किन्तु ख्रीस्त के प्रेम से प्रज्वलित फ्रांसिस को किसी प्रकार के विश्राम की चिंता नहीं थी। वे सुदूर चीन देश जाने के लिए तैयार हुए। कुछ ही दिनों बाद वे अपने कुछ साथियों को लेकर चीन के लिए रवाना हुए। किन्तु मार्ग में वे सख्त बीमार पड़ गए और हांगकांग से करीब दो सौ मील दूर सेंचियन द्वीप में 03 दिसम्बर 1552 को उनका देहान्त हो गया। वे केवल 46 वर्ष के थे। फ्रांसिस का जीवन एक जलती हुई मोमबत्ती के समान था जो ख्रीस्त की ज्योति को चारो ओर बिखेरता था। वह प्रकाश अचानक बुझ गया था। फ्रांसिस के साथियों ने बड़े दुःख के साथ उनके पार्थिव शरीर को उस द्वीप की रेत में दफना दिया। करीब दस सप्ताह बाद वह जहाज अपनी वापसी यात्रा में उस द्वीप के किनारे रुका। फ्रांसिस के साथी उनके अवशेष को गोवा ले जाना चाहते थे अतः उन्होंने कब्र की रेत हटाई। तब वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि उनका शरीर बिलकुल ताज़ा था। किन्तु लम्बी यात्रा की परेशानियों को देखते हुए उन्हें फिर मलाका में दफनाया गया। एक वर्ष बाद गोवा के विश्वासियों के आग्रह पर मलाका में फिर उनकी कब्र खोली गयी। उस समय भी वह पावन शरीर बिलकुल ताज़ा था। उसे बड़े सम्मानपूर्वक गोआ लाया गया। वह आज भी गोआ की राजधानी पंजिम के महागिरजाघर में सुरक्षित रखा हुआ है।
सन्त फ्रांसिस ने केवल दस वर्ष मिशनरी के रूप में कार्य किया, फिर भी उन्होंने करीब पचास राज्यों की यात्रा की और लाखों को ख्रीस्त के शिष्य बनाये और उन्हें अपने विश्वास में सुदृढ़ किया। सन 1622 में संत पिता ग्रेगरी 15 वें ने फ्रांसिस को संत घोषित किया और भारत एवं जापान के संरक्षक ठहराया। माता कलीसिया 03 दिसम्बर को सन्त फ्रांसिस ज़ेवियर का पर्व मनाती है।

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