संत मार्गरेट मरियम अलाकोक

येसु के पवित्रतम हृदय की प्रिय शिष्या संत मार्गरेट मरियम अलाकोक का जन्म फ़्रांस के बर्गन्डी प्रान्त के टीरो ग्राम में 22 जुलाई 1647 में हुआ। उनके पिता का नाम क्लाउड अलाकोक तथा माता का नाम फिलिबे था। क्लाउड न्यायालय में मजिस्ट्रेट थे। वे दोनों आदर्श दम्पति एवं उत्तम काथलिक थे। मार्गरेट उनकी एकलौती बेटी थी और पांच बच्चों में तीसरी थी। मार्ग्रेट का बचपन बड़े आनंदपूर्वक बीता। किन्तु जब वह आठ वर्ष की हुई, तब उनके पिता का अचानक देहांत हो गया। इससे उनके कोमल हृदय को बड़ा आघात लगा। कुछ साल बाद संत क्लेयर की धर्मबहनों के स्कूल में उन्होंने शिक्षा प्रारम्भ की और नौ वर्ष की अवस्था में परम प्रसाद ग्रहण किया। किन्तु कुछ ही दिनों बाद वे गठिया रोग से पीड़ित हो गयी और पंद्रह वर्ष की उम्र तक उन्हें अस्पताल में रहना पड़ा। इस बीच उनके दोनों बड़े भाइयों का भी देहांत हो गया। इस कारण वह और भी अधिक दुःखी हो गयी।
जब वह अस्पताल से घर लौटी, तब घर की परिस्थिति बिलकुल बदल गयी थी। उनके पिता की बहन और पति में मार्गरेट के परिवार की सारी सम्पति पर अधिकार जमा लिया था और उनकी माँ और  दोनों छोटे भाइयों के साथ गुलामों की तरह व्यवहार करते थे। अब मार्गरेट के साथ भी वही व्यवहार होने लगा। माँ उस अमानवीय व्यवहार के कारण बहुत बीमार रहने लगी। अपनी प्यारी माता के दुःख से मार्गरेट का हृदय ज्यादा दुखित हो गया। कई बार उन्हें भूखे रहना पड़ता था। किन्तु मार्गरेट ने उन सभी कष्टों को येसु के प्रेम से धैर्यपूर्वक सहन किया और कभी शिकायत नहीं की। अपनी प्यारी माँ की सेवा-सहायता करते हुए जब कभी संभव हो, वह एकांत में प्रभु से प्रार्थना करने का प्रयास करती थी। सन 1671 में प्रभु की प्रेरणा से वह पारे लेमोनियल के विसिटेशन कान्वेंट में भर्ती हो गयी और वहाँ बहुत ही नम्र, आज्ञाकारी एवं सादगीपूर्ण जीवन बिताने लगी। उन दिनों मठों में कठिन शारीरिक तपस्याओं की साधना करनी पड़ती थी जो मार्गरेट के लिए शक्ति के परे था। किन्तु प्रभु येसु ने प्रार्थना में उन्हें समझाया- "यदि तुम  ऐसे तपस्या-कार्यों से मुझे प्रसन्न कर सकोगी जिसे तुमने अपनी इच्छानुसार चुना है, तो यह तुम्हारी भूल है। धर्मसंघी की आत्मा में उपस्थित स्वेच्छाचरिता से मुझे घृणा होती है। स्वेच्छापूर्ण तपस्याओं और प्रायश्चितों से लदे जाने की अपेक्षा आज्ञापालन के अनुसार वह छोटी-मोटी सुख सुविधा ग्रहण करे तो मुझे प्रसन्नता होगी।" येसु की तीव्र प्रेरणा से वह समझ गयी कि उनकी आत्मा कोरे कागज़ के समान है जिस पर येसु अपने दुःखमय जीवन की छाप अंकित करना चाहते थे; अर्थात येसु का जीवन जो उन्होंने पूर्ण रूप से निर्धनता, एकाकीपन, नीरवता, आत्मत्याग एवं अटूट प्रेम में बिताया था। दूसरे ही वर्ष सुसमाचारी परामर्शों के व्रत धारण कर वह धर्मबहन बन गयी।
सन 1675 में प्रभुवर येसु ने अपनी इस प्रिय शिष्या को दर्शन दे कर अपने पवित्रतम हृदय के प्रेम के रहस्य प्रकट किये। येसु ने उससे कहा- "मेरा हृदय मनुष्यों के प्रति प्रेम से इस प्रकार धधक रहा है कि वह अपने प्रेम की ज्वालाएं अंदर दबाये नहीं रख सकता। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि वह तुम्हारे द्वारा मनुष्यों के बीच इस ज्वाला का प्रसार करके स्वयं को उस पर प्रकट करे जिससे वे  इस हृदय की अमूल्य निधियों से संपन्न हों, जो मैं तुम पर प्रकट करता हूँ। क्योंकि इसमें पवित्रता और मुक्ति की अनमोल कृपाएं विद्यमान हैं।" इसके बाद प्रभु में मार्गरेट के हृदय ले कर अपने पवित्रतम हृदय में रख लिया। फिर उसको धधकते रूप में निकालकर वापस मार्गरेट के सीने में रख दिया और कहा- "मैं तुम्हारे अंदर अपने प्रेम की धधकती ज्वाला की छोटी चिंगारी के रूप में तुम्हारे हृदय को रख देता हूँ। जीवन के अंतिम क्षण तक वह तुम्हारे अंदर मेरे प्रेम से जलता रहेगा। तुम ने अब तक मेरी दासी का नाम धारण किया। आज से मैं तुम्हें अपने "पवित्र हृदय की प्रिय शिष्या" का नाम देता हूँ।" आगे पवित्रतम संस्कार के पर्व के अठारवे में प्रभु ने फिर उन्हें दर्शन दिए और अपना ईश्वरीय हृदय दिखाते हुए कहा- "इस हृदय को देखो, जिसने मनुष्य को इतना प्यार किया और उनके प्रति अपने प्रेम के कारण स्वयं को पूर्णतया जर्जर व भस्मीभूत कर दिया। किन्तु इसके बदले में मुझे अधिकांश लोगों से केवल कृतघ्नता मिलती है; क्योंकि वे प्रेम के इस संस्कार में मेरा अपमान तथा अपवित्रीकरण का अपराध करते है; और मेरे प्रति उदासीनता एवं उपेक्षा मात्र दिखाते है। किन्तु मुझे सर्वाधिक पीड़ा इस बात से होती है कि जो हृदय मुझे आत्म समर्पण कर चुके है वे भी मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार करते है। इसलिए तुमसे मेरी मांग है कि ख्रीस्त देह के पर्व के अठारवे के पश्चात् आने वाले शुक्रवार को मेरे हृदय के आदर  में एक विशेष पर्व मनाया जाए; और उस दिन प्रायश्चित के मनोभाव से परम प्रसाद ग्रहण करे और विशेष आत्म समर्पण के द्वारा प्रायश्चित करे। उन पापों के लिए जो मेरे प्रेम के तिरस्कार के द्वारा किये जाते है। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मेरा हृदय उन सब पर अपना प्रचुर आशीर्वाद बरसाएगा जो मेरे हृदय का आदर करते है और दूसरों को इसके लिए प्रेरणा देते है। जब मार्ग्रेट ने इस बात के लिए अपनी असमर्थता प्रकट की तो प्रभु ने उसे बताया- "मैं तुम्हारा बल बनुँगा। तुम में जो त्रुटियाँ हैं, उनकी पूर्ति मैं करूँगा।"

