सन्त मरिया गोरेत्ती

आधुनिक युग की आग्नेस कहलाने वाली शहीद सन्त मरिया गोरेत्ती का जन्म सन् 1890 में इटली में अंकोना नगर के निकट कोरिनाल्डो नामक शांत, सुन्दर ग्राम में हुआ। उसके पिता लूईजी गोरेत्ती एवं माता अस्सुन्ता निर्धन किसान थे। किन्तु वे अत्यन्त धर्मपरायण, उत्तम काथलिक एवं परोपकारी थे। मरिया उनकी पहलीठी पुत्री थी। जिसे वे प्यार से भरिएटा पुकारते थे। मरिया के पाँच छोटे भाई बहन और हुए। उस गाँव में सत्र के लिए जीविका कमाना पिता लूईजी के लिए कठिन हो रहा था। इसलिए वे अपने परिवार को लेकर रोम के निकट कंपाना प्रदेश में चले गये और नेतूनी शहर से कुछ दूर एक जमींदार के खेत में काम करने लगे। वहाँ उनके दिन शांतिपूर्वक कटने लगे। किन्तु एक ही वर्ष बाद मलेरिया के प्रकोप से लूईजी का देहान्त हो गया। अस्सुन्ता अपने छः छोटे बच्चों के साथ विधवा हो गयी। किन्तु उसका विश्वास बहुत गहरा था। अतः वह निराश न हुई बल्कि अपनी असहाय अवस्था में ईश्वर पर अपना सारा भरोसा रखते हुए वह स्वयं खेत में अपने पति का काम करने लगी और अपनी नौ वर्षीया पुत्री मरिया को घर के सारे काम तथा अपने नन्हें भाई बहनों की देख-भाल का कार्य भी सौंप दिया। मरिया बड़ी समझदार एवं कार्यकुशल थी। उसका चेहरा सदा सुन्दर, कोमल, गुलाब-सा खिला रहता था। अपनी प्रिय पुत्री की मुस्कान देख कर अस्सुन्ता को स्वर्गीय आनन्द का- सा अनुभव होता था।

अस्सुन्ता पढ़ी लिखी नहीं थी और घर की तंगहाली के कारण वह अपने बच्चों को भी स्कूल नहीं भेज सकती थी। फिर भी जब कभी सम्भव हो, अपने काम से फुर्सत पा कर, वह अपने बच्चों को अपने पास बैठा कर उन्हें प्रार्थना, धर्मज्ञान एवं सदाचार की शिक्षा बड़े प्यार से दिया करती थी। मरिया बड़ी खुशी से घर की जिम्मेदारी सम्भालने लगी। खाना बनाना, सफाई करना, छोटे भाई बहनों को सम्भालना, उन्हें खिलाना पिलाना इत्यादि बड़ी कुशलता से करके अपनी माँ का हाथ बंटाती और उसे प्रसन्न रखती थी।

