इतना व्यस्त होते हुए भी उनका आध्यात्मिक जीवन अत्यंत गहरा एवं सबके लिए आदर्श था। उनका प्रार्थनामय जीवन, गहरी नम्रता, निर्धनता, गरीबों के प्रति विशेष प्रेम एवं असाधारण कर्तव्यपरायणता को देखते हुए उनके जीवनकाल में ही लोग उन्हें संत मानते थे। इस प्रकार कलीसिया की रक्षा में निरंतर अथक परिश्रम करते हुए सन 1621 में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और वे अस्वस्थ रहने लगे। अतः उन्होंने सक्रीय जीवन से विराम लिया और प्रभु से मिलने की प्रतीक्षा में दिन बिताने लगे। अंत में 17 सितम्बर 1621 को 79 वर्ष की आयु में वे अपना अनंत पुरस्कार पाने के लिए बुला लिए गए।
29 जून 1930 को संत पिता पियूस ग्यारहवें ने उन्हें संत घोषित किया और एक वर्ष पश्चात उन्ही संत पिता ने उन्हें कलीसिया में धर्माचार्य की उपाधि से विभूषित किया। उनका पर्व 17 सितम्बर को मनाया जाता है।
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