नारीत्व 

प्रतीकात्मक तस्वीर प्रतीकात्मक तस्वीर

हर महिला उसके जन्म से ही पवित्र है। ईश्वर ने उसके अंदर शक्ति, भावुकता, साहस, धैर्य, सहनशीलता, सहानुभूति, प्यार, दुर्बलता, क्रोध ऐसे अनेको गुण जन्म से ही छिपा कर रखे है। एक पिता के लिए क्षमा करना शायद इतना आसान नही होता है, जबकि माँ ऐसी गलतियों को भी क्षमा कर सकती है। माँ के दिल की अदालत में सभी गलतियों एवं अपराधों की माफी भी मुमकिन है।
एक साधारण मनुष्य के हृदय में चार कक्ष होते है। जिसके बारे में हम सभी ने विज्ञान विषय में जरूर पढ़ा होगा। मगर जब बात नारी की होती है तो वह अपने हृदय के चार कक्ष में एक में वह माँ है, दूसरे में बहन, तीसरे में एक सखी है और चौथे कक्ष में वह एक सन्यासिनी है। जब वह किसी को आश्रय देती है तो वह एक माँ के रूप में, किसी का इंतज़ार करने पर एक बहन के रूप में, सबकुछ समझकर क्षमा करते समय एक सखी के रूप में और प्रार्थना करते समय वह एक साध्वी या सन्यासिनी का रूप होती है। 

नारी ईश्वर के द्वारा बनाई गई सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से है। नारी अपने पति एवं बच्चे के खातिर शारिरिक एवं मानसिक पीड़ाओं को मुस्कुराकर सहने वाली माताएं आज भी हमारे समाज मे विद्यमान जरूर है। पति के नाजायज रिश्तों को अपनी ही आंखों के सामने देखने के बावजूद भी, अपने बच्चों के खातिर, उनको मालूम न पड़ने के लिए, परिवार के खातिर, उससे भी अधिक पति के प्रति उसके प्रेम के कारण, बिना कोई प्रतिक्रिया किये, दिल मे अंगारों के साथ अनेकों माताएं आज भी हमारे समाज मे है। लेकिन अपनी पत्नी के किसी नाजायज़ रिश्ते की जानकारी के बाद, उसके साथ जीने के लिए शायद ही कोई पुरुष तैयार हो। क्योंकि महिला हमेशा समझौता कर लेती है। अगर वह समझौते के लिए तैयार नही होती तो, परिवार का खंडित होना तय है। बच्चे अनाथ हो जाएंगे, बच्चों की नजरों में बाप की कोई इज्जत नही राह जाएगी। ईश्वर ने नारी को दुख झेलने के लिए विशिष्ट वरदान प्रदान किया है। स्त्री को दुर्बल, नाजुक कहना नाइंसाफी ही होगी। क्योंकि सबसे बड़ा योद्धा एक माँ होती है।

पुराने जमाने मे माताएं, पिता की प्लेट का बचा खाना खाना अपना अधिकार मानती थी। मगर आज के इस दौर में यह परंपरा लुप्ति की कगार पर है। इसी के साथ देरी से घर पहुंचने वाले पति का खाली पेट इंतज़ार करने वाली पत्नियों की संख्या भी न के बराबर होने लगी है। यह तमाम चीज़े पुरानी कहानी बनती जा रही है। आजकल की माताओ को इसमें कोई मूल्य ही नही दिखता। लेकिन मेरा अनुभव यह है कि पति पत्नी की यही चाहत होती है कि वे एक साथ इस संसार से विदा ले। इसका मुख्य तर्क मेरे बताए हुए कार्यों में निहित है। उन दिनों में पापा बच्चों के खिलाफ एक लफ्ज भी बोले तो उनको बर्दाश्त नही होता था। मगर आज मम्मी के मुँह को चुप कराने की जिम्मेदारी बच्चो की भी होने लगी है। पति भले ही दारुढ़ियाँ हो, बड़े परिवार से भले नही हो, पारिवारिक जिम्मेदारियों को नजरअंदाज करने वाला भी हो, फिर भी सब सहकर अपनी बेटियों के लिए आदर्श बनी रहती थी। अगर माँ अपने पति को आदर नही देती तो उसकी बेटी अपने पति को सम्मान देना कहाँ से सीखेगी? 

