हंगरी की सन्त एलिज़ाबेथ

सन्त एलिज़ाबेथ हंगरी देश के राजा एंड्रू द्वितीय की सुपुत्री थी। उनका जन्म सन 1207 ईस्वी में हुआ। नन्ही एलिज़ाबेथ को अपने धार्मिक माता-पिता से गहरा ईश्वर विश्वास, माँ मरियम की भक्ति तथा सभी ख्रीस्तीय सद्गुण विरासत में मिले थे। जब वह बालिका ही थी, उस युग की प्रथा के अनुसार उनके पिता राजा एंड्रू द्वितीय  ने उनकी मंगनी जर्मनी देश के तुरिजिया राज्य के राजकुमार लुइस के साथ कर दी थी। अतः एलिज़ाबेथ को बाल्यावस्था में ही तुरिजिया देश भेज दिया गया ताकि वे अपने भावी पति के देश के रहन-सहन, रीती-रिवाज एवं भाषा से परिचित हो सकें। वहाँ एलिज़ाबेथ तुरिजिया के राज्य-परिवार में रहने लगी।
वहीं पर उनकी शिक्षा का भी प्रबंध किया गया। यद्यपि वे अपनी सहेलियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक खेला करती थी, फिर भी उनके जीवन में ईश्वर प्रेम और प्रार्थना का बड़ा स्थान था। वे प्रतिदिन नियमित रूप से राजमहल के प्रार्थनालय में जाती और प्रभु येसु के सम्मुख सिर झुकाये प्रार्थना किया करती थी। एक दिन जब वह प्रार्थना कर रही थी, तब उनका ध्यान सहसा क्रूसित येसु की मूर्ति की और गया जिन्होंने काँटों का मुकुट पहनकर क्रूस पर दुःख भोगा था। अपने प्रभु के इस कष्ट को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा और आँखों में आँसू आ गए। इस पर उन्होंने अपने रत्न-जड़ित मुकुट और आभूषणों को उतारते हुए बोल उठी- "हे प्रभु, जब आप काँटों का मुकुट पहने हैं, तब मैं कैसे रत्नों का मुकुट पहन सकती हूँ?" उस दिन से उन्होंने सभी राजकीय आभूषणों तथा मुकुट को पहनने से इंकार कर दिया।
जब वह चौदह वर्ष की हुई, तब राजकुमार लुइस के साथ उनका विवाह हुआ। वह अपने वैवाहिक जीवन में अत्यंत सुखी थी। क्योंकि उनके प्रति उन्हें सारे हृदय से प्यार करते थे और उनके लिए सबकुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार थे। ईश्वर की कृपा से उनके तीन बालक भी हुए। वह एक आदर्श पत्नी, माँ एवं रानी थी। इस पर भी वह अपने जीवन में प्रार्थना, तपस्या एवं गरीबों व बीमारों की सेवा को प्रमुख स्थान देते हुए सिद्धता-प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करती रहती थी। प्रतिदिन वह अपने महल के द्वार पर भूखों को भोजन और नंगों को वस्त्र बाँटा करती थी। राजमहल के निकट ही उन्होंने एक अस्पताल का निर्माण करवाया जहाँ वह प्रतिदिन जाकर स्वयं रोगियों की डेक-भाल और सेवा बड़े प्रेम से करती थी। प्रभु येसु के ये शब्द उन्हें सदैव याद रहते थे- "जो कुछ भी तुमने मेरे इन छोटे-से-छोटे भाइयों के लिए किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया है।" (सन्त मत्ती 25:40)
उनके पति लुइस अपनी पत्नी के इन परोपकार के कार्यों को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते थे और उनके प्रत्येक में सहायता एवं प्रोत्साहन देते थे। किन्तु राज-परिवार के अन्य सदस्य एलिज़ाबेथ के इन भले कार्यों तथा गरीबों की सेवा से प्रसन्न नहीं थे और वे उनसे घृणा करते थे। उनके इस व्यवहार से एलिज़ाबेथ को बड़ा दुःख होता था। फिर भी वह लोगों के उस विरोधपूर्ण रवैये की परवाह किये बिना अपने पथ पर निरंतर आगे बढ़ती रही। उनके विवाह के प्रथम वर्ष में संत फ्रांसिस असीसी के धर्मबंधु गण जर्मनी में आये। उनके प्रवचन सुनने के पश्चात् एलिज़ाबेथ ने सन्त फ्रांसिस को अपना गुरु बनाया और वह जर्मनी के सन्त फ्रांसिस के तृतीय संघ की प्रथम सदस्या बन गयी। यह समाचार पा कर सन्त फ्रांसिस को बड़ी सांत्वना प्राप्त हुई और उन्होंने अपने देहांत के कुछ दिन पहले एलिज़ाबेथ को एक पत्र के साथ अपना चोगा भेज दिया।
 

सन 1227 में राजा लुइस को जर्मनी के सम्राट के साथ क्रूस-युद्ध के लिए जाना पड़ा। यह बिदाई एलिज़ाबेथ के लिए अत्यंत दुखदायी थी और अपने राज्य की सीमा तक उसने अपने पति का साथ दिया। कुछ ही महीनों पश्चात् एलिज़ाबेथ को यह हृदय-विदारक समाचार प्राप्त हुआ कि आंत्र-ज्वर से उनके पति का देहांत हो गया है। उनका हृदय शोक-विह्वल  हो गया। उनका सर्वस्व लूट गया था। इस पर कुछ ही दिनों बाद उनके ईर्ष्यालु देवर ने उन्हें उनके नन्हे बच्चों सहित निर्दयतापूर्वक राजमहल से निकाल दिया। दुखी एलिज़ाबेथ को आश्रय के लिए बच्चों के साथ दर-दर भटकना पड़ा। अंत में एक गरीब महिला ने जिसको एलिज़ाबेथ ने उसकी मुसीबत में मदद की थी, उन्हें अपने यहाँ आश्रय दिया। एलिज़ाबेथ ने इन सब कष्टों को क्रूसित येसु के प्यार से बड़े धैर्य एवं प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लिया। बाद में राजा लुइस के मित्र एवं बंधु जब युद्ध से लौट आये, उनके द्वारा दबाव डालने पर देवर ने एलिज़ाबेथ की साड़ी पैतृक सम्पत्ति उन्हें लौटा दी। इस पर वह अपने बच्चों की शिक्षा एवं भविष्य का प्रबंध करने के पश्चात् मारबर्ग नामक स्थान में चली गयी और वहाँ एक और अस्पताल बनवाया जिसमें वह रोगियों व कोढ़ियों की सेवा करने लगी। साथ ही सन्त फ्रांसिस के तृतीय संघ की सदस्या के रूप में अपना जीवन बिताती रही। अंत में 17 नवम्बर 1231 को मात्र चौबीस वर्ष की अवस्था में परोपकार की इस देवी का देहांत हो गया। उनकी कब्र पर लोग प्रार्थना करने लगे और अनेकों करामातें होने लगी। सन 1235 में संत पिता ग्रेगरी नवें ने एलिज़ाबेथ को सन्त घोषित किया। सन्त एलिज़ाबेथ संत फ्रांसिस के तृतीय संघ की संरक्षिका मानी जाती है। माता कलीसिया 17 नवम्बर को सन्त एलिज़ाबेथ का पर्व मनाती है।

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