संत फ्रांसिस बोर्जिया

येसु समाज के विख्यात संत फ्रांसिस बोर्जिया का जन्म स्पेन देश के गांदिया प्रान्त में सन 1510 में हुआ। उनके पिता जुआन बोर्जिया स्पेन के सम्राट के अधीन गांदिया प्रान्त के प्रशासक थे। उनकी माता जुआना पोर्तुगल के आरागोन की राजकुमारी थी। वह बड़ी धार्मिक महिला थी। उसने फ्रांसिस के हृदय में बचपन से ही दृढ ईश्वर-विश्वास एवं ख्रीस्तीय सद्गुणों की नींव डाली। राज-परिवार के होने तथा फ्रांसिस के सुयोग्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अट्ठारह वर्ष की अवस्था में ही स्पेन के सम्राट चार्ल्स पंचम ने उन्हें अपना दरबारी एवं केटालोनिया का गवर्नर नियुक्त किया। कुछ ही वर्षों में फ्रांसिस एक कुशल प्रशासक एवं प्रबंधक के रूप में सम्राट एवं जनता के प्रिय बन गए। साम्राज्ञी इज़ाबेल भी उनसे अत्यंत प्रसन्न थी।
एक वर्ष बाद फ्रांसिस ने राज-परिवार की ही एक युवती एलेनोरा से विवाह किया जो साम्राज्ञी इज़ाबेल की अतिप्रिय सखी एवं परिचारिका थी। साथ ही वह बड़ी धर्मपरायण भी थी। वे दोनों उत्तम ख्रीस्तीय जीवन बिताते और सदैव दीन-दुःखियों की सहायता किया करते थे। फ्रांसिस शीघ्र ही शासन के हर कार्य में सम्राट का दाहिना हाथ बन गए। साम्राज्ञी इज़ाबेल भी उन्हें बहुत मानती थी। इस प्रकार उनका जीवन राजनैतिक दृष्टिकोण से बहुत ऊंचाइयों में पहुँच गया।
किन्तु सन 1538 में साम्राज्ञी इज़ाबेल का अप्रतीक्षित देहांत हो गया। सम्राट एवं सारा राज-दरबार शोक मग्न हो गए। साम्राज्ञी इज़ाबेल की मृत देह को ग्रानाडा में उनके पारिवारिक कब्रिस्तान में दफनाया जाना था। इस पर फ्रांसिस को यह विशेष जिम्मेदारी सौंपी गयी कि मृत देह को कब्र में रखने से पहले ताबूत को खोल कर देखें और उसे प्रमाणित करें। तदनुसार कब्रिस्तान में ताबूत खोला गया। उसमें साम्राज्ञी के जीर्ण-शीर्ण शरीर को देख कर फ्रांसिस का दिल दहल उठा। उनका अति सुन्दर चेहरा अत्यंत विकृत हो गया था। इस पर फ्रांसिस ने मन ही मन दृढ प्रतिज्ञा की कि वे किसी भी सांसारिक राजा की सेवा नहीं करेंगे; बल्कि राज-राजेश्वर ख्रीस्त की सेवा में अपने अम्पूर्ण जीवन समर्पित करेंगे। उन्होंने ईश्वर के आह्वान को पहचान लिया और येसु-समाजी पुरोहित बनने का निर्णय लिया।
फ्रांसिस अपने संकल्प को पूर्ण करने का उपाय सोच ही रहे थे कि सन 1546 में उनकी प्रिय पत्नी का देहांत हो गया। इसमें उन्होंने ईश्वर की इच्छा को पहचान लिया। येसु समाज की संस्थापक संत इग्नासियुस लोयोला को उन्होंने अपनी इच्छा बताई और वे बड़े प्रसन्न हुए। इस पर अपने बच्चों की शिक्षा एवं भविष्य का प्रबंध करने के पश्चात् फ्रांसिस ने लैटिन एवं ईश-शास्त्र का अध्ययन किया। सन 1548 में उन्होंने येसु समाज में प्रवेश लिया और सन 1551 में वे पुरोहित अभिषिक्त हुए। येसु समाज में उन्होंने शीघ्र पवित्रता में बड़ी प्रगति की। वे किसी भी प्रकार के पद या सम्मान से दूर रहना चाहते थे। किन्तु संत इग्नासियुस ने उन्हें पोर्तुगल एवं वेस्ट इंडीज में अपने प्रतिनिधि नियुक्त किया। सन 1565 में वे येसु समाज के महाध्यक्ष निर्वाचित हुए। अपने प्रशासन काल में उन्होंने अपनी संस्था की प्रगति एवं कलीसिया के निर्माण के लिए अनेकों कार्य किये। बालकों एवं युवकों की शिक्षा के लिए अनेक विद्यालयों, महाविद्यालयों, नव शिष्यालयों तथा सेमनरियों की स्थापना की और अपने प्रभावशाली प्रवचनों द्वारा लोगों का विश्वास बढ़ाया।

उन दिनों सारे यूरोप में धार्मिक पुनर्जागरण का आंदोलन चल रहा था। साथ ही सारे तुर्क देशों ने संगठित हो कर सभी ख्रीस्तीय देशों पर आक्रमण करने की योजना बनायीं। इस पर संत पिता पियूस पांचवे ने सभी ख्रीस्तीय राजाओं से आग्रह किया कि वे भी एक साथ संगठित होकर उनके आक्रमण से देश एवं कलीसिया की रक्षा करे। संत पिता ने फ्रांसिस बोर्जिया से भी अपनी इच्छा प्रकट की कि वे इस ख्रीस्तीय सेना के संचालन में सहायता करें। फ्रांसिस का स्वास्थ्य काफी ख़राब था और वे यात्रा करने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी संत की इच्छा को शिरोधार्य कर वे ख्रीस्तीय सेना अधिकारीयों की सहायता के लिए आगे बढ़े और उनके साथ सैनिक अभियान में चले गए। किन्तु कुछ ही दिनों की यात्रा के बाद उनका स्वास्थ्य और भी अधिक बिगड़ गया। अतः उन्होंने रोम लौटना चाहा। किन्तु रोम की ओर लौटते हुए उनकी हालत बहुत गंभीर हो गयी। फिर भी वे किसी तरह रोम पहुँच गए और वहाँ 19 अक्टूबर 1572 को उनका देहांत हो गया।
इस प्रकार संत फ्रांसिस बोर्जिया ने सारे संसार में प्रभु के राज्य की स्थापना एवं कलीसिया के निर्माण के लिए जीवनभर अथक परिश्रम किया और इसी लक्ष्य के लिए संत पिता के प्रति अपनी आज्ञाकारिता के कारण सहर्ष अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।
सन १६७० में संत पिता क्लेमेंट दसवें ने उन्हें संत घोषित किया। वे पुर्तुगल के संरक्षक संत माने जाते हैं। माता कलीसिया 10 अक्टूबर को संत फ्रांसिस बोर्जिया का पर्व मनाती है।

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