हमारी माताएं क्षमा देने, समझौता बकरने और अपने पति के घरवालों को अपनाने की सीख दिया करती थी। मगर आज वह अपने बच्चो को समानता की अनिश्चित शिक्षा देने पर तुली हुई है। "मैं किसी से कम नही", और "हमें झुकने की जरूरत नही" क्योंकि "हम छोटे नही है" और इसी शिक्षा का दूषित फल परिवारों का टूट जाना है। पहले तो माताएं समस्याओं के निराकरण के लिए ईश्वर के समक्ष समय बिताया करती थी। लेकिन आज की माताएं टीवी के धारावाहिकों में अपने आपको ढूंढती फिरती है। हमारी माताओं का हाथ आशीषों एवं अनुग्रह भरा हुआ करता था। हमारे जीवन की हरियाली में भी उनकी आशीषों के कण विद्यमान है।

प्यार एक दर्दभरा अहसास है। वास्तव में महिला भगवान का दूसरा रूप होती है। किसी भी महिला का शरीर भगवान का मंदिर है। वह अपनी कोख में जीवन के अंश को धारण करने वाली होती है। अपने अन्दर के भगवान को सबसे पहले स्वयं पहचानना चाहिए। किसी भी लड़की/ महिला को अपने शरीर को अपवित्र नहीं करना चाहिए एवं स्वयं को नष्ट करने से बचना चाहिए। जीवन में कितनी भी विपरित परिस्थितियों का सामना करना पड़े, आत्म-संयम के साथ ईश्वर पर विश्वास रखते हुए, आँखें खोलकर देखने से बेशक किसी भी रेगिस्तान में पानी की एक धार या अंधकार में रोशनी की एक छोटी सी किरण दिखाई देगी। माताओं/ महिलाओं को छोटी - छोटी समस्याओं को लेकर हिम्मत न हारते हुए निराश नहीं होना चाहिए, न ही आसूं बहाना चाहिए। हमारे आसुओं की कीमत को गंभरीरता से समझने वाला हो, तभी हमारे आंसू निकलने चाहिए। नहीं तो पल्के गीली करना व्यर्थ है।

नारी संघर्ष एवं संयम का दूसरा नाम है। अपनी ज़िंदगी में जितना संघर्ष एक महिला करती है उतना संघर्ष पुरुषों को नही करना पड़ता है। माँ की कोख में जन्म से पहले ही जीवन के लिए उसका संघर्ष शुरू हो जाता है। और जब एक बच्ची के रूप में इस संसार मे जन्म लेती है तो उसे अपने परिवार की इज्जत का ध्यान रखते हुए मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। उसे पढ़ाई से लेकर हर चीज़ के लिए संघर्ष करना पड़ता है। यहाँ तक कि अपनी पसंद के जीवनसाथी के लिए भी उससे पूछा नही जाता है। शादी के बाद अपने पति के घर की इज्जत का हवाला देकर उसके सपनों को कुचल दिया जाता है। अपने बच्चों एवं पति के लिए एक नारी अपना सम्पूर्ण जीवन न्योछावर कर देती है।

ऐसी नारी को दिल से नमन है। एक महिला अपने पति से सिर्फ यही चाहती है कि वो उसे वह इज्जत व सम्मान दे जिसकी वह हक़दार है। साथ ही प्रेम जिसकी उसे सबसे अधिक आवश्यकता होती है। नारी धरती पर ईश्वर का रूप है। क्योंकि नई सृष्टि की शुरुआत नारी के बिना असंभव है।

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