1818 में उन्हें आर्स नामक कुख्यात गाँव में पुरोहित के रूप में भेजा गया। आरम्भ में ही उन्होंने देखा कि उनके पल्लीवासी प्रार्थना एवं मिस्सा पूजा में कोई रुचि नहीं दिखा रहे है। अतः वे नियमित रूप से अपनी पल्ली के हर विश्वासी से मिलने, उनकी समस्याएं सुनने और उन्हें परामर्श देने लगें। फादर जौन ने अपनी मेहनत एवं अथक परिश्रम से उस कुख्यात गाँव को एक आदर्श गाँव बना दिया। जिससे उसकी पवित्रता और उसकी अलौकिक शक्तियों की खबरें जल्द ही दूर-दूर तक फैल गईं। और कुछ ही दिनों में लोगों ने जान लिया कि उनके बीच एक संत पुरोहित पधारे है। फादर जौन की दूसरी विशेषता थी- उनका प्रवचन। उन्होंने अपने प्रवचन के द्वारा समाज में व्याप्त बुराई को जड़ से उखाड़ फेंका। उन्होंने लोगों को बुरी आदतों से मुक्त कर उनको प्रार्थनामय जीवन और भले कार्य की ओर अभिमुख कर दिया। कुछ ही वर्षो में आर्स की वह कुख्यात पल्ली अपनी धार्मिकता के लिए फ़्रांस में सुविख्यात हो गयी। रोगियों को स्वस्थ करने का वरदान भी प्रभु उन्हें प्रदान किया था।
संत जॉन मारिया विएन्नी
पुरोहितो के आदर्श एवं विशेष संरक्षक संत जौन मरिया विएन्नी का जन्म फ़्रांस में लेयोन्स नगर के निकट दारदिली नामक गाँव में सन 1786 में हुआ। वे अत्यंत धार्मिक एवं भक्त काथलिक थे। जौन अपने छः भाई-बहनों में चौथे थे। 13 वर्ष की उम्र में अपने घर में ही उन्होंने परम-प्रसाद ग्रहण किया। क्योंकि उन दिनों गिरजाघरों में युख्रीस्तीय समारोह संपन्न करने की अनुमति नहीं थी। जब जौन 18 वर्ष के हुए तब उन्हें अपने में कुछ विशेष प्रेरणा का अनुभव हुआ। तब ह्रदय में उन्हें एक स्वर सुनाई पड़ा -"जौन उठो, प्रभु के राज्य की फसल मुरझा रही है; उसकी देखभाल करो।" जौन की समझ में कुछ नहीं आया की वे क्या करें। अंत में उन्होंने अपने पल्ली पुरोहित को बातें बताई। उन्होंने जौन को पुरोहित बन कर प्रभु की सेवा करने की सलाह दी। उन्होंने महसूस किया कि वे पुरोहित बनने के लिए बुलाये गए है। लेकिन लैटिन भाषा का ज्ञान ना होने के कारण उन्हें सेमिनरी में प्रवेश नहीं दिया गया। औपचारिक शिक्षा की कमी को पूरा करने के लिए पुरोहित के परामर्श के अनुसार उनके पास रहकर धर्मशिक्षा एवं लैटिन भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। सन 1815 में उनका पवित्र पुरोहिताभिषेक हुआ और उन्हें Ecully, फ्रांस में सहायक पुरोहित के रूप में रूप में नियुक्त किया गया।
फादर जौन बड़े मिलनसार, दयालु, प्रेमी, धैर्यशील एवं अत्यंत विनम्र स्वभाव के थे। उनका कहना था कि "हमारे कोई भी कार्य जो ईश्वर को समर्पित नहीं किया जाता वह बेकार है।" फादर जौन करीब 40 वर्षो तक मानव सेवा करते रहे। और 4 अगस्त 1859 को 73 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया।
जब वे जीवित थे, तब ही बहुत से लोग उन्हें संत मानते थे। मरने के बाद सभी उन्हें संत मानने लगे। सन 1925 में संत पिता पियूष ग्यारहवे ने उनको संत घोषित किया। कलीसिया में वे पल्ली पुरोहितों के संरक्षक माने जाते है और उनका पर्व 4 अगस्त को मनाया जाता है।
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