भाईचारा का दिव्य संदेश

गांधी जी के विचार आपस में जोड़ने वाली शक्ति है प्रेम। प्रेम का बल वही है जो आत्मा अथवा सत्य का बल है। हमें पग- पग पर उसकी कार्यशीलता का प्रमाण मिलता है। वह बल न हो तो विश्व का लोप हो जाएगा। इसी बल की बदौलत लाखों परिवारों के दैनिक जीवन में उठने वाले छोटे - मोटे झगड़े निपट जाते हैं। दो भाइयों में लड़ाई होती है, उन्में से एक पश्चाताप करता है और अपने अंदर सुप्त प्रेम को फिर जगाता है तो दोनों भाई फिर से शांतिपूर्वक रहने लगते हैं; किसी का ध्यान इस घटना की और नहीं जाता। लेकिन अगर, ये दोनों भाई वकीलों के हस्तक्षेप अथवा किसी अन्य कारण से हथियार उठा लें या कोर्ट में चले जाएँ तो उनके कारनामों की चर्चा तुरंत समाचार- पत्रों में होने लगेगी, पड़ोसियों का ध्यान भी उस घटना की ओर चला जाएगा और हो सकता है उनका यह झगड़ा इतिहास का विषय बन जाए। मेरा मानना है कि मानव जाति की ऊर्जा का कुल योग हमारे अपकर्ष के लिए नहीं अपितु हमारे उत्कर्ष के लिए है और यह प्रेम के नियम के अचेतन किंतु निश्चित प्रवर्तन का ही परिणाम है। मात्र यह तथ्य कि मानव जाति का अस्तित्व बरकरार है, इस बात का प्रमाण है कि संसक्तिशील बल विच्छेदक बल से अधिक शक्तिशाली है; अभिकेंद्री बल अपकेंद्री बल से बढ़कर है।

हज़ारों सालों से इस दुनिया पर बर्बर बल का राज रहा है और मानव जाति उसके अत्यंत कटु परिणाम भोगती रही है- यह हर अध्येता जान सकता है। भविष्य में भी उस बर्बर बल का कोई शुभ परिणाम आने की संभावना नहीं है। यदि घोर अंधकार के भीतर से कभी प्रकाश का जन्म संभव हो, केवल तभी घृणा में से प्रेम का उदय संभव है। यदि प्रेम अथवा अहिंसा हमारे अस्तित्व का नियम नहीं है तो हम बारंबार लड़े जाने वाले युद्धों के शिकार होने से बच नहीं सकेंगे और प्रत्येक नया युद्ध भीषणता के मामले में अपने पूर्ववर्ती से बढ़कर होगा परंतु जब सभी लोग इस नियम का पालन करने लगेंगे तो पृथ्वी पर ईश्वर का उसी प्रकार राज्य हो जाएगा जिस प्रकार अभी स्वर्ग पर है। यहाँ यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि पृथ्वी और स्वर्ग, दोनों हमारे भीतर ही हैं। हम पृथ्वी को तो जानते हैं, पर अपने भीतर के स्वर्ग से अनजान हैं। अगर यह मान लिया जाए कि कुछ लोगों के लिए प्रेम का व्यवहार करना संभव है तो यह मान लेना अंहकारपूर्ण होगा कि शेष लोगों द्वारा इसका आचरण किए जाने की कोई संभावना ही नहीं है। बहुत ज्यादा वक़्त नहीं गुज़रा कि हमारे पूर्वज नरभक्षी थे और वे ऐसे बहुत से काम करते थे जिन्हें आज हम घृणा की दृष्टि से देखते हैं।

