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सन्त बेनेदिक्त
कलीसिया के इतिहास में हम पाते हैं कि हर युग में ईश्वर ने ऐसे सन्त पैदा किये हैं जिन्होंने पवित्रात्मा के विशेष वरदानों तथा अपने जीवन की पवित्रता के द्वारा सारी कलीसिया को प्रभावित किया और सिद्धता के पथ पर अग्रसर किया है। सन्त बेनेदिक्त जो कलीसिया में 'मठवासी जीवन के पिता' कहलाते हैं, इसी प्रकार के महान् सन्त हैं ।
बेनेदिक्त का जन्म उत्तरी इटली के नर्सिया नगर में सन् 480 ई . के करीब हुआ।उनकी एक जुड़वा बहन थी जिसका नाम स्कोलास्टिका था। उनके माता पिता दोनों ही बड़े धर्मपरायण तथा तपस्वी थे। फलस्वरूप बेनेदिक्त और स्कोलास्टिका दोनों बचपन से ही अपने माता- पिता का अनुकरण करते दैनिक कार्यों में ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते थे।
बेनेदिक्त बाल्यावस्था से ही अध्ययन के लिए रोम भेजे गये। किन्तु वहाँ अध्ययन करते हुए जब उन्होंने विद्यार्थियों का बद- चलन तथा नगर के अनैतिक वातावरण को देखा, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ। इसलिए करीब सोलह वर्ष की अवस्था में अपनी पढ़ाई समाप्त किये बिना ही वे विद्यालय छोड़ कर चले गये, और अपने माता- पिता, प्यारी बहन एवं पैतृक सम्पत्ति को त्याग कर रोम नगर से कुछ दूर किसी गाँव में रह हुए अपने कर प्रार्थना एवं मनन- चिन्तन करने लगे। कुछ काल बाद वे सुबियाको पहाड़ी की एकान्त गुफा में चले गये और वहाँ पापियों के मन परिवर्तन तथा मानव- मुक्ति के उद्देश्य से तपस्या एवं प्रार्थना में दिन बिताने लगे। वहाँ आस- पास के प्रदेश वाले लोगों के बीच उनकी पवित्रता की ख्याति फैल गयी और कुछ लोग उनके शिष्य बन गये। इस पर बेनेदिक्त ने वहाँ एक मठ की स्थापना की और उन्हें उत्तम ख्रीस्तीय जीवन की शिक्षा देने लगे। वे उनसे कहते, "हमें अपने जीवन में प्रभु येसु ख्रीस्त का अनुसरण करना है। बेनेदिक्त ने बालकों व युवकों की शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की जिसमें रोम नगर के कुलीन परिवारों के बालक भी पढ़ने के लिए आने लगे। उनकी बहन स्कोलास्टिका ने भी अपने भाई का अनुसरण किया और सुबियाको से कुछ दूर प्रार्थना एवं तपस्या का जीवन बिताने लगी। किन्तु बेनेदिक्त की बढ़ती प्रसिद्धि को देख कुछ अन्य मठवासी उनसे ईर्ष्या करने लगे। अतः बेनेदिक्त ने वहाँ का कार्य- भार कुछ लोगों को सौंप दिया और अपने शिष्यों के साथ रोम के दक्षिण में स्थित मोंटे कासिनो' की पहाड़ी चले गये। वहाँ उन्होंने एक नया मठ स्थापित किया और मठवासीय जीवन की एक नयी प्रणाली प्रारम्भ की । मोंटे कासिनो का यह मठ सन्त बेनेदिक्त के मठवासियों के मातृ- भवन के रूप में आज भी विश्व प्रसिद्ध है । जब बेनेदिक्त मोटे कासिनो गये, तब स्कोलास्टिका भी उनके साथ गयी और अपने भाई के मठ से कुछ दूर, उनकी देख- रेख में महिलाओं के लिए एक मठ की स्थापना की, और बेनेदिक्त के बनाये नियमों के अनुसार सामूहिक रूप से संन्यास जीवन बिताना प्रारम्भ किया। इस प्रकार कलीसिया के इतिहास में प्रथम बार स्कोलास्टिका ने महिलाओं के लिए संघीय जीवन की नींव डाली।
