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संत लूकस
सुसमाचार लेखक संत लूकस ने ईश्वर के गहरे पितृ-तुल्य एवं करुणामय प्रेम का सुंदर वर्णन किया है । उनका जन्म सीरिया प्रांत की राजधानी अंताखिया में हुआ । वे गेर यहूदी थे और उनकी मातृ-भाषा यूनानी थी । वे अत्यंत प्रखर-बुद्धि थे और अध्यन मे बहुत ही तत्पर थे । साहित्य, इतिहास एवं चिकित्सा-विज्ञान मे उनकी विशेष रुचि थी । साथ ही चित्रकारी एवं लेखन-कला में भी उनकी दिलचस्पी थी । अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चतत उन्होने चिकित्सा-विज्ञान मे विशेष अध्यन किया और कुशल चिकित्सक बन गये । वे गंभीर रोगो की भी इलाज बड़ी सफलता पूर्वक करते थे । इस कारण संत पौलूस ने अपनी द्वितीय मिशनरी यात्रा के दौरान स्वयं के इलाज के लिए लूकस से परामर्श लिया । इस पर दोनों एक दूसरे से इतना प्रभावित हुए कि तब से वे घनिष्ठ मित्र बन गये ।
पौलूस लोगों कि प्रभु येसु के पुनरुत्थान का साक्ष्य देते हुए सुसमाचार की शिक्षा देते थे । उनके साक्ष्य इतने प्रभावशाली होते थे कि लूकस ने प्रभु येसु मे पूर्ण ह्रदय से विश्वास किया और उनके परम भक्त अनुयायी बन गये । पौलूस जब थेसलनीका, एथेन्स और कुरिन्थ मे सुसमाचार-प्रचार कर रहे थे और एफेसूस में तीन वर्ष रहे थे, तब लूकस ने फिलिपि में जाकर लोगों को शिक्षा दी । बादमे वे पौलूस के साथ येरूसालेम आये । लुकस लेखक होने के कारण प्रभु येसु की जीवनी लिखना चाहते थे । इसके लिए उन्हे सही जानकारी प्रपट करनी थी । अतः उन्हे अनेक ऐसे लोगों से मिलना था जो प्रभु के साथ रह चुके थे और उनके कार्यो को देखा था; अथवा जिनहोने येसु के कार्यो के विषय में सुना था । इस उद्देश्य से वह येरूसालेम मे एक मकान किराए पर लेकर वहीं रहने लगे । चिकित्सक के रूप में उनका नाम पहले से वहाँ प्रसीद्ध था । अतः लोग भीड़ की भीड़ उनके पास आने लगे । इलाज के बीच अवसर पाकर वे प्रभु के प्रेरितों तथा शिष्यों से भी मिलते रहे । सौभाग्य से उन्हें वहीं पर संत योहन और मता मरियम भी मिल गये जो किसी समय एफेसूस से येरूसालेम आये थे । मरियम से उन्हें येसु की बचपन की सारी बातें विस्तारपूर्वक सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ । इसके अतिरिक्त वह अनेक स्त्रियॉं से भी मिले जो प्रभु येसु की शिष्यएँ थीं और उनके साथ कार्य किए थे । साथ ही वे पौलूस से भी मिलते रहते थे जो उन दिनों कैसरिया के कारावास में थे । संभवतः उन्हीं दिनों लुकस ने अपने सुसमाचार की रचना की जो ‘प्रेम का सुसमाचार’ अथवा ‘प्रार्थना का सुसमाचार’ कहलाता है । क्योंकि उसमें विभिन्न द्रष्टान्तों द्वारा मानव जाति के प्रति पिता ईश्वर के करुणामय प्रेम और दयालुता का अत्यंत ह्रदयहारी रूप प्रस्तुत किया गया है । उदाहरणार्थ – खोया हुआ लड़का, खोई हुई भेड़ एवं भले समारी के दृष्टांत तथा जीतने भी कोढ़ी, अंधे, लंगड़े आदि की प्रार्थना पर प्रभु की करुणामय चंगाई ।
स्त्रियॉं के प्रति प्रभु का सम्मान और पापियों के प्रति उनकी दया और शमा पर लूकस ने विशेष प्रकाश डाला है । उन्होने इस बात पर ज़ोर दिया है कि ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता । वह अपनी दया और प्रेम केवल यहूदियों पर ही नहीं, किन्तु उन सभी लोगों पर बिना किसी शर्त के बरसता है जो उसके पुत्र प्रभु येसु में विश्वास करते हैं । चूंकि लूकस उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे, उन्होने प्रवाहमय भाषा एवं आकर्षक शैली में अपनी रचना की । उन्होने ही प्रेरित-चरित की रचना की जो नए विधान का सबसे सुंदर पुस्तक है जिसमें उन्होने बड़ी सरल शैली में प्रभु का स्वर्गारोहण, कलीसीया का प्रारम्भ एवं क्रमिक विकासका मार्मिक चित्रण किया है ।
रोम में संत पौलूस के दो वर्षों के कारावास में लूकस उनके साथ थे । पौलूस उन्हें अपना वैद्य-मित्र कह कर पुकारते थे । पौलूस की तीसरी मिशनरी यात्रा में लूकस भी उनके साथ हो लिये थे जिसकी पुष्टि पौलूस की शहादत के कुछ वर्षों पश्चात अखैया में लूकस ने शहीद बन कर प्रभु के लिये अपने प्राण अर्पित किये ।
लूकस बहुत अच्छे चित्रकार भी थे । उन्होने मटा मरियम के कई सुंदर चित्र बनाये थे जिनमें से कुछ संत थॉमस अपने साथ लाये थे । उन्हें केरल के किन्हीं तीर्थ स्थानों के गिरजाघरों में अब भी देखा जा सकता है ।
कालीसिया में 18 अक्टूबर को संत लूकस का पर्व मनाया जाता है ।
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