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सन्त अलोइस गोनज़ागा
आज के भौतिकवादी युग में जब मानव विशेष कर युवक - युवतियाँ हर तरह के सांसारिक सुख-सुविधा एवं अराम की खोज में लगे हुए हैं और सांसारिक जीवन के आनन्द को ही अपना लक्ष्य मानने लगे हैं, ऐसे में युवा सन्त अलोइस गोनज़ागा का जीवन उनके सम्मुख एक चुनौती बन गयी है। अलोइस ने बचपन से ही संसार की क्षणभंगुरता को पहचाना और यह समझ गये कि जीवन में एक ही बात महत्वपूर्ण है अर्थात् ईश्वर के प्रेम को पाना। यह वह मोती है जिसे प्रभु येसु ने सबसे मूल्यवान बताया है।
अलोइस का जन्म इटली के मान्तुआ नगर में सन् 1568 में हुआ। वे फेर्डिनान्ड गोनज़ागा के ज्येष्ठ पुत्र थे। फेर्डिनान्ड इटली के राजा के सामन्त और वीर सेनापति एवं राजनितिज्ञ थे। वह अलोइस को अपना उत्तराधिकारी एवं वीर सैनिक बनाना चाहते थे। अलोइस की माता का नाम मार्था था । वह अत्यन्त धर्मपरायण और प्रार्थनाशील महिला थी। वह अपने आस - पास के दलित , असहाय एवं अभावग्रस्त लोगों की सेवा-सहायता करती थी। माँ चाहती थी कि अलोइस भी उनका अनुसरण करते हुए मानव सेवा में लगे।
आठ वर्ष की अवस्था में अलोइस अपने भाई के साथ दो वर्ष के लिए फ्लोरन्स के राज दरबार में राजकुमार के सहचर बनने के लिए भेजा गया । किन्तु वे वहाँ अपना मन नहीं लगा सके। क्योंकि वहाँ का जीवन उनके लिए भारी चुनौती था। एक ओर संसार का सुख-ऐश्वर्य, दूसरी ओर सारा दुःख-दर्द। पिता की ओर से सांसारिक सम्मान पाने का दबाव तथा माँ की ओर से पवित्र जीवन की प्रेरणा। उनका मन पहले से ही जीवन की पवित्रता की ओर आकर्षित था। अतः उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? अन्त में उन्होंने माँ मरियम के हाथों में स्वयं को सौंपते हुए यों प्रार्थना की- “हे माँ, मुझे बता दे कि मैं क्या करूं"?
इस पर उन्होंने अपने अन्तःकरण में यह आवाज सुनी कि पुरोहित बन कर सुसमाचार के प्रचार एवं दीन-दुःखियों की सेवा में लग जाओ। इससे अलोइस के मन को शांति मिली। उन्होंने निर्णय किया कि वह अपने पहलौठे का अधिकार अपने भाई को दे कर एक धर्मसंघी पुरोहित बने। किन्तु पिता ने अलोइस के इस निर्णय का घोर विरोध किया। इस पर पिता की सहमति प्राप्त करने में उन्हें करीब तीन वर्ष लगे। अन्त में जब वे सत्रह वर्ष के हुए उनके पिता ने उन्हें अनुमति प्रदान की। उन्होंने येसु - समाजी पुरोहित बनने का निर्णय लिया। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे रोम गये और येसु - समाजी नवशिष्यालय में प्रवेश लिया। अलोइस अपनी माँ की शिक्षा के अनुसार पहले ही अपने प्रार्थना जीवन में आगे बढ़ चुके थे और प्रभु येसु के साथ निरन्तर एकता का जीवन बिताते थे। उन्हें यह विशेष कृपा मिली थी कि वे प्रतिदिन एक घण्टा ध्यान - प्रार्थना में बितायें और इस प्रकार प्रभु के साथ निरन्तर एकता बनाये रखें। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि अपने अधिकारियों के प्रति सदैव आज्ञाकारी रहते हुए उन्होंने ईश्वर की इच्छा के साथ निरन्तर एकता बनाये रखा। फलस्वरूप उन्हें अपनी आत्मा में स्वर्गीय शांति का अनुभव होता था जो उनके जीवन में प्रकट होता था।
गुरूकूल में अपने भक्तिमय जीवन और उत्तम आचरण से उन्होंने सबका मन मोह लिया। दो वर्षों के धार्मिक प्रशिक्षण के पश्चात् तीन व्रतों के द्वारा उन्होंने स्वयं को ईश्वर की सेवा में समर्पित किया। बाद में उन्होंने दर्शन-शास्त्र एवं ईश-शास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ किया। किन्तु उनका अध्ययन पूर्ण होने के पूर्व ही रोम तथा आस-पास के क्षेत्रों में भयंकर महामारी फैल गयी। हजारों लोग उसके शिकार हो रहे थे। अलोइस ने अपने आचार्य से अनुमति प्राप्त की कि बाहर जाकर रोगियों की सेवा करें। उन्हें बचपन में अपनी माँ के साथ दीन-दुःखियों की सेवा करने का अवसर मिला था। अतः उन्हें इस कार्य में बड़ी रुचि थी। वे स्वयं को भूलकर दिन - रात बीमारों की सेवा पूर्ण तत्परता से करने लगे। परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों बाद वे स्वयं इस बीमारी की चपेट में आ गये। अतः उसे दूसरों से अलग किसी कमरे में रखा गया जहाँ दूसरे लोग इस डर से नहीं आते थे कि कहीं रोग के कीटाणु उनके शरीर में भी प्रवेश न कर जाएँ। वे अपने कठिन दुःखों के बीच भी क्रूसित प्रभु के दुःखों पर मनन करते हुए प्रार्थना करते रहते थे। सन्त रोबर्ट बेल्लार्मिन ने जो उनके आचार्य थे , निरन्तर उनके साथ रहते हुए प्रेम से अलोइस की सेवा की। किन्तु 21 जून सन् 1591 को प्रभु ने अपने इस प्रिय सेवक को अपने पास बुला लिया। उस समय वे मात्र 23 वर्ष के थे और छः वर्षों से येसु समाज के सदस्य थे। सन् 1726 में उन्हें सन्त घोषित किया गया। कलीसिया ने उन्हें युवाओं का संरक्षक ठहराया है। उनका पर्व 21 जून को मनाया जाता है।
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