उसका छोटा भाई आंजलो माँ के साथ खेत में काम करने लगा। यह सब होते हुए भी उनका जीवन खतरे से खाली न था। जिस मकान में वे रहते थे, उसी में एक अन्य परिवार भी रहता था जो खेत के काम में अस्सुन्ता का साझेदार था। उस परिवार में केवल दो ही व्यक्ति थे। साठ वर्ष का बूढ़ा जोवानी और उसका बेटा, सत्रह अट्ठारह वर्ष का अलेक्सान्द्रो। वे दोनों खेत में अस्सुन्ता के साथ काम करते थे। दोनों परिवारों के रहने के कमरे अलग थे, किन्तु रसोई एक ही थी और ऊपर जाने की सीढ़ी भी एक ही थी। यह परिवार गोरेती परिवार के लिए निरन्तर चुभने वाला कांटा था; क्योंकि बूढ़ा जोवानी दारू पीता और सदा चिवचिदा और रहता था। और युवा अलेक्सान्द्रो काम से फुरसत मिलते ही अपने कमरे में जाता और अश्लील पत्र पत्रिकाओं को पढ़ने और चित्रों को देखने में अपना समय खर्च करता था। अस्सुन्ता ने इस खतरनाक सर्प को देख लिया था। किन्तु उस स्थान को छोड़ कर और कहीं जाने का कोई उपाय भी तो नहीं था। कंपाना में कोई गिरजाघर नहीं था, अतः वे रविवार को आस-पास के किसी गाँव में जहाँ मिस्सा होती थी, उसमें भाग लेने जाया करते थे। एक रविवार को अस्सुन्ता छोटे बच्चों के साथ घर में ही रही और मरिया अपनी काकी तरेसा के साथ गिरजे में गयी। जाते समय माँ ने उसे याद दिलाया कि पुरोहित का प्रवचन ध्यान से सुन कर आना और मुझे भी बताना। मरिया ने माँ के कहे अनुसार पुरोहित की हर बात ध्यान से सुनी और मन में रखा। लौटने पर बड़ी खुशी से माँ से कहा, " माँ, आज मुझे मालूम हुआ है कि हम लोग भी सन्त बन सकते हैं। ” अस्सुन्ता मुस्कुराते हुए बोली, "क्यों नहीं बेटी, हम लोग कब से सन्त बनने की कोशिश कर रही हैं। " मरिया ने आश्चर्य से माँ की ओर देखा और पूछा, “वह कैसे?" माँ ने कहा, “मैंने तुझे सिखाया था न कि जब हम अपने सब काम येसु के प्रेम से ठीक- ठीक करते हैं, तब हम सन्त बनने का प्रयास करते हैं। तुम्हारे पिता जी का देहान्त हुआ, तो हम अपने सब कष्ट और दुःख बिना कुडकुडाए धैर्य के साथ सहते रहे। जब कोई हमें धोखा देते या अन्य प्रकार के कष्ट देते हैं, उनको भी हम येसु के प्रेम से धैर्यपूर्वक सहते हैं। बेटी, यदि हम सब कुछ ईश्वर के प्रेम से करते और सहते हैं तो हम कुँवारी मरियम और सन्त जोसेफ का अनुकरण करते हैं। वे इस प्रकार करते हुए बड़े सन्त बन गये। यदि हम उनके चरण चिह्नों में चलते हैं तो हम भी सन्त बन जाएंगे। "मरिया का चेहरा खुशी से चमक उठा। वह बोली, "माँ ! फादर ने ठीक यही कहा । मरियम और जोसेफ साधारण लोग थे। वे भी हमारे समान घर के सब काम करते थे। किन्तु वे सब कुछ येसु के प्रेम से अच्छी तरह करते थे । इसलिए उनके काम ईश्वर को बहुत पसन्द थे और वे बड़े सन्त बन गये। अतः हमें भी सब कुछ प्रभु येसु के प्रेम से करना चाहिए। ईश्वर यह नहीं देखता कि हम क्या काम करते हैं, बल्कि यह कि हम उन्हें कितने प्रेम से करते हैं। तब वे हमसे प्रसन्न होंगे।'' मरिया यह उपदेश कभी नहीं भूली।

मरिया ने जब देखा कि उसकी उम्र की अन्य बालिकाएँ परम प्रसाद में प्रभु येसु को ग्रहण करती हैं, तो उसे तीव्र इच्छा हुई कि वह भी परम प्रसाद ग्रहण करे। उसने अपनी इच्छा माँ को बतायी। माँ ने खुशी से अनुमति दे दी और मरिया आनन्द के मारे उछल पड़ी। किन्तु मरिया पढ़ना नहीं जानती थी । इसलिए उसे परम प्रसाद की तैयारी के लिए दो किलोमीटर दूर के शहर में पैदल जाना था। वहाँ एक धर्मबहन अनपढ़ बालिकाओं को मौखिक रूप से शिक्षा दे कर परम प्रसाद की तैयारी करवाती थी। अतः मरिया प्रतिदिन अपने सब काम बड़ी फुरती से निबटा कर सायंकाल उस धर्मबहन के पास जाती और कुछ अन्य साथियों के साथ परम प्रसाद के लिए तैयारी करती। इस प्रकार करीब ग्यारह महीनों तक शिक्षा पाकर वह प्रभु येसु को अपने हृदय में ग्रहण करने के लिए तैयार हो गयी। अन्त में मरिया के जीवन का वह महान् दिवस आ पहुँचा। वह था 13 जुलाई 1901 का सुप्रभात। उसने उज्ज्वल परिधानों में सुसज्जित होकर बड़ी भक्ति एवं प्रेमपूर्वक प्रभु येसु को अपने हृदय में ग्रहण किया। उसके गाँव वालों ने उसके लिए सब कुछ तैयार किया था जो उसे और उसकी माँ को बहुत प्यार करते थे। अपने हृदय में प्रभु येसु का स्वागत कर मरिया खुशी से फूली न समायी। पुरोहित ने उस दिन उपदेश में उन बालक-बालिकाओं से कहा, “प्यारे बच्चो, अब तुम्हारा हृदय बहुत शुद्ध है, प्रभु येसु को बहुत पसन्द है। तुम येसु के प्रेम से अपने हृदय को सदा पवित्र रखने का प्रयास करना। अतः पाप से सदा दूर रहो, विशेष कर अशुद्ध पाप से। अब प्रभु येसु से प्रतिज्ञा करना कि पाप करने की अपेक्षा मैं मरने के लिए तैयार हूँ।” मरिया ने बड़ी उमंग और निश्चयपूर्वक वह प्रतिज्ञा की। उस समय किसी ने यह नहीं सोचा था कि एक वर्ष के भीतर ही उस प्रतिज्ञा की पूर्ति में अर्थात् अपने हृदय की शुद्धता की रक्षा में उसे अपना रक्त बहा कर मृत्यु वरण करना होगा। परम प्रसाद के बाद घर आने पर माँ ने भी उसे यही सलाह दी कि बेटी, येसु से की हुई अपनी प्रतिज्ञा को सदा याद रखना और जी जान से उसका पालन करना। उसने निश्चयपूर्वक हाँ कहा।