यद्यपि प्रारम्भ में मार्गरेट के के अधिकारियों ने इस बात का विरोध किन्तु धन्य क्लाउड डी ला कोलुन्बीए नामक येसु समाजी पुरोहित की प्रेरणा से जिन्हे प्रभु ने अपनी प्रिय शिष्या की सहायता के लिए चुना था, अधिकारियों के हृदय बदल गए। उन्होंने मार्गरेट से क्षमा याचना की और प्रभु येसु की इच्छानुसार उनके पवित्रतम हृदय की भक्ति के प्रचार करने तथा विशेष पर्व की स्थापना के लिए सहमत हुए। संत मार्गरेट एवं फादर डी ला कोलुन्बीए की प्रेरणा एवं परिश्रम से पवित्रतम हृदय की भक्ति यथाशीघ्र चारों ओर फ़ैल गयी और धीरे-धीरे सम्पूर्ण कलीसिया में प्रचलित हो गयी।
ईश्वर ने संत मार्गरेट को एक महान दौत्य के लिए चुना था; अर्थात मानवजाति के प्रति येसु के असीम, अद्भुत प्रेम तथा कृपाओं की अपार निधि को प्रकट करना। किन्तु साथ ही उसे अपनी बाल्यावस्था से लेकर अंत तक भारी दुःख व अपमानो का सामना करना पड़ा जिसे उन्होंने प्रभु येसु के हाथों से बड़ी तत्परता से ग्रहण किया और स्वयं को येसु के साथ जीवित बलि के रूप में ईश्वर को अर्पित किया। उन्होंने कहा- "मैं एक जीवित मोमबत्ती की तरह निरंतर ईश्वरीय प्रेम से जलते रहना चाहती हूँ; ताकि प्रभु येसु को उनके अपार प्रेम के बदले प्रेम दे सकूँ।"
17 अक्टूबर 1690 को मार्गरेट का देहांत हुआ। सन 1920 में उन्हें संत घोषित किया गया। येसु के पवित्रतम हृदय की भक्ति के सात-साथ उनकी इस प्रिय शिष्या का नाम भी कलीसिया में प्रचलित हो गया। माता कलीसिया 16 अक्टूबर को संत मार्गरेट मरियम अलाकोक का पर्व मनाती है।

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