संत मैक्सिमिलियन कोल्बे

Maximilian Kolbe

"इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।"
(संत योहन 15:13)

प्रभुवर येसु के उपर्युक्त वचन को अपने जीवन में पूर्णतया साकार करते हुए अपने एक साथी कैदी को प्राण दान दिलाने के लिए अपने जीवन का बलिदान करने वाले महान पुरोहित थे संत मैक्सिमिलियन कोल्बे।  

संत मैक्सिमिलियन कोल्बे का जन्म पोलेंड की राजधानी वरसो के निकट डुस्कावेला नामक स्थान में 8 जनवरी 1894 में हुआ। बपतिस्मा में उनको रेमंड नाम दिया गया। उनके माता-पिता निर्धन थे किन्तु वे बहुत ही भक्त काथलिक थे और जीवन की हर कठिनाई में ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा रखने वाले थे। उनकी भली माँ ने रेमंड के हृदय में ये सब उत्तम गुण भर दिए थे। साथ ही उसने माता मरियम के प्रति बच्चों जैसी भक्ति भी उसे भली प्रकार सिखा दी थी। अपने माता-पिता के त्यागपूर्ण जीवन से प्रेरणा पाकर रेमंड सोलह वर्ष की अवस्था में संत फ्रांसिस के धर्मसंघ में भर्ती हुए ताकि ईश्वर के महान प्रेम का अनुभव सभी लोगों को कराने के लिए कार्य कर सकें। धार्मिक जीवन में उन्होंने मैक्सिमिलियन नाम लिया।  प्रारम्भ में उन्होंने मठ में ही रहकर अध्ययन किया। उसके बाद वे रोम गए और वहाँ उन्होंने दर्शनशास्त्र एवं ईशशास्त्र का गहरा अध्ययन किया। तब वहीं सन 1918 में उनका पुरोहिताभिषेक हुआ। उनके हृदय में माता मरियम के प्रति पुत्र तुल्य प्रेम उमड़ रहा था। अतः उन्होंने इस स्वर्गीय माँ की भक्ति विश्वासियों के बीच फ़ैलाने के लिए "निष्कलंका की सेना" नाम से एक मरियम संगत की स्थापना की।

तत्पश्चात वे अपने देश पोलैंड लौट आये। वहाँ  मरियम संगत के कार्य को आगे बढ़ाने, उसके द्वारा लोगों को सुसमाचार देने और उनका विश्वास निर्माण करने का कार्य प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्होंने "निष्कलंका का वीर"(The Knight of the Immaculate) नामक पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया। वारसो के निकट "नीपोकालनो" नामक शहर काथलिक जगत में मरियम भक्ति का केंद्र बन गया। वहाँ प्रति माह इस पत्रिका की डेढ़ लाख प्रतियाँ प्रकाशित होने लगी। सन 1930 में फादर कोल्बे मिशनरी के  रूप में जापान गए। वहाँ उन्होंने अथक परिश्रम करके मरियम संगत की स्थापना कीऔर अपनी पत्रिका प्रकाशन भी प्रारम्भ किया जिसके द्वारा वे लोगों के बीच ईश वचन का प्रचार करने लगे। सन 1936 में वे पोलैंड लौट आये। उन दिनों जर्मनी में हिटलर ने नाज़ी पार्टी की स्थापना की थी। और वह स्वयं वहाँ का तानाशाह बन गया था। हिटलर धर्म और ईश्वर का घोर विरोधी था। इसलिए वह लाखों ख्रीस्तीयों तथा यहूदियों को बंदी बनाकर हर तरह सताया करता था। इस तरह फादर कोल्बे को कठिन परिश्रम और भोजन की कमी के कारण टी.बी. की बीमारी हो गयी। फिर भी वे अपनी पत्रिका के द्वारा हिटलर और नाज़ी पार्टी का विरोध करने लगे। इस पर हिटलर के सिपाहियों ने फादर कोल्बे को बंदी बनाया और अन्य कैदियों के साथ यातना शिविरों में रख कठोर यातनाएँ दी। किन्तु उन्होंने प्रभु येसु  एवं मरियम के प्यार से उन सब कष्ट-पीड़ाओं को बड़े धैर्य के साथ झेला और उनके साथी कैदियों को हिम्मत बंधाते और दिलासा देते रहे। इस बीच उनके बंदीगृह से एक कैदी भाग गया। इस पर कठोर अफसरों ने इस कैदी के बदले उसके एक निर्दोष साथी को प्राणदंड की सजा सुनाई। तब वह असहाय कैदी अपनी निराश्रय पत्नी एवं नन्हें बच्चो की याद करते हुए फूट-फूट कर रौ पड़ा। इस पर दयालु फादर कोल्बे ने बड़ी हिम्मत के साथ उस अफसर से याचना की कि निर्दोष साथी के बदले वे स्वयं तैयार हैं। उन्होंने कहा- "आप मुझे ही प्राणदंड दे दें जिससे वह साथी बच सकें।" उस क्रूर अफसर ने किसी तरह फादर कोल्बे की बात मान की और उस साथी को दंड से छुटकारा मिला। तब कोल्बे को कई दिनों तक लगातार भूखा-प्यासा रखा गया। वे सारी यातनाओं को येसु और मरियम के प्रेम से ख़ुशी से सहते रहे और अपने साथियों को सांत्वना देते हुए प्रभु की स्तुति करते रहे। अंत में 14अगस्त 1941 को उन्हें विषैली दवा का इंजेक्शन दिया गया जिससे उनकी पावन आत्मा शीघ्र इस संसार की कैद से मुक्त होकर अपने प्रेमी प्रभु के चरणों में अमर जीवन का अनंत सुख पाने के लिए पहुँच गयी। 

सन 1971 में संत पिता पॉल छठे द्वारा फादर कोल्बे को धन्य घोषित किया गया और 10 अक्टूबर 1982 को संत पिता जॉन पॉल द्वितीय ने उन्हें संत की उपाधि से विभूषित किया। प्रतिवर्ष 14 अगस्त को कलीसिया में उनका पर्व मनाया जाता है। हम भी अपने जीवन में संत मैक्सिमिलियन कोल्बे के ईश्वर प्रेम और माँ मरियम की भक्ति से प्रज्वलित हृदय का अनुसरण करें और अपने जीवन को दूसरों के प्रति निःस्वार्थ प्रेम और त्यागपूर्ण सेवा के लिए पूर्णरूप से समर्पित करें।

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