संत विन्सेंट डी पॉल

'परोपकार का देवदूत' कहलाने वाले संत विन्सेंट डी पॉल का जन्म फ़्रांस के तस्कनी प्रदेश के दाउलो नगर में सन 1581 में हुआ। उनके माता-पिता गरीब किसान वर्ग के थे। किन्तु निर्धन होते हुए भी वे उत्तम काथलिक एवं परोपकारी थे। बचपन से ही विन्सेंट की तीव्र बुद्धि, परिश्रमशीलता एवं भक्तिपूर्ण जीवन से  सभी प्रभावित होते थे। अपने माता-पिता के त्यागपूर्ण जीवन एवं पडोसी प्रेम को देखकर विन्सेंट को पुरोहित बनकर दूसरों की सेवा करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने बड़ी तत्परता से अपना अध्ययन पूर्ण किया। उनके उत्तम जीवन और सेवाभाव के फलस्वरूप बीस वर्ष  आयु में ही उनका पुरोहिताभिषेक संपन्न हुआ। पुरोहित के रूप में उन्होंने लोगों की आध्यात्मिक एवं सामजिक आवश्यकताओं में उनकी सहायता के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। 
किन्तु कुछ समय बाद वे टर्की के समुद्री डाकुओं द्वारा पकडे गये और गुलाम बनाये गये। गुलामी के जीवन के सभी कष्टों को उन्होंने बड़े धैर्य एवं शांतिपूर्वक झेला। इस बीच वे उन गुलामों की दुर्दशा एवं कष्ट-कठिनाइयों को भी भली-भाँति समझ गए। दो वर्षों के बाद वे उनके बीच से बच निकलने में सफल हुए। वापस फ़्रांस में आकर वे उन दीन-दुःखी, गरीब गुलामों को सहायता करने के उपाय खोजने लगे। तब उन्होंने अपने उदार-हृदय मित्रों से सहायता राशि एकत्र की और करीब 12000 गुलामों को उनके मालिकों को रक्षा-शुल्क देकर उन्हें मुक्त कर अपने परिवारों में भेजने में वे सफल हुए। तत्पश्चात पेरिस के निकट कलीची में पल्ली पुरोहित एवं शाही परिवार के परामर्शदाता के पद पर नियुक्त हुए। इस पद पर कार्य करते हुए विन्सेंट को देहात के किसानों के जीवन की दुर्दशा की जानकारी प्राप्त हुई। इस युग में फ़्रांस के देहातों में लोगों की दशा बड़ी शोचनीय थी। धार्मिक ज्ञान के अभाव एवं गरीबी के कारण लोगों का जीवन ईश्वर से विमुख एवं बुराइयों के चंगुल में फँसा हुआ था। अतः उन गरीबों के लिए विन्सेंट ने धर्मोत्साही पुरोहितों की एक  मंडली बनायीं जिसका नाम मिशन पुरोहितों का धर्मसंघ रखा। उसका उद्देश्य था कि पुरोहितगण संघ जीवन बिताते हुए गाँव के गरीब लोगों को धार्मिक शिक्षा दे और उनके पारिवारिक एवं सामजिक उत्थान के लिए कार्य करें। वे लोगों को धार्मिक शिक्षा देते और आध्यात्मिक साधना भी दिया करते थे। इसके अलावा गुलामों और कैदियों की दुर्दशा सुधारने और उन्हें छुड़ाने के लिए भी विन्सेंट ने हर सम्भव प्रयास किये। उनकी संस्था के सदस्य पुरोहितगण आज विश्व भर में फैले हुए है और लोगों के आध्यात्मिक एवं पारिवारिक विकास में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे है। 
उन दिनों फ़्रांस  इस हद तक थी कि लोग गरीबी के कारण अपने बच्चों का पालन-पोषण भी नहीं कर सकते थे। माताएं जब बच्चों को खिलाने-पिलाने में असमर्थ होती, तो उन्हें सड़कों के किनारे या गिरजाघर की सीढ़ियों पर छोड़कर चली जाती थी। ऐसे बच्चों को फादर विन्सेंट उठा लेते और उनकी देख-भाल करते। जब बच्चों की संख्या बढ़ गयी तो उन्होंने लुइज़ा मारीलाक नामक एक धर्मपरायण, परोपकारी महिला को बुलाकर उन अनाथ बच्चों को सँभालने का कार्य सौंपा। आगे इसी तरह मानव सेवा के लिए जीवन समर्पित करने एवं ख्रीस्त का अनुसरण करने की इच्छा रखने वाली उत्साही नवयुवतियों के सहयोग से परोपकार की धर्मबहनों के संघ की स्थापना की। ये धर्मबहनें गरीब, अनाथ एवं परित्यक्त बच्चों के लिए बाल भवन चलाती है; और निराश्रित, बीमारों और गरीबों के देख-भाल भी करते हुए उन दुखी एवं पीड़ित लोगों को प्रभु येसु का प्रेम प्रदान करती है।

फादर विन्सेंट ने इस प्रकार परोपकार के हज़ारों कार्य किये। वे कहते थे- "मेरा जीवन ईश्वर और निर्धनों के लिए है।" उन्होंने अपने जीवन में प्रभु येसु की दीनता को पूर्णस्वरूप से अपना लिया था। जो धार्मिकता उन्होंने सिखाई, वह ख्रीस्त की सुसमाचारी शिक्षा के अनुसार कार्य करने, विशेष रूप से पडोसी प्रेम तथा गरीबों, दीन-दुखियों की की सहायता आधारित थी। वे बड़े ही कुशल कार्यकर्ता थे और उनका जीवन सदैव दूसरों के लिए प्रेरणात्मक था। वे दिनों को सुसमाचार सुनाते थे और अनेकों सेवा कार्यों को करते हुए सदैव विनम्र बने रहते थे। 
इस प्रकार निरंतर अथक परिश्रम करते-करते उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और अंत में फ़्रांस की राजधानी पेरिस में 26 सितम्बर 1660 में विन्सेंट का देहांत हुआ। सन 1737 में उन्हें संत घोषित किया गया। संत विन्सेंट के आदर्श पर चलना और उनको जीवन में कार्यान्वित करना वर्तमान युग की मांग है। गरीबों, दुखियों व अनाथों की सेवा में कार्य करने वाले समस्त संस्थाओं के वे रक्षक संत है।
माता कलीसिया 27 सितम्बर को उनका पर्व मनाती हैं।

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