मरिया अब बारह वर्ष की किशोरी थी। उसका चेहरा खिले हुए पुष्प के समान आकर्षक था । परिश्रम और पवित्र जीवन के कारण वह स्वस्थ्य एवं अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती थी। उसके इस अनुपम रूप को देख कर अलेक्सान्द्रो के मन में बुराई का सर्प फुफकार मारने लगा। एक दिन उसे मरिया अकेली रसोई में काम करते मिल गयी। पहले तो उस कुटिल युवक ने उससे मीठी-मीठी बातें कर उसे फुसलाने का प्रयास किया। जब मरिया ने उसकी बातों की कोई परवाह नहीं की, तब उसने खुलासा उसे पाप में फंसाने की कोशिश की। मरिया इतनी निर्दोष थी कि पहले उसने नहीं समझा कि अलेक्सान्द्रो क्या करना चाहता है। किन्तु जब बात समझ गयी, उसका चेहरा तमतमा उठा और कांपते स्वर में वह बोली, "अलेक्सान्द्रो, -यह महा पाप है, तुम नरक में जाओगे।" अलेक्सान्द्रो ने सोचा, यदि यह लड़की खुशी से नहीं मानेगी, तो जबर्दस्ती करूँगा, और वह चील के समान उस पर झपटा। किन्तु मरिया फुरती से उसके पंजे से निकल कर भाग गयी। अलेक्सान्द्रो हार गया। क्रोधित हो कर वह चिल्लाया, "सावधान ! यदि माँ से इस विषय में कुछ भी कहा तो मैं तुझे मार डालूंगा।"

