अगस्तिन ने जब अपनी को बताया कि वे पुरोहित बनना चाहते हैं तो उनकी माँ अत्यंत प्रसन्न हुई। तब वे दोनों मिलकर टगास्ते के लिए रवाना हुए। किन्तु मार्ग में ओस्तिया पहुँचने पर उसकी माँ का देहांत हो गया। माँ के अंतिम संस्कार के बाद अगस्तिन टगास्ते चले आये। वहाँ पहुँच कर अगस्तिन एक नया जीवन -प्रेरितिक निर्धनता, प्रार्थना, तपस्या अध्ययन एवं गरीबों की सेवा-सहायता जीवन बिताने लगे। तीन वर्षों बाद वहाँ के विश्वासी समुदाय के आग्रहनुसार उनका पुरोहिताभिषेक हुआ। 42 वर्ष की आयु में वे हिप्पो के धर्माध्यक्ष नियुक्त हुए। अपने 30 वर्षों धर्माध्यक्षीय कार्यकाल में उन्होंने अपने प्रभावशाली प्रवचनों तथा असंख्य लेखों द्वारा काथलिक धर्म विश्वास को सही रूप में एवं ढृढ़तापूर्वक लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए अनेक विधर्मी विरोधियों को पराजित किया।
साथ ही उन्होंने धर्म एवं जीवन के हर पहलू पर अनेकों ग्रंथो की रचना की। उनकी सभी कृतियाँ काथलिक जगत के लिए प्रकाश-स्तम्भ के सदृश्य है। वे इतने मानवीय थे कि उनसे आने वाली पीढ़ियाँ युगों तक मार्गदर्शन प्राप्त करती रहेंगी। उनकी दो पुस्तकें 'स्वीकारोक्ति' एवं 'ईश्वर का नगर' विश्व प्रसिद्ध है।
अगस्तिन ने अपने अनुयायिओं के लिए एक मठ की स्थापना की। उनके लिए उन्होंने एक नियमावली भी तैयार की जो संक्षिप्तता, विवेक एवं सद्भाव के कारण बहुत सम्मानित है। अगस्तीनियनों के अलावा अन्य अनेक धर्मसंघी भी उस नियमावली का पालन करते है। संत अगस्तिन कलीसिया के महान धर्मशास्त्रियों में एक थे।
अंत में 28 अगस्त सन 430 ईस्वी में 76 वर्ष की आयु में हिप्पों में ही संत धर्माध्यक्ष अगस्तिन का देहांत हुआ। प्रति वर्ष 28 अगस्त को उनका पर्व मनाया जाता है। वे धर्मशास्त्रियों के संरक्षक माने जाते है।

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