संत फाउस्टीना

आधुनिक युग में "ईश्वर की दया की प्रेरिता" के रूप में संत फाउस्टीना का नाम सम्पूर्ण कलीसिया में मशहूर है। फाउस्टीना का जन्म पोलैंड के लोज़ नगर के निकट ग्लेगोवाइस नामक छोटे से ग्राम में 25 अगस्त 1905 में हुआ। बपतिस्मा में उसको हेलेना नाम दिया गया। उसके माता-पिता निर्धन कृषक होते हुए भी अत्यंत धार्मिक थे। उन्होंने नन्ही हेलेना के हृदय में शैशवावस्था से ही ईश्वर में सुदृढ़ विश्वास एवं प्रेम के बीज बोये थे। अतः बचपन से ही उसमे प्रार्थना, प्रेम, आज्ञाकारिता एवं काम में लग्न आदि गुण झलकते थे। साथ ही उसमे गरीबों व दीन-दुखियों के प्रति बड़ी सहानुभूति एवं सेवा भावना भी थी। 9 वर्ष की अवस्था में उसने प्रथम परम प्रसाद ग्रहण किया; और तब से उसे अपनी आत्मा में प्रभु की उपस्थिति का अनुभव होता था। केवल तीन वर्ष तक ही उसे विद्यालय की शिक्षा प्राप्त हो सकीय थी। तत्पश्चात वह घर में और खेत में अपने माता-पिता के कार्य में सहायता करती थी। 15 वर्ष की अवस्था में वह घर से बाहर जा कर परिवार के लिए काम करने लगी।
जब हेलेना 20 वर्ष की हुई, तब उसे धार्मिक जीवन के लिए ईश्वर के आह्वान का अनुभव हुआ। उसे "दुःख सहते हुए येसु" के दर्शन हुए और वह समझ गयी कि प्रभु उसे धारणसमाजी जीवन के लिए बुला रहे है। अतः अगस्त 1925 में उसने वारसो में "दया की माता मरियम किन धर्मबहनें" नामक संस्था में प्रवेश लिया। ये धर्म बहनें निराश्रित  एवं दुःखी बालिकाओं तथा महिलाओं की सेवा सहायता एवं प्रशिक्षण के लिए कार्य करती थी। एक वर्ष बाद अप्रैल 1926 में उसने धार्मिक व्रत धारण किया और अपना नाम बदलकर "पवित्र यूखरिस्त की मरिया फाउस्टीना" नाम लिया।
उसने इस धर्मसंघ में 13 वर्षों तक जीवन बिताया और तीन पृथक मठों में रही जहाँ उसने रसोई में, बगीचे में तथा द्वारपालिन के रूप में कार्य किया। वह अपने हर कार्य को बड़े उत्साह से संपन्न करती और धर्मसंघ के सभी नियमों का पालन बड़ी निष्ठापूर्वक करती थी। सदा शांत एवं एकाग्र मन रहते हुए भी वह सभी को प्यार करती थी। और सबके प्रति बड़ी दयालु थी। उनका जीवन बाह्य रूप से अत्यंत साधारण, अरोचक एवं नीरस दिखाई देता था; किन्तु आतंरिक रूप से वह ईश्वर के साथ निरंतर एकता में रहती थी। सन 1930 में सिस्टर फाउस्टीना को प्रभु ने ईश्वरीय दया के विषय में एक विशेष सन्देश दिया और उसने कहा कि तुम सारे संसार में इस सन्देश का प्रचार करो। प्रभु ने उससे यह भी कहा कि तुम "ईश्वर की दया की प्रेरिता" एवं उनकी सहायिका बनो और इस संसार में दूसरों के प्रति दयालु होने का नमूना तथा ईश्वर की दया की योजना को पूर्ण करने का साधन बनो। प्रभु की यह मांग फाउस्टीना के लिए कोई आकर्षक एवं आनंददायक कार्य नहीं था। बल्कि उसे येसु का अनुसरण करते हुए अपने सम्पूर्ण जीवन को बलि चढ़ाना था। अर्थात उसे पूर्णतया दूसरों के लिए जीना था। प्रभुवर येसु की मांग के अनुसार फाउस्टीना बड़ी ख़ुशी से अपने सभी व्यक्तिगत दुःख-पीड़ाओं को प्रभु के दुःखों के साथ संयुक्त करके दूसरों के पापों के प्रायश्चित के लिए अर्पित करती थी। साथ ही उसे अपने दैनिक जीवन में सबके प्रति दयालु बन कर उनके जीवन में शांति एवं आनंद लाना था; और ईश्वर की दया  के विषय में लिखकर उनको ईश्वर पर आसरा रखने के लिए प्रोत्साहित भी करना था। इस प्रकार प्रभु के दूसरे आगमन के लिए संसार को तैयार करना था। पवित्र यूखरिस्त एवं निष्कलंक माँ मरियम के प्रति उनकी विशेष भक्ति थी। इससे तथा मेल-मिलाप के संस्कार द्वारा उसे शक्ति मिलती थी कि वह अपने सभी कष्टों को कठोर पापियों तथा मरण-संकट में पड़े हुए लोगों को सहायता के लिए कलीसिया की ओर से प्रभु के भेंट-स्वरुप अर्पित करें। फाउस्टीना ने गुप्त रूप से सब कुछ सहा और ईश्वर की असीम दया के विषय में लिखा। इन सबके बारे में केवल उसकी मठाध्यक्षा एवं आध्यात्मिक संचालक ही जानते थे कि उसके जीवन में कुछ विशेष बातें हो रही है।
22 फरवरी 1931 को येसु ने ईश्वरीय दया के राजा के रूप में फाउस्टीना को दर्शन दिए जिसमें वे एक श्वेत चोगा पहने हुए दिखाई दिये। उनका दाहिना हाथ आशीर्वाद देते हुए ऊपर उठा हुआ था और बायाँ हाथ वक्ष पर उनके वस्त्र का स्पर्श कर रहा था। उनके हृदय के स्थान से दो तीव्र किरणें निकल रही थी- एक लाल थी, दूसरी श्वेत। येसु ने फाउस्टीना को बताया कि श्वेत किरण उस जल का प्रतिक है जिसके द्वारा आत्माएं शुद्ध की जाती है. और लाल किरण आत्माओं के नवजीवन का प्रतिक है। ये दो किरणे मेरे अति करुणामय ह्रदय से उस समय फूट पड़ी जब एक सिपाही ने क्रूस पर भाले से मेरे हृदय को छेदा था। येसु ने फाउस्टीना से यह भी कहा कि इस दर्शन के अनुसार मेरा एक चित्र बनवाओ और उसके नीचे लिखो- "हे येसु, मैं आप में आसरा रखता हूँ।"मैं चाहता हूँ कि तुम अपने मठ के चैपल में इस चित्र को रख कर उसका सम्मान करो; और तब सारे संसार में सभी लोगों को इसका सम्मान करना सिखाओ। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जो व्यक्ति इस तस्वीर का सम्मान करते हैं,उनका कभी विनाश नहीं होगा। मैं यह भी वचन देता हूँ, कि ऐसी आत्माएं इस पृथ्वी पर अपने शत्रु शैतान पर सदैव विजय पाएगी; विशेषकर उनकी मृत्यु की घड़ी में। मैं स्वयं ही हर खतरे से उन्हें बचाऊंगा। येसु ने अनेकों बार फाउस्टीना को दर्शन दिए और पापियों को उनकी दया पर आसरा रखते हुए उनके पास लौट आने के अपने आश्वासन को दोहराया। प्रभु ने फाउस्टीना को ईश्वरीय दया की माला विनती पढ़ना सिखाया जिसके द्वारा पापियों को मन-परिवर्तन की कृपा मिल सके।