मरिया के लिए अब बहुत बुरे दिन आने लगे। वह असहाय और अकेली थीं। अपनी माँ से वह सब कुछ कहना चाहती थी; किन्तु अलेक्सान्द्रो की क्रूरता से वह डरती थी। यदि वह जान गया, तो सचमुच उसे मार डालेगा और माँ की हालत क्या होगी। अतः वह अपनी स्वर्गीय माँ मरियम को सब कुछ बता कर उससे निरन्तर प्रार्थना करने लगी। क्रूस पर टंगे येसु की ओर वह अपना हाथ उठा कर आँसू बहाते हुए कहती, “प्रभु मेरी लाज अब तुम्हारे हाथों में है।" पाप के लिए झुकने की अपेक्षा तेरे लिए मरने की शक्ति प्रदान करो। मैं तुम्हारी हूँ, सदा तुम्हारी बनी रहूँगी। वह जानती थी कि खतरा टला नहीं है। दस दिन बीत गये तब अचानक अलेक्सान्द्रो उसके सामने आ खड़ा हुआ और तुरन्त उसका हाथ पकड़ लिया। भागने का मौका न देख, मरिया भय से चिल्लायी, “मुझे छोड़ दो, मैं ऐसा पाप कभी नहीं करूंगी।" साथ ही उसने इस फुरती से अपना हाथ मोड़ा कि वह उस शैतान के हाथ से छूट गयी और भाग गयी। अब अलेक्सान्द्रो के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने मन ही मन कहा अब मैं यह तो तुझे वश में करके ही दम लूंगा या तुझे मार डालूंगा। अब मरिया पहले से भी अधिक सावधान रहने लगी। किन्तु एक ही मकान में रहते हुए और एक ही रसोई में भोजन करते हुए वह उससे बहुत दूर नहीं रह सकती थी। उसने अपनी माँ से कहा, "माँ मुझे अकेले घर पर मत छोड़ा करो। मुझे बहुत डर लगता है। "अस्सुन्ता ने अश्चार्यचकित हो कर पूछा, "बेटी, यहाँ क्या डर है? तू बीमार तो नहीं? फिर डर किस बात का?" मरिया ने कोई उत्तर नहीं दिया। डर का कारण वह किस तरह माँ को बताती। इस तरह करीब महीने भर बीत गया। उस दिन सन् 1902 की 5 जुलाई था। दोपहर का समय था। मरिया घर में रसोई के बाहर बैठ कर कपड़ों की मरम्मत कर रही थी। करीब सौ मीटर की दूरी पर खलिहान में उसकी माँ और भाई काम कर रहे थे। अलेक्सान्द्रो भी उनके साथ काम में लगा था। अचानक अलेक्सान्द्रो काम छोड़ कर घर की ओर गया और अपने कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद वह रसोई में जा घुसा और वहाँ से चिल्लाया- "मरिया यहाँ आओ।" मरिया काप- उठी। किन्तु वह न हिली। तब वह क्रोध में पागल हो कर मरिया पर टूट पड़ा, उसका मुँह बन्द कर दिया उसे घसीट कर कमरे में ले गया और दरवाजे को लात मार कर बन्द कर दिया। उसके हाथ में तेज छुरा था। मरिया सिहर उठी। वह जान गयी कि पाप की अपेक्षा मृत्यु को चुनने का समय आ गया है। उसने उस शैतान से कहा, “मुझे छूना मत। नहीं तो तुम नरक में जाओगे। "मगर अलेक्सान्द्रो का दिल कठोर, निर्मम था जो वासना की आग में जल रहा था। उसने डर से कांपती हुई मरिया के मुँह में रूमाल दूंस दिया और छूरा दिखाते हुए चिल्लाया, “मरिया, मान जाओ नहीं तो मैं तुझे मार डालूंगा।' किन्तु मरिया गर्दन हिलाते हुए इन्कार कर दिया और मुँह से रूमाल निकाल कर चिल्ला उठी", नहीं, यह  महापाप है; ईश्वर ने मना किया है। किन्तु उस क्रोधान्ध कुकर्मी ने यह देख कर कि मरिया उसकी कामना पूर्ति के लिए किसी भी तरह तैयार नहीं, तो वह पागल हो गया और उस तेज छूरे को फूल सी कोमल मरिया के पेट में गहराई तक घुसा दिया। रक्त प्रवाह के साथ उसकी आतें बाहर निकल आयी। फिर भी वह चिल्लाती रही। “यह महापाप है, तुम नरक में जाओगे।" तब उस शैतान ने उसकी छाती, दिल और पीठ को भी छेद डाला और वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी।

अलेक्सान्द्रो ने यह सोच कर कि मरिया मर गयी है, उसे छोड़ कर अपने कमरे में चला गया । परन्तु मरिया मरी नहीं थी। कुछ क्षणों बाद उसे होश आया। उसके दिल में और पेट में भयानक दर्द था फिर भी उसने हिम्मत करके बड़ी कठिनाई से दरवाजा खोला और धीमे स्वर में बोली, “ माँ आओ, मैं मर रही हूँ। अलेक्सान्द्रो ने मुझे मार डाला। हे प्रभु मेरी शरण बन।” किन्तु उसका धीमा स्वर किसी को सुनाई न पड़ा। इतने में उसकी नन्हीं बहन तरेसा जो सो रही थी, जाग कर रोने लगी। माँ ने बच्ची के रोने के आवाज सुनी और यह सोच कर कि मरिया जाने कहाँ गयी है, बच्ची को लाने के लिए छोटे बेटे को ऊपर भेजा। उसने लोहू लुहान पड़ी हुई अपनी बहन को देख कर चिल्ला कर आवाज लगायी और माँ तथा अन्य सभी ऊपर आये। अस्सुन्ता यह भयानक दृश्य देख कर बेहोश हो कर गिर पड़ी। लोगों ने मर रही मरिया को उठाया और शीघ्र अस्पताल में पहुँचाया। मार्ग में माँ ने उससे पूछा, “ बेटी यह सब कैसे हुआ?'' उसने आह भरते हुए बताया कि अलेक्सान्द्रो ने यह किया। क्योंकि वह मुझसे  पाप कराना चाहता था; और मैंने इन्कार किया और कहा कि यह महापाप है, तुम नरक में जाओगे । धीरे- धीरे उसने शेष बातें भी माँ को बतायी।

