इस बीच 15 वर्ष की अल्पायु में ही मार्टिन को धार्मिक जीवन की बुलाहट प्राप्त हुई। चूँकि वे अत्यंत विनम्र, आज्ञाकारी एवं सेवा भावना से पूर्ण थे, इसलिए उन्होंने सन्त डोमिनिक के मठ में धर्मबंधु के रूप में भर्ती होने के लिए आवेदन किया। उनको शीघ्र स्वीकृति प्राप्त हुई और वे बड़ी ख़ुशी से मठ में भर्ती हुए। कुछ ही दिनों के अंदर सबके प्रति उनके सौम्य व्यवहार एवं प्रेमपूर्ण सेवा कार्यों ने सबका मन मोह लिया। वे दिन-भर रोगियों, दुखियों की सेवा में कठिन परिश्रम तथा कष्ट उठाते हुए कार्य करते थे और रात को देर तक जागकर प्रार्थना, तपस्या एवं धर्मग्रन्थ का पाठ पढ़ा करते थे। फलस्वरूप ईश्वर ने उन्हें अनेक विशिष्ट वरदानों से विभूषित किया। उनकी प्रार्थना से अनेकों रोगी चंगे हो जाते थे, दुःखियों को सांत्वना एवं सहारा और अनेकों को जीवन की कठिनाइयों से पार होने का साधन मिल जाता। शीघ्र ही लोग उन्हें शांति दूत एवं ख्रीस्त की दया का प्रतिरूप मानने लगे। उनके स्पर्श मात्र से रोगी चंगे हो जाते थे। लोगों के हृदय पढ़ने का वरदान भी उन्हें प्राप्त था। पेरू के मूल निवासियों, स्पेनिश आप्रवासियों तथा नीग्रो सभी लोगों की सेवा मार्टिन बड़ी तत्परता एवं स्नेहपूर्वक करते थे। उनके मन में देश, जाति तथा रंग-भेद का विचार कभी नहीं आया। उन्होंने सब को सिखाया कि सारी मानव जाति एक ही ईश्वर की संतान है। अतः हमें सबको अपने ही भाई-बहन मानकर प्यार करना चाहिए। पिता ईश्वर के असीम प्रेम में अटल विश्वास रखते हुए उन्होंने सभी बीमारों, दुःखियों तथा अनाथों को अपने ही भाई-बहनों जैसे प्यार किया और उनकी सेवा की। लीमा नगर के सभी निराश्रितों को वे प्रतिदिन अपने मठ में बुलाकर भोजन दिया करते थे। अतः वे सब उन्हें अपने परम मित्र एवं सहायक मानते थे। विनम्र हृदय मार्टिन को मनुष्यों से ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों तथा प्राणी मात्र से बहुत प्यार। था वे उनके साथ भी बड़े प्रेम और दया का व्यवहार किया करते थे। इस प्रकार जीवन के अंत तक बीमारों, दीन-दुःखियों एवं दरिद्रों की सेवा में लगे रहे। अंत में 03 नवम्बर 1639 को सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने इस संसार से विदा ली। उनके वियोग से सारे लीमा नगर में शोक छा गया। उनके अन्तिम के लिए और उनसे चंगाई पाने के लिए नगर की सारी जनता भीड़ की भीड़ उमड़ पड़ी।
उनके जीवन काल में ही लोग उन्हें सन्त मानते थे। देहांत के पश्चात् वे स्वर्ग से अपने प्यारे सभी लोगों पर अनुग्रह की वर्षा करने लगे। उनकी मृत्यु के पच्चीस वर्षों बाद जब उनकी कब्र खोली गयी, तब उनका शरीर पूर्णरूप से अक्षय एवं मृदुल रूप में पाया गया। 06 मई 1962 को सन्त पिता जॉन 23वे ने उन्हें सन्त घोषित किया और सामाजिक न्याय के संरक्षक निर्धारित किया। माता कलीसिया उनका पर्व 03 नवम्बर को मनाती है।

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