यद्यपि फाउस्टीना का स्वास्थ्य प्रारम्भ से काफी कमजोर था, किन्तु सन 1936 में वह अत्यंत गंभीर रूप से रोग-ग्रस्त हो गयी। जाँच से पता लगा कि उसे क्षय रोग हो गया है। उन दिनों इस बिमारी का कोई सफल इलाज़ नहीं था। चूँकि यह संक्रामक रोग था इसलिए उन्हें मठ से दूर एक स्वास्थ्य-वर्द्धक निवास में रखा गया। वहाँ उन्होंने प्रभु की इच्छा को सहर्ष स्वीकार किया और ईश्वरीय दया की माला विनती पढ़ते हुए अधिकतर समय पापियों के मन परिवर्तन के लिए प्रार्थना करने में बिताया। जब उसके स्वास्थ्य में कुछ सुधर हुआ, तब वह अपने मठ की बीमार बहनों की सेवा करती और स्वास्थ्य केंद्र में जा कर वहाँ के रोगियों से मुलाकात करती थी। दो वर्ष समाप्त होते-होते उनका स्वास्थ्य अत्यंत दुर्बल हो गया और सन 1938 में इसी रोग से फाउस्टीना का देहांत हो गया। तत्पश्चात उनके निकट संगी-साथी भी आश्चर्य चकित रह गए, जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी इस विनीत बहन ने कितना भारी दुःख सहा था और कितना गहरा ईश्वरीय अनुभव उसे प्राप्त हुआ था; जिस पर भी वह सदैव कितनी प्रसन्न एवं विनम्र रहती थी; कि अपने प्रभु के इस सुसमाचारी आदेश को उसने अपने हृदय की गहराई तक अपना लिया था- "दयालु बनो, जैसे तुम्हारा स्वर्गीय पिता दयालु है।" साथ ही साथ अपने आध्यात्मिक संचालक का यह निर्देश भी कि जो कोई आपके संपर्क में आये, वे सब खुश हो कर लौटें- उन्होंने पूर्ण रूप से अपने जीवन में इसे साकार किया था। 
ईश्वर की दयालुता का यह महान सन्देश जिसे प्रभु ने फाउस्टीना को दिया, उसे संत पिता जॉन पॉल द्वितीय ने, जो उन दिनों क्राकोव (पोलैंड) के महा धर्माध्यक्ष थे, स्वीकृति दी और ईश्वरीय दया की भक्ति को प्रोत्साहन दे कर आगे बढ़ाया। उन्ही संत पिता ने सिस्टर फाउस्टीना को सन 1993 में कलीसिया में धन्य घोषित किया और 30 अप्रैल 2000 को उसे संत की उपाधि से विभूषित किया।
माता कलीसिया 05 अक्टूबर को संत फाउस्टीना का पर्व मनाती है।

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