संत पियुस दसवें का पर्व

Saint Pius x

कलीसिया के आधुनिक युग के संतों में संत पिता पियुस दसवें विश्व-प्रसिद्ध हैं जिनकी पुण्य स्मृति आज भी करोड़ों विश्वासियों के हृदय में ताज़ी है। उनका जन्म इटली के वेनिस प्रान्त के रिएजे ग्राम में २ जून 1835 में हुआ। उनके पिता का नाम ज्योवान्नी सार्तो एवं माता का नाम मार्गरीता सानसन था। शिशु को बपतिस्मा में जोसफ नाम दिया गया। उनके माता-पिता निर्धन थे, किन्तु वे बड़े ही धर्मपरायण थे; और उनका जीवन ईश्वर में विश्वास एवं प्रेम से पूर्ण था। जोसफ उनका ज्येष्ठ पुत्र था। माता-पिता प्यार से उसे बेपी कहा करते थे।  परिवार में जोसफ के अलावा पांच भाई-बहन और थे। 

प्राथमिक शिक्षा सफलतापूर्वक पूरी करने के बाद वे निकट के नगर कैस्टेलफ्रांको के उच्च विद्यालय में भेजे गए। बेपी को भी स्कूल से लौटने के बाद घर के कामो में माँ की सहायता के लिए छोटे-मोठे काम करने पड़ते थे। दस वर्ष की अवस्था से ही वे पल्ली पुरोहित की सहायता करने लगे और पुरोहित भी बेपी की शिक्षा में उनकी मदद करते थे। 15 वर्ष की आयु में ही बेपी ने ईश्वर की बुलाहट को पहचान लिया था और पुरोहित बनने के लिए सेमिनरी में प्रवेश करने की इच्छा प्रकट की। गुरुकुल के प्रथम वर्ष से ही वे अपनी प्रखर बुद्धि, तीव्र स्मरण शक्ति, असाधारण क्षमता और अनुशासन प्रियता के कारण अधिकारीयों तथा साथियों की आँखों का तारा बन गए। सात वर्षो में बेपी की गुरुकुल की शिक्षा पूर्ण हुई और वे गुरुकुल में सर्वोच्च रहे। सन 1858 में मात्र तेईस वर्ष की अवस्था में उनका पुरोहिताभिषेक हुआ। 

सन 1875 में वे ट्रेवीजो महा गिरजाघर में विधान- शास्त्री एवं गुरुकुल के निर्देशक नियुक्त हुए। ऐसे उच्च पद पर भी वे दीन और विनम्र बने रहे। सन 1884 में संत पिता लियो 13 वें ने उन्हें मांतुआ के धर्माध्यक्ष नियुक्त किया। यद्यपि वे इस पद को स्वीकार करना नहीं चाहते थे, किन्तु सन्त पिता के आग्रह को ईश्वर की इच्छा समझ कर उन्होंने बड़ी दीनतापूर्वक इसे स्वीकार किया। 

सन 1893 में वे कार्डिनल तथा वेनिस के कुलपति नियुक्त हुए। विनम्र हृदय बिशप सार्तो यह समाचार पा कर सन्न रह गए। किन्तु संत पिता के आदेश को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। अतः उन्होंने रोम जा कर संत पिता से कार्डिनल की लाल टोपी ग्रहण की और मांतुआ लौट आये। वहाँ भी लोगो ने उन सरल हृदय, गरीबों के पिता कार्डिनल सार्तो का भव्य स्वागत किया। 

जुलाई 1903 में संत पिता लियो 13 वें का देहांत हुआ, और नए संत पिता के निर्वाचन के लिए कार्डिनल सार्तो को रोम जाना पड़ा। वहाँ उनकी प्रतिक्रियाओं के बिलकुल विपरीत कार्डिनल सार्तो संत पिता निर्वाचित हुए। परिणाम सुनकर उनकी आँखों में आंसू आ गए। धीरे से उन्होंने कहा- "प्रभु, मैं इस पद के सर्वथा अयोग्य हूँ, फिर भी आपकी इच्छा पूरी हो।" उन्होंने  पियुस दसवें नाम धारण किया। 

पवित्रतम संस्कार के प्रति उनका विशेष प्रेम तथा भक्ति विश्व-विख्यात है। वे परम प्रसाद को प्रलोभनों के बीच रक्षा का सर्वश्रेष्ठ साधन मानते थे। उन्होंने कहा- "बच्चे ज्योंही सोचने समझने योग्य हो जाएं, उन्हें भी परम प्रसाद दिया जाना चाहिए तथा विश्वासियों को यथासंभव प्रतिदिन परम प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।" इस कारण उन्हें परम प्रसाद का संत पिता कहा जाता है।

सन 1914 में यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध भड़क उठा। इससे उनके करुण कोमल हृदय पर गहरा आघात हुआ और इस शांति-प्रिय, सर्वप्रेमी पिता ने कहा- "हमारा ह्रदय असह्य दुःख और पीड़ा से फटा जा रहा है।" वे अपने जीवन के अंतिम दिनों तक भी येसु एवं उसकी कलीसिया के लिए कार्य करते रहे। अंत में 20 अगस्त 1914 को 79 वर्ष की अवस्था में उन्होंने इस संसार से विदा ली। उनकी मृत्यु के समय रोम के धर्माध्यक्ष ने कहा-"संसार का एक महान उज्जवल आत्मा इस रक्त-रंजित संसार से उठ गया।"

उनके देहांत के 37 वर्षो बाद संत पेत्रुस की वेदी पर उनकी ताबूत खोली गयी। सब उपस्थित जन समुदाय की आँखे यह देखकर फटी की फटी रह गयी। इतने वर्षो पश्चात् भी संत का शरीर अपने सुन्दर मेषपालीय परिधान में अक्षुण, दिव्य शांति से ओत-प्रोत सोया पड़ा था। संत पिता पियुस ग्यारहवें ने उन्हें धन्य घोषित किया और 19 मई 1954 में पियुस बारहवें के द्वारा उन्हें संत घोषित किया गया। उनका पर्व कलीसिया में 21 अगस्त को मनाया जाता है।

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