सन्त लूसी

कुँवारी एवं शहीद सन्त लूसी का जन्म इटली देश के दक्षिण-पश्चिम में भूमध्य सागर में स्थित सिसिली नामक द्वीप के सिराकुस नगर में एक धनि एवं कुलीन परिवार में हुआ। उनके माता-पिता ख्रीस्तीय थे और बचपन से ही उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री को ख्रीस्तीय धर्म की शिक्षा प्रदान की। लूसी अत्यन्त सुन्दर बालिका थी और अपने माता-पिता की आँखों का तारा थी। किन्तु जब वह नन्ही बालिका ही थी, उसके पिता का देहान्त हो गया। इससे उसके कोमल हृदय सांसारिक खुशियों से दूर हो गया, और उसने अपना हृदय प्रभुवर ख्रीस्त के चरणों में समर्पित कर दिया और इस बात को मन में छिपाये रखा।
लूसी की माँ रक्त-स्त्राव की बिमारी से पीड़ित थी और बहुत इलाज़ करने पर भी ठीक नहीं हुई थी। अतः माँ चाहती थी कि अपनी एकलौती पुत्री का शीघ्र विवाह कर दे जिससे वह अपनी मृत्यु से पहले अपनी प्यारी पुत्री को सुयोग्य वर के हाथों में सौंप कर निश्चित हो सके। अतः उसने उसी शहर के एक कुलीन किन्यु मूर्तिपूजक नवयुवक से लूसी के विवाह की बात तय कर दी। माँ का यह निर्णय सुनकर लूसी स्तब्ध रह गयी। मन ही मन उसने प्रार्थना की "मेरे प्रभु, मेरे स्वामी, अपनी दासी की रक्षा एवं सहायता कर। उसे अपने चरणों से अलग न होने देना।"
सिसिली के उत्तर उत्तर-पूर्व में केतनिया नामक नगर है जहाँ सन्त अगाथा की समाधि है। वहाँ सैकड़ो लोग प्रार्थना करने आते और अपने विश्वास के अनुसार रोगों से चंगे होते थे। लूसी के आग्रह करने पर उसकी माँ लूसी को साथ लेकर उस सन्त की समाधि पर गयी। उनकी प्रार्थना सुनी गयी और माँ का रोग तुरंत जाता रहा। तब लूसी ने वहीं माँ को अपने दिल की बात बतायी। माँ से उसने यह इच्छा प्रकट की कि मैं अपना सारा धन गरीबों में बाँट देना चाहती हूँ। माँ ने बड़ी ख़ुशी से उसे अनुमति दे दी। लूसी बहुत हर्षित हुई। किन्तु लूसी के होने वाले पति को जब यह बात मालूम हुई, तब वह क्रोध से आग-बबूला हो गया।

उन दिनों वहाँ रोमी सम्राट डायेक्लिशन का शासन था जो ख्रीस्तीयों पर अत्याचार करता और उन्हें मरवा डालता था। लूसी के पति ने क्रोधित होकर राजयपाल को बता दिया कि लूसी ख्रीस्तीय है। राजयपाल ने तुरंत लूसी को पकड़वा कर अदालत में हाज़िर कर दिया। न्यायाधीश ने पहले तो लूसी को मजबूर किया की उस युवक के साथ विवाह कर ले। परन्तु लूसी ने साफ़ इन्कार कर दिया। क्योंकि उसने तो स्वयं को पूर्णतया प्रभु येसु के हाथों में समर्पित कर दिया था। उसे तरह-तरह के प्रलोभन दिए गए। किन्तु वह टस से मस न हुई। इस पर राजयपाल ने आदेश दिया कि लूसी को वेश्यालय में ले जाया जाए। तब लूसी ने स्वर्ग की ओर आँखें उठायी और अपने प्रभुवर से प्रार्थना की- "मेरे स्वामी, मेरे प्रभुवर मेरा कौमार्य जो मैं तुझे अर्पित कर चुकी हूँ, वह तेरी ही धरोहर है, उसकी रक्षा कर।" प्रभु येसु ने तुरंत उसकी प्रार्थना सुनी। एक नहीं अनेक सिपाही उसे खींचने पर भी वे उसे उसके स्थान से तिल-भर भी नहीं हटा सके। इस पर राजयपाल के आदेश से लूसी को प्रचण्ड जलती हुई अग्नि में डाला गया। प्रभु ने वहाँ भी उसकी रक्षा की। वह आँखें बंद किये, प्रभु का ध्यान लगाए आग में बैठी रही। वह भयंकर आग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकी। आग के बुझने पर लूसी सही सलामत उसमें से निकल आयी। कुछ लोग जिन्हे ईश्वर की शक्ति पर विश्वास हो गया, वे लूसी के चरणों पर  गिरकर बोले- "लूसी, अपने प्रभु से हमारे लिए प्रार्थना करो कि वह हमें क्षमा कर दे।" उसी दिन अनेक लोगों का मन-परिवर्तन हुआ और वे प्रभु येसु को सच्चा ईश्वर मानकर ख्रीस्तीय बन गए। किन्तु लूसी पर अत्याचार करने वालों का मन नहीं पिघला। उनमे से  लूसी के गले में अपनी तलवार भोंक दी। खून का फव्वारा फूट पड़ा। लूसी घुटनों  गिरकर बोली- "मेरे स्वामी,मुझे पक्का विश्वास था कि तू मेरे कौमार्य की रक्षा करेगा। तूने मेरी लाज रखी। अब मैं तेरे पास आ रही हूँ।" और वह लुढ़क गयी और उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। और उसकी आत्मा सीधे अपने प्रभुवर के चरणों में पहुँच गयी। लूसी की शहादत 13 दिसम्बर सन 304 में हुई थी।
सन्त लूसी सिरकुस नगर की संरक्षिका है और साथ ही कुँवारियों की रक्षक भी है। 
माता कलीसिया सन्त लूसी पर्व 13 दिसम्बर को मनाती है।

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