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संत जेरार्द माजेल्ला
संत जेरार्द माजेल्ला जो धर्मसंघी थे विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं के मध्यमस्थ माने जाते हैं। उनका जन्म दक्षिण इटली में मूरो नामक गाँव में अप्रैल १७२६ को हुआ। उनके पिता का नाम दोमिनिको माजेल्ला और माता का नाम बेनेदेता गलेला था। वे दोनों बहुत ही उत्तम काथलिक विश्वासी थे। दोमिनिको पेशे से दर्जी थे किन्तु अत्यंत गरीब थे। परिवार में दो पुत्रियों के बाद पुत्र का जन्म हुआ था। बालक को बपतिस्मा में जेरार्द नाम दिया गया। उनकी माँ की यही तीव्र कामना एवं प्रार्थना थी कि उनका प्यारा पुत्र प्रारम्भ से ही ईश-प्रेम में पले और बढ़े। फलस्वरूप नन्हा जेरार्द बाल्यावस्था से ही अपने माता-पिता की तरह ईश्वर में गहरे विश्वास और प्रेम रखते थे और प्रतिदिन उनका अनुकरण करते हुए उनके साथ भक्तिपूर्वक प्रार्थना करते थे। माँ मरियम तथा बालक येसु के प्रति उनकी भक्ति असाधारण थी।
उनके घर से कुछ ही दूरी पर माँ मरियम के नाम से एक छोटा था प्रार्थनालय था जिसमें मरियम की सुन्दर प्रतिमा प्रतिष्ठित थी जो अपनी बाँहों में बालक येसु को लिए हुए थी। जेरार्द छः वर्ष की उम्र से ही प्रतिदिन सायंकाल उस प्रार्थनालय में जाने और वहाँ माँ मरियम के सम्मुख घुटने टेक कर प्रार्थना में लीन हो जाते और उनके चेहरे पर बड़ी ख़ुशी छायी रहती थी। वे अपने माता पिता के साथ बड़ी भक्ति से माला विनती करते थे।
जेरार्द को बाल्यावस्था से ही अपने गाँव के स्कूल में भेजा गया। वहाँ उन्होंने शीघ्र पढ़ने लिखने और गणित में बड़ी उन्नति की। धर्मशिक्षा में उनको सर्वाधिक रूचि थी। कक्षा में वे सदैव अपने पाठ पर बहुत ध्यान देते और हर बात को बड़ी शीघ्रता से स्मरण कर लेते थे। वे सदा आज्ञाकारी एवं प्रसन्न रहते और सुस्त व शरारती साथियों से दूर रहते थे। इससे उनके शिक्षक जेरार्द से बहुत ख़ुश रहते और उनको 'मेरा आनंद' कहकर पुकारते थे।
दस वर्ष की उम्र में जेरार्द ने बड़ी भक्ति से प्रथम परम प्रसाद ग्रहण किया और अपने नन्हें ह्रदय में प्रभु येसु का स्वागत किया। प्रेम स्वरूप येसु को अपने ह्रदय में पाकर जेरार्द की ख़ुशी की कोई सीमा न रहीं। उन्होंने उस दिन प्रभु से प्रतिज्ञा की कि अब से जब कभी संभव हो अपने साथियों के साथ गिरजाघर में जा कर परम प्रसाद की आराधना करूँगा; और येसु के प्यार से छोटे-से-छोटे पाप से भी दूर रहूँगा। परम प्रसाद के सम्मुख प्रार्थना में लीन जेरार्द के चेहरे पर दिव्य प्रेम की झलक प्रकट होती थी। उनकी तीव्र भक्ति देख कर उनके पल्ली पुरोहित ने उन्हें प्रतिदिन परम प्रसाद ग्रहण करने की अनुमति दी। क्योंकि उन दिनों साधारणतः प्रतिदिन परम प्रसाद ग्रहण करने की प्रथा नहीं थी।
जब जेरार्द करीब बारह वर्ष के हुए तब अचानक उनके पिता का देहांत हो गया इससे उनको अत्यंत दुःख हुआ। किन्तु उन्होंने स्वयं और माँ मरियम के संरक्षण में पूर्ण रूप से सौंप दिया। परिवार की जीविका के लिए माँ ने जेरार्द को अपने भाई के यहाँ भेज दिया ताकि वह अपने मामा के साथ रह कर वस्त्रों की सिलाई का काम सिख सके और आगे उस कार्य को सफलतापूर्वक कर सके। किन्तु वहाँ एक दुश्चरित्र व्यक्ति ने जेरार्द को पाप में फँसाने की चेष्टा की। जेरार्द उसकी चल को समझ गए और पाप के चंगुल से बच गए। जब उनके मामा को इस बात का पता चला तो उन्होंने उस दुष्ट को काम से हटा दिया। तब जेरार्द माँ के पास लौट आये।