कुछ ही समय के अन्दर बेनेदिक्त के जीवन से प्रभावित हो कर यहाँ भी अनेकों शिष्य हो गये और बेनेदिक्त ने उन्हें कई मठों में विभाजित कर दिया जिससे वे जगह- जगह लोगों के आध्यात्मिक एवं सामाजिक पुनरूद्वार के लिए कार्य कर सकें। सन्त बेनेदिक्त के जीवन का सबसे महान् कार्य उनके लिखे नियम की पुस्तक- 'सन्त बेनेदिवत के नियम संहिता' है जिसे मठवासीय जीवन का आधार भूत विधान कहा जा सकता है। उसके अनुसार मठवासी गण, प्रार्थना परिश्रम और संघ- जीवन के साथ, आज्ञापालन, ब्रह्मचर्य एवं निर्धनता, के सुसमाचारी परामर्शो का व्रत ले कर स्वयं को ईश्वर की सेवा में समर्पित करते हैं। प्रार्थना और कार्य बेनेदिक्त का आदर्श था। आज विश्व के सभी धर्मसंघ काफी हद तक इन नियमों का पालन करते हैं।
सन्त बेनेदिक्त के नियम केवल धर्मसंघीय जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि उन सभी ख्रीस्तीय विश्वासियों के लिए लाभदायक है जो वास्तव में ईश्वर की खोज में है। बेनेदिक्त का कहना था कि मनुष्य जो अनाज्ञाकारिता एवं सुस्ती के कारण ईश्वर से भटक गये हैं, उन्हें आज्ञाकारिता के अधीन कार्य करते हुए ईश्वर की ओर लौट आना चाहिए। हमें इस जीवन में ईश्वर के प्रेम की खातिर अपने पड़ोसी की सेवा के लिए कठिन परिश्रम करना और कष्ट उठाना चाहिए। हम अपने जीवन में निरन्तर ईश्वर की खोज करें और उनके लिए जिएँ। यह केवल प्रार्थना तथा पश्चाताप के द्वारा ही किया जा सकता है।
सन्त बेनेदिक्त और उनके मठवासी अपने पड़ोसी की सेवा में बालकों को शिक्षा देना, उत्तम ढंग से खेती करना और गरीबों व दुःखियों की सहायता करने का कार्य भी करते थे। ईश्वर ने बेनेदिक्त को अनेक विशेष वरदान प्रदान किये थे। दूसरों के हृदय पढ़ने की कृपा उन्हें प्राप्त थी। उनकी प्रार्थना से अनेकों रोगी स्वस्थ हो गये थे। एक बार उन्होंने किसी मृत बालक को पुनर्जीवित भी किया था। सन्त बेनेदिक्त के धर्मसमाजी, यूरोप, अमेरिका, एशिया आदि सभी देशों में कलीसिया की सेवा में निरन्तर निष्ठापूर्वक कार्य कर रहे हैं।
वे अपनी बहन से वर्ष में एक बार अवश्य मिलते थे। इस मुलाकात के दौरान दोनों आध्यात्मिक जीवन पर चर्चा करते और ईश्वर की महिमा एवं गुणगान किया करते थे। दोनों की अन्तिम मुलाकात के चार दिन पूर्व बेनेदिक्त ने मोंटे कासिनो में अपने लिए एक कब्र खुदवा ली थीं। उस अन्तिम मुलाकात में दोनों ने ईश्वर की इच्छा को पहचान कर रात - भर प्रभु की स्तुति एवं महिमा- गान में बिताया था। उस मिलन के पश्चात् तीसरे दिन स्कोलास्टिका का देहान्त हो गया । बेनेदिक्त जब अपने मठ में प्रार्थना कर रहे थे, तब उन्होंने अपनी बहन की निर्मल आत्मा को धवल कपोत के रूप में स्वर्ग में प्रवेश करते देखा। स्कोलास्टिका का पार्थिव शरीर बेनेदिक्त के पास लाया गया और उन्होंने अपनी प्यारी बहन को उसी कब्र में रख दिया जिसे उन्होंने अपने लिए खुदवाया था। बहन को दफनाने के तीन ही दिन पश्चात् बेनेदिक्त की भी मृत्यु हुई। उनके शिष्यों ने बहन के साथ ही उन्हें भी उसी कत्र में रख दिया। इस प्रकार दोनों जुड़वे भाई- बहन फिर से एक साथ मिल गये। उनका जीवन इस संसार में भाई- बहन के निष्कलंक प्रेम के साथ ईश्वर- प्रेम की पूर्णता तक पहुँचने का अनन्य उदाहरण है।
सन्त बेनेदिक्त यूरोप के संरक्षक सन्त माने जाते हैं। 11 जुलाई को उनका पर्व मनाया जाता है।
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