व्यवहार का सबसे सुरक्षित नियम यह है कि जब हम सेवा करना चाहें तो बंधुता स्थापित करें और जब कोई अधिकार मांगना चाहे तो बंधुता पर जोर न दें। मैं इसे व्यवहार का स्वर्णिम नियम कहकर पुकारता हूँ और मैंने जीवन के इस नियम को भारत के अंताँतीय संबंधों पर भी लागू किया है। मानव मामलों में मधुर संबंध बनाए रखने का कोई और तरीका मुझे नहीं आता और वर्षों के लम्बे अनुभव से मेरी यह धारणा और भी पुष्ट हुई है कि जहाँ - जहाँ यह स्वर्णिम नियम भंग हुआ है, वहाँ- वहाँ कलह, झगड़े और सर- फुटव्वल तक की नौबत आ गई है। मैं प्रेम के सार्वभौम नियम में विश्वास करता हूँ, जो किसी तरह के भेदभावों को नहीं मानता। मैंने रिश्तेदारों और अजनबियों, देशवासियों और विदेशियों, श्वेतों और अश्वेतों, हिंदुओं और मुसलमानों, पारसियों, ईसाइयों या यहूदियों आदि अन्य धर्मावलंबी भारतीयों के बीच कभी कोई मतभेद नहीं किया है। मैं कह सकता हूँ कि मेरा हृदय इस तरह के भेदों को मानने में असमर्थ रहा है। मैं यह दावा नहीं करता कि यह मेरा विशेष गुण है, क्योंकि उसे मैंने प्रयासपूर्वक विकसित नहीं किया है बल्कि यह मेरा स्वभाव ही है। इसके विपरीत, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अन्य मूलभूत गुणों का विकास करने के लिए मुझे निरंतर संघर्ष करना पड़ा है।

हमें अपने प्रेम की परिधि का विस्तार तब तक करते जाना चाहिए जब तक उसमें पूरा गाँव न समा जाए; इसी प्रकार गाँव को शहर, शहर को प्रांत, प्रांत को देश और देश को समूची दुनिया को अपने प्रेम के राय में समेट लेना चाहिए। हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब मूल्य बड़ी तेज़ी से बदल रहे हैं। हमें धीमे परिणामों से संतोष नहीं हो रहा। हमें केवल अपनी ही जाति के लोगों या अपने ही देश के कल्याण से संतोष नहीं हो रहा। हम समूची मानवता के लिए सोचते हैं या सोचना चाहते हैं। ये बातें मानवता की अपने लक्ष्य की खोज के लिए बड़ी लाभकारी हैं। मेरा आपसे आग्रह है कि अपने हृदयों को समुद्र के समान विशाल बनाइए। दूसरों के निर्णायक बनने की चेष्टा मत कीजिए, वरना आपको भी उसी तुला पर तोला जाएगा। ऊपर सबका निर्णायक बैठा है जो आपको फाँसी लगा सकता है । पर उसने कृपापूर्वक आपको जीवित छोड़ रखा है। आपके अंदर और बाहर इतने शत्रु हैं, पर ईश्वर उनसे आपकी रक्षा करता है और आप पर कृपादृष्टि रखता है। क्षमा आत्मा का गुण है, इसलिए यह एक सकारात्मक गुण है। यह नकारात्मक नहीं है। भगवान बुद्ध ने कहा है- "क्रोध को अ - क्रोध से जीतो।" यह अ - क्रोध क्या है ? यह एक सकारात्मक गुण है और इसका अर्थ है उदारता अथवा प्रेम का सर्वोच्च गुण। तुम्हें अपने अंदर इस सद्गुण का विकास करना चाहिए जिससे कि तुम क्रोधी व्यक्ति के पास जाकर उसके क्रोध का कारण पूछ सको और यदि तुमने उसे किसी रूप में चोट पहुंचाई है तो अपना सुधार कर सको, अन्यथा उसे उसकी त्रुटि बता सको और यह प्रतीत करा सको कि क्रोधित होना गलत है।