जेरार्ड क्रूसित येसु के समान बनना चाहते थे और हर तरह के कष्टों को येसु के प्रेम से धैर्यपूर्वक सहना चाहते थे। अतः उन्होंने कुछ समय बाद कापुचिन धर्मसंघ में प्रवेश पाने का प्रयास किया। किन्तु उनके कमजोर स्वस्थ के कारण उन्हें अनुमति प्राप्त नहीं हुई। लेकिन जेरार्द निराश नही हुए। किसी धर्मसंघ में प्रवेश के लिए ईश्वर से निर्धारित समय की प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने लासिदोनिया के धर्माध्यक्ष के आवास नै घरेलु कम करने की नोकरी कर ली। वहाँ कार्य करते हुए जेरार्द ने हर कठिन कार्य को भी उत्तम ढंग से किया। कठोर परिश्रम, डांट और अन्याय को भी बिना किसी शिकायत के धैर्य एवं प्रसन्नतापूर्वक सहन किया। इस प्रकार वे दूसरों के सम्मुख आज्ञाकारिता, विनम्रता एवं सभी ख्रीस्तीय सद्गुणों का नमूना बन गये। साथ ही उनकी भक्ति पूर्वक प्रार्थना एवं परम प्रसाद की आराधना से भी सभी लोग अत्यंत प्रभावित हुए। वे हर कार्य को बड़ी सावधानी से करते थे; फिर भी एक दिन धर्माध्यक्ष जी के कमरे की चाभी जेरार्द के हाथ से छूटकर कुँए में गिर गयी। इस पर सरल ह्रदय जेरार्द बहुत चिन्तित हो गये कि किस प्रकार चाभी को कुए में से निकला जाए। अत्यंत दुखी होकर वे प्रार्थना करने लगे। जब अचानक उन्हें एक विचित्र उपाय सुझा। वे दोड़ते हुए गये, बालक येसु की एक छोटी सी प्रतिमा लाये, पूर्ण भरोसे के साथ उन्होंने उस प्रतिमा को रस्सी के सहारे कुँए में उतारा यह कहते हुए कि मेरे नन्हे प्रभु आप कृपया उस चाभी को निकाल लाइये ताकि धर्माध्यक्ष जी को परेशानी न हो। कई लोग पास में खड़े हुए बड़ी उत्सुकता के साथ देख रहे थे। उनके सामने जेरार्द के बालक येसु को ऊपर खींच लिया। उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब उन्होंने देखा कि नन्हें येसु अपने हाथ में चाभि पकड़े हुए थे। जब धर्माध्यक्ष जी को उस अद्भूत घटना का समाचार मिला तो उन्हें भी बेहद ख़ुशी हुई और जेरार्द के शिशु-तुल्य भक्ति के लिए उनकी सराहना की।
तीन वर्षों बाद धर्माध्यक्ष जी का देहांत हो गया। इस पर जेरार्द ने मुक्तिदाता के धर्मसंघ (Redemptorist) में एक धर्मबंधु के रूप में प्रवेश पाने के लिए आग्रहपूर्वक प्रार्थना की। उन्हें नव शिश्यालय में प्रवेश दिया गया। वहाँ उनका जीवन विनम्रता, आज्ञाकारिता एवं शुद्धता का सजीव नमूना था। एक वर्ष बाद उन्होंने धर्मसंघ की प्रथा के अनुसार ब्रहचर्य, निर्धनता और आज्ञाकारिता के व्रत धारण किये। साथ ही साथ उन्होंने अपनी और से एक महत्वपूर्ण प्रतिज्ञा भी जोड़ दी, अर्थात् हर एक कार्य जो हम ईश्वर के प्यार के लिए करते हैं वह प्रार्थना बन जाता है। जेरार्द के प्रार्थनामय, प्रेमपूर्ण, सेवा-निरत और तप्स्यापूर्ण जीवन से सभी लोग अत्यंत प्रभावित हुए। ईश्वर ने उन्हें अनेक विशेष आध्यात्मिक वरदान भी प्रदान किये थे जैसे-प्रार्थना के समय धरती से ऊपर उठ जाना, भाव-समाधी, एक ही समय दो स्थानों पर उपस्थित रहना, भविश्यवाणी करना, प्रकृति एवं शैतान की शक्तियों पर अधिकार इत्यादि। यह सब होते हुए भी अपने अधिकारियों के प्रति जेरार्द की आज्ञाकारिता इतनी तत्पर्तापूर्ण थी कि वे आज्ञाओं को ही नहीं बल्कि उनकी इच्छाओं को भी दूर से ही जान कर उनका पालन करते थे। जब वे पुरोहितों के साथ सुसमाचार प्रचार के मिशन पर जाते थे तब पुरोहितों के प्रवचनों से बढकर उनकी सरगर्म प्रार्थनाओं तथा प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण व्यव्हार से अनेकों पापी मन परिवर्तन कर ईश्वर की और लौट आते थे। इस प्रकार निरंतर कठिन परिश्रम एवं तप्पस्याओं तथा अल्प भोजन के कारण उन्हें क्षय रोग हो गया और मात्र २९ वर्ष की अवस्था में १६ अक्टूबर १७५५ को उनका देहांत हो गया। शीघ्र ही उनकी पवित्रता की सुगंध चारों और फ़ैल गयी और उनकी कब्र पर आके प्रार्थना करने से अनेकों लोगों को रोगों से चंगाई तथा अन्य वरदान भी प्राप्त हुए। एक स्त्री जो असह्यय प्रसव-पीड़ा से कराह रही थी, संत की मध्यस्थता से अपने कष्ट से मुक्त हो गयी। उसने एक स्वस्थ शिशु को जन्म दिया। इस चमत्कार के कारण संत जेरार्द को गर्भवती माताओं का विशेष मध्यस्थ मन जाता है।
सन १८९३ में संत पिता लियो १३वें ने उन्हें धन्य घोषित किया और सन १९०४ में संत पिता पियुस दसवें ने उन्हें कलीसिया में संत की उपाधि से विभूषित किया। ३० अक्तूबर को उनका पर्व मनाया जाता है।
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