तीन डाक्टरों ने मरिया के घायल शरीर की जाँच की। तब वे बड़े विस्मित हुए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वह अब तक कैसे जीवित है। दिल छिदा हुआ था, ऑर्ति टुकड़े हो गयी, पेट, पीठ और छाती में चौदह घाव थे, फेफड़े चीरे हुए थे। सारा खून बह चुका था। फिर भी साँस चल रही थी। मुख्य डॉक्टर ने कहा, “ईश्वर ने अपनी शक्ति से करामत करके मरिया को अब तक जिन्दा रखा है ताकि लोग उसकी कहानी उसके मुँह से सुन सकें।" किन्तु मरिया के बचने की कोई आशा नहीं थी। अतः उन्होंने ऑपरेशन से पहले पुरोहित को बुलवाया। वे आये और मरिया ने अन्तिम पाप स्वीकार किया। तब डॉक्टरों ने ऑपरेशन प्रारम्भ किया। मरिया इतनी कमजोर थे कि उसे बेहोशी की दवा नहीं दी जा सकती थी। अतः उस वीर बाला को डॉक्टरों के हाथ से एक नयी शहादत सहनी पड़ी। किन्तु उसके मुँह से कोई शिकायत नहीं निकली। उसके मन के सम्मुख क्रूस पर कष्ट सहते हुए प्रभु येसु की मूर्ति थी और वह बार- बार धीरे से कहती थी, "हे येसु तेरे लिए सब कुछ।” अन्त में डॉक्टरों ने अपना कार्य समाप्त कर मरिया को पलंग पर लिटा दिया।

दूसरे दिन सुबह रविवार था। नेतुनो के पल्ली पुरोहित परम प्रसाद लिये उसके कमरे में आये। पुरोहित ने पास आ कर पूछा- “मरिया तुम किसे अपने हृदय में ग्रहण करोगी?" उसने तुरन्त उत्तर दिया- "प्रभु येसु को, जिन्हें मैं थोड़ी देर बाद देलूंगी।" पुरोहित ने फिर कहा- "मरिया, एक बात और है। प्रभु येसु क्रूस पर घोर पीड़ा सह रहे थे, तब उन्होंने अपने शत्रुओं को क्षमा कर दिया था। क्या तुम भी अपने हत्यारे को क्षमा करने को तैयार हो?' मरिया ने शीघ्र उत्तर दिया- “जी हाँ ! मैं येसु के प्रेम से उसको दिल से क्षमा करती हूँ। ईश्वर उस पर दया करे और मैं चाहती हूँ कि एक दिन वह मेरे साथ स्वर्ग में रहे।” पुरोहित की आँखें में आँसू आये। उन्होंने शीघ्र मरिया को परम प्रसाद के रूप में प्रभु येसु को प्रदान किया।

मरिया का हर्ष उसके मुख पर छा गया। किन्तु धीरे- धीरे उसका चेहरा फीका पड़ गया। साँसे धीमी पड़ने लगीं; शोकाकुल अस्सुन्ता फूट- फूट कर रोने लगी  काँपते हुए स्वर में उसने कहा "मरिया हमें नहीं भूलना। स्वर्ग से हमारे लिए प्रार्थना करना। "अपनी प्यारी माँ एवं सभी प्रिय जनों को बिलखते हुए छोड़ कर मरिया की निष्कलंक आत्मा अपने प्यारे येसु के पास उड़ गयीं।

मरिया की शव -यात्रा विजय यात्रा थी। हजारों लोगों ने उसमें भाग लिया। उन सबका विश्वास था कि जिसके दफन संस्कार में वे भाग ले रहे थे, वह कुँवारी शुद्धता की शहीद है, सन्त है। मरिया की समाधि शीघ्र ही तीर्थ स्थान बन गयी। उसकी प्रार्थना द्वारा बहुत बीमार लोग चंगे हो गये, अनेकों को उनके जीवन की कठिनाइयों में सहायता तथा अन्य वरदान प्राप्त हुए। उसका हत्यारा अलेक्सान्द्रो जो जेल में आजीवन कारावास भोग रहा था, वर्षों तक उसका हृदय कठोर बना रहा। किन्तु मरिया की प्रार्थना से अन्त में उसका मन परिवर्तन हुआ। उसने मरिया की माँ से माफी माँगी और एक भला मानव बन गया।

24 जून 1950 को सन्त पिता पियुस बारहवें ने मरिया गोरेत्ती को सन्त घोषित किया और कुँवारियों की विशेष मध्यस्थता निर्धारित किया । उस महान् समारोह में मरिया की माँ अस्सुन्ता भी सन्त पिता की बगल में बैठी हुई सम्मिलित हुई थी। संसार में वह प्रथम बार था जब किसी की सन्त घोषणा में उसकी माँ को भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो । सन्त मरिया गोरेत्ती के आदर्श को हम भी अपनाएँ अर्थात् पाप की अपेक्षा मृत्यु । उसका पर्व कलीसिया में 6 जुलाई को मनाया जाता है ।

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