परस्पर विश्वास और परस्पर प्रेम कोई विश्वास और प्रेम नहीं है। सच्चा प्रेम तो यह है कि जो तुमसे घृणा करते हैं, उनसे प्रेम करो; अपने पड़ोसियों के अविश्वासी होते हुए भी उनसे प्रेम करो। मेरे पास अंग्रेज अधिकारी- वर्ग में अविश्वास करने के ठोस कारण हैं। यदि मेरा प्रेम सच्चा है तो मुझे अपने अविश्वास के बावजूद अंग्रेजों से प्रेम करना चाहिए। उस प्रेम का क्या मूल्य है जो केवल तब तक टिके जब तक मुझे अपने मित्र के प्रति विश्वास है? ऐसा तो चोर भी करते हैं। विश्वास टूटते ही वे एक - दूसरे के शत्रु बन जाते हैं। विश्वास कीजिए, मैं सैकड़ों नहीं हज़ारों बच्चों के निजी अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ कि हमारी अपेक्षा बच्चों में आत्मसम्मान की अनुभूति कहीं अधिक सूक्ष्म होती है। अगर हम में विनम्रता हो तो हम जीवन के महानतम पाठ तथाकथित अबोध बच्चों से सीख सकते हैं। उनके लिए बड़ी उम्र के विद्वानों के पास जाने की आवश्यकता नहीं है। ईसा ने इससे ऊँचे और महान सत्य की बात कोई नहीं कही कि ज्ञान की बातें भोले- भाले बच्चों के मुँह से फूटती हैं। मैं इससे पूरी तरह सहमत हूँ। मैंने अपने अनुभव में यह बात पाई है कि अगर हम विनम्रता और भोलेपन के साथ बच्चों से बात करें तो उनसे ज्ञान का पाठ पढ़ सकते हैं।

मैं आपके समक्ष उन कई अवस्थाओं का वर्णन करना नहीं चाहता जिनसे होकर मेरा यह झंझावातपूर्ण जीवन गुज़रा है, लेकिन मैं पूरी सच्चाई और विनम्रता के साथ इस तथ्य का साक्षी अवश्य हूँ कि मैंने अपने जीवन में जिस सीमा तक मनसा - वाचा- कर्मणा प्रेम का प्रतिनिधित्व किया है, उस सीमा तक मुझे अद्भुत शान्ति की प्राप्ति हुई। मेरे बहुत से मित्र मेरे जीवन में विद्यमान शांति को देखकर चकरा गए हैं। उन्हें मुझसे ईर्ष्या भी हुई है और उन्होंने मुझसे मेरी इस अमूल्य संपत्ति का कारण पूछा है। मैं उनका समाधान करने के लिए इसके अलावा और कुछ नहीं कह सका हूँ कि यदि उन्हें मेरे जीवन में शांति के दर्शन होते हैं तो उसका एकमात्र कारण यही है कि मैंने मानव अस्तित्व के सर्वोच्च नियम, "प्रेम के नियम" का पालन करने का प्रयास किया है। मेरा प्रयास है कि मेरे जीवन का हर क्षण अहिंसा अर्थात् प्रेम द्वारा निर्देशित हो। मैं मूलत : शांतिप्रेमी हूँ। मैं मन- मुटाव पैदा नहीं करना चाहता। मैं अपने विरोधियों को यह आश्वासन देता हूँ कि मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा जिसे मैं सत्य और प्रेम के विरुद्ध समझता हूँ।

किसी पर अधिकार जमाने के लिए मेरे पास प्रेम के सिवाय और कोई अस्त्र नहीं है। मेरा लक्ष्य विश्व- मैत्री है और मैं ग़लत काम का अधिकतम विरोध करते भी अधिकतम प्रेम का परिचय दे सकता हूँ। मुझे अपने लक्ष्य में इतनी अडिग आस्था है कि यदि यह सफल हो गया; जो ज़रूर होगा, इसे सफल होना ही है; तो इतिहास इसे एक ऐसे आंदोलन के रूप में दर्ज करेगा जिसका उद्देश्य दुनिया के सभी लोगों को एक सूत्र में बांधना है। जिनमें एक- दूसरे के प्रति आक्रामक भाव नहीं होगा, बल्कि वे स्वयं को एक समष्टि का अंश मानकर चलेंगे। एक दूसरे पर श्रद्धा रखकर वे ज़िन्दगी का स्वाद ले सकते है।

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