सन 1227 में राजा लुइस को जर्मनी के सम्राट के साथ क्रूस-युद्ध के लिए जाना पड़ा। यह बिदाई एलिज़ाबेथ के लिए अत्यंत दुखदायी थी और अपने राज्य की सीमा तक उसने अपने पति का साथ दिया। कुछ ही महीनों पश्चात् एलिज़ाबेथ को यह हृदय-विदारक समाचार प्राप्त हुआ कि आंत्र-ज्वर से उनके पति का देहांत हो गया है। उनका हृदय शोक-विह्वल हो गया। उनका सर्वस्व लूट गया था। इस पर कुछ ही दिनों बाद उनके ईर्ष्यालु देवर ने उन्हें उनके नन्हे बच्चों सहित निर्दयतापूर्वक राजमहल से निकाल दिया। दुखी एलिज़ाबेथ को आश्रय के लिए बच्चों के साथ दर-दर भटकना पड़ा। अंत में एक गरीब महिला ने जिसको एलिज़ाबेथ ने उसकी मुसीबत में मदद की थी, उन्हें अपने यहाँ आश्रय दिया। एलिज़ाबेथ ने इन सब कष्टों को क्रूसित येसु के प्यार से बड़े धैर्य एवं प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लिया। बाद में राजा लुइस के मित्र एवं बंधु जब युद्ध से लौट आये, उनके द्वारा दबाव डालने पर देवर ने एलिज़ाबेथ की साड़ी पैतृक सम्पत्ति उन्हें लौटा दी। इस पर वह अपने बच्चों की शिक्षा एवं भविष्य का प्रबंध करने के पश्चात् मारबर्ग नामक स्थान में चली गयी और वहाँ एक और अस्पताल बनवाया जिसमें वह रोगियों व कोढ़ियों की सेवा करने लगी। साथ ही सन्त फ्रांसिस के तृतीय संघ की सदस्या के रूप में अपना जीवन बिताती रही। अंत में 17 नवम्बर 1231 को मात्र चौबीस वर्ष की अवस्था में परोपकार की इस देवी का देहांत हो गया। उनकी कब्र पर लोग प्रार्थना करने लगे और अनेकों करामातें होने लगी। सन 1235 में संत पिता ग्रेगरी नवें ने एलिज़ाबेथ को सन्त घोषित किया। सन्त एलिज़ाबेथ संत फ्रांसिस के तृतीय संघ की संरक्षिका मानी जाती है। माता कलीसिया 17 नवम्बर को सन्त एलिज़ाबेथ का पर्व मनाती है।

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