिन ने अपनी माँ के विषय में कहा-"मैं कभी यह वर्णन नहीं कर पाऊंगा कि मेरी माँ का प्रेम मेरे लिए कितना महान था। उसने अपनी दृष्टि से तथा अपने शब्दों से मेरे हृदय को ईश्वर की ओर उठाया। हे ईश्वर, यदि मैं अब तुम्हारा पुत्र हूँ, तो वह इस कारण कि तूने मुझे ऐसी महान माता प्रदान की।
कलीसिया में 27 अगस्त को मोनिका का पर्व मनाया जाता है। सदियों से भक्तजन मोनिका को विधवाओं की संरक्षिका एवं आदर्श माता मान कर उसकी मध्यस्थता से प्रार्थना करते आ रहे है।

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