सन्त अम्ब्रोस

सन्त आम्ब्रोस कलीसिया के धर्माध्यक्ष एवं महान धर्माचार्य माने जाते हैं। उनका जन्म इटली के ट्रयेर नगर के एक कुलीन परिवार में सन 340 ईस्वी में हुआ। उनके माता-पिता ख्रीस्तीय थे, और पिता गल्लियों प्रान्त के गवर्नर थे। उस समय की प्रथा के अनुसार अम्ब्रोस को बचपन में बपतिस्मा नहीं दिया गया था। पिता के देहान्त के बाद उनका परिवार रोम लौट आया। उनकी शिक्षा रोम में हुई। अम्ब्रोस ने कानून की शिक्षा प्राप्त की और रोम में वकील के रूप में कार्य करने लगे। 33 वर्ष की अवस्था को पहुँचते-पहुँचते अम्ब्रोस का नाम रोम नगर के एक सफल वकील के रूप में प्रसिद्द हो गया। उनकी असाधारण प्रतिभा एवं योग्यताओं से प्रभावित होकर रोम के सम्राट ने उन्हें मिलान का गवर्नर नियुक्त किया। वहाँ प्रशासक के रूप में अम्ब्रोस सभी लोगों के प्रति अपने भद्र व्यवहार एवं न्यायपूर्ण शासन से मिलान के नागरिकों के प्रिय बन गए। सम्राट उन्हें अपना परम मित्र मानते थे और उन्होंने अम्ब्रोस को एक बड़ी जायजाद का स्वामी बना दिया।
उन दिनों कलीसिया में कई एक भ्रामक धर्म-सिद्धांतों का आविर्भाव हुआ जो सच्ची कलीसिया में फूट डालकर उसका विनाश करना चाहते थे। कुछ ही दिनों में मिलान के धर्माध्यक्ष का देहान्त हो गया जो एरियस के विधर्मी मत के पक्षपाती थे और ख्रीस्त के ईश्वरीय स्वभाव का विरोध करते थे।
अब मिलान के ख्रीस्तीयों को अपने लिए एक नए धर्माध्यक्ष का निर्वाचन करना था। किन्तु लोगों के बीच यह विवाद उठा कि क्या एक काथलिक को धर्माध्यक्ष निर्वाचित करें अथवा एरियस मत के अनुयायी को? दोनों पक्षों के लोग मिलान के महागिरजाघर में एकत्र हुए और उनके बीच में दंगा छिड़ गया। 
नगर में शांति व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी अम्ब्रोस की थी। अतः वे तुरंत वहाँ पहुँच गए और उन्होंने लोगों से जोरदार अपील की कि वे शांति एवं संयम बनाये रखें। वे बोल ही रहे थे कि अचानक एक बालक की आवाज़ सुनाई पड़ी- "अम्ब्रोस ही धर्माध्यक्ष हो।" तुरंत सभी के स्वर उनमें मिल गए और सभी एक स्वर से चिल्ला उठे कि अम्ब्रोस ही धर्माध्यक्ष हो। यद्यपि अम्ब्रोस ने इसका विरोध किया; फिर भी ने एवं सम्राट ने भी इस निर्णय का समर्थन किया। अतः अम्ब्रोस कोइसे ईश्वर की इच्छा समझकर स्वीकार करना पड़ा और वे धर्माध्यक्ष घोषित किये गए; यद्यपि उन्होंने अब तक बपतिस्मा ग्रहण नहीं किया था , बल्कि वे उसकी तैयारी कर रहे थे। अब अम्ब्रोस  ने बिना देरी बपतिस्मा संस्कार ग्रहण किया और प्रभुवर ख्रीस्त के चरणों में स्वयं को समर्पित किया। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति गरीबों को बाँट दीऔर जायजाद गिरजे को दे दी। तब शीघ्रता से धर्मग्रन्थ एवं ईश-शास्त्र का गहरा अध्ययन किया और वे पुरोहित एवं धर्माध्यक्ष  में अभिषिक्त हुए।

धर्माध्यक्ष के रूप में अम्ब्रोस बड़े ही सरल एवं तपस्यामय जीवन बिताने लगे। पितृ-तुल्य प्रेम और न्याय के साथ वे अपने विश्वासी समुदाय की देखभाल करते थे; और शीघ्र ही अपने सारपूर्ण, संक्षिप्त एवं व्यावहारिक प्रवचनों के कारण प्रसिद्द हो गए। उनके प्रेरणात्मक वचनों से प्रभावित होकर ही सन्त अगस्तिन का मन-परिवर्तन हुआ; और वे कलीसिया में लौट आये और पुरोहित, बिशप सन्त बने। अगस्तिन की माता मोनिका भी अम्ब्रोस की मित्र थी। अम्ब्रोस अपनी विशेष क्षमता, ईश-शास्त्र के गहरे ज्ञान एवं तीव्र विश्वास के द्वारा एरियस पाखण्ड-मत के अनुयायियों का निरंतर सामना करते और उनको पराजित करते थे। उन्होंने अनेक धार्मिक ग्रंथों की रचना की जो विश्वासियों को अपने ख्रीस्तीय विश्वास में सुदृढ़ करने एवं अविश्वासियों को ईश्वरीय सत्य को पहचानने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए। उन्होंने अनेक धार्मिक गीतों की भी रचना की जो कलीसिया की दैनिक प्रार्थनाओं में अब भी उपयोग में लाये जाते है। वे कलीसिया के महान धर्माचार्य थे। ईश्वर एवं कलीसिया की सेवा में निरंतर कठिन परिश्रम करते हुए अप्रैल सन 397 को केवल 57 वर्ष की आयु में इस सन्त धर्माध्यक्ष का देहान्त हो गया। माता कलीसिया सन्त अम्ब्रोस का पर्व 07 दिसंबर को मनाती है, जिस दिन वे अद्भुद रीति से धर्माध्यक्ष चुने गए थे।

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