उन दिनों वहाँ रोमी सम्राट डायेक्लिशन का शासन था जो ख्रीस्तीयों पर अत्याचार करता और उन्हें मरवा डालता था। लूसी के पति ने क्रोधित होकर राजयपाल को बता दिया कि लूसी ख्रीस्तीय है। राजयपाल ने तुरंत लूसी को पकड़वा कर अदालत में हाज़िर कर दिया। न्यायाधीश ने पहले तो लूसी को मजबूर किया की उस युवक के साथ विवाह कर ले। परन्तु लूसी ने साफ़ इन्कार कर दिया। क्योंकि उसने तो स्वयं को पूर्णतया प्रभु येसु के हाथों में समर्पित कर दिया था। उसे तरह-तरह के प्रलोभन दिए गए। किन्तु वह टस से मस न हुई। इस पर राजयपाल ने आदेश दिया कि लूसी को वेश्यालय में ले जाया जाए। तब लूसी ने स्वर्ग की ओर आँखें उठायी और अपने प्रभुवर से प्रार्थना की- "मेरे स्वामी, मेरे प्रभुवर मेरा कौमार्य जो मैं तुझे अर्पित कर चुकी हूँ, वह तेरी ही धरोहर है, उसकी रक्षा कर।" प्रभु येसु ने तुरंत उसकी प्रार्थना सुनी। एक नहीं अनेक सिपाही उसे खींचने पर भी वे उसे उसके स्थान से तिल-भर भी नहीं हटा सके। इस पर राजयपाल के आदेश से लूसी को प्रचण्ड जलती हुई अग्नि में डाला गया। प्रभु ने वहाँ भी उसकी रक्षा की। वह आँखें बंद किये, प्रभु का ध्यान लगाए आग में बैठी रही। वह भयंकर आग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकी। आग के बुझने पर लूसी सही सलामत उसमें से निकल आयी। कुछ लोग जिन्हे ईश्वर की शक्ति पर विश्वास हो गया, वे लूसी के चरणों पर गिरकर बोले- "लूसी, अपने प्रभु से हमारे लिए प्रार्थना करो कि वह हमें क्षमा कर दे।" उसी दिन अनेक लोगों का मन-परिवर्तन हुआ और वे प्रभु येसु को सच्चा ईश्वर मानकर ख्रीस्तीय बन गए। किन्तु लूसी पर अत्याचार करने वालों का मन नहीं पिघला। उनमे से लूसी के गले में अपनी तलवार भोंक दी। खून का फव्वारा फूट पड़ा। लूसी घुटनों गिरकर बोली- "मेरे स्वामी,मुझे पक्का विश्वास था कि तू मेरे कौमार्य की रक्षा करेगा। तूने मेरी लाज रखी। अब मैं तेरे पास आ रही हूँ।" और वह लुढ़क गयी और उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। और उसकी आत्मा सीधे अपने प्रभुवर के चरणों में पहुँच गयी। लूसी की शहादत 13 दिसम्बर सन 304 में हुई थी।
सन्त लूसी सिरकुस नगर की संरक्षिका है और साथ ही कुँवारियों की रक्षक भी है।
माता कलीसिया सन्त लूसी पर्व 13 दिसम्बर को मनाती है।

Add new comment