संत अल्फोन्सुस रोड्रीगस

येसु समाजी संत अल्फोन्सुस का जन्म दक्षिणी स्पेन के सगोदिया प्रान्त में सन 1533 में हुआ। उनके माता-पिता दोनों शिक्षित नहीं होते हुए भी बड़े धार्मिक थे। पिता भेड़ पालक एवं ऊन के व्यापारी थे। अल्फोन्सुस उनके कनिष्ठ पुत्र थे। विद्यालय में उनकी शिक्षा समाप्त भी नहीं हुई थी कि अचानक उनके पिता का देहांत हो गया। इस पर उनकी माँ ने व्यापार की साड़ी जिम्मेदारी अल्फोन्सुस के हाथों में सौंप दी। अतः उन्होंने अपना अध्ययन कार्य छोड़ दिया और व्यापार की बागडोर सम्भाल ली। अपनी माँ की इच्छानुसार उन्होंने विवाह भी कर लिया। उन्हें एक पुत्र और पुत्री भी प्राप्त हुए। उनका पारिवारिक जीवन सुखी था।
किन्तु ईश्वर की योजना कुछ और ही थी। अचानक बिलकुल अप्रतीक्षित रूप से उनकी प्रिय पत्नी एवं एकलौते पुत्र और पुत्री की किसी महामारी से अकाल मृत्यु हो गयी। इस आकस्मिक वियोग से अल्फोन्सुस का हृदय अत्यंत शोकाकुल हो उठा। उन्होंने प्रार्थना के द्वारा प्रभु के चरणों में शरण ली। बिना देरी उनको अनुभव हुआ कि उनके जीवन के लिए ईश्वर की कोई विशेष योजना है। अतः ईश्वर की योजना जानने के लिए वे निरंतर प्रार्थना एवं तपस्या करने लगे। धीरे-धीरे उन्हें अनुभव हुआ कि ईश्वर उन्हें धार्मिक जीवन के लिए बुला रहे हैं।
अतः अल्फोन्सुस  ने 39 वर्ष की अवस्था में अपनी प्रिय माँ एवं स्वजनों को त्याग दिया और धर्म-बंधु बनने की इच्छा से येसु-समाज में प्रवेश लिया। अपने प्रशिक्षण की समाप्ति पर उन्होंने नियमानुसार धार्मिक व्रत धारण किये और धर्मबंधु बन गए। तब अधिकारियों ने उन्हें सेवा कार्य के लिए मजोरका नामक द्वीप में भेज दिया जहाँ माउंट सायन नामक सेमिनरी में द्वारपाल के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। इस विनीत सेवा को उन्होंने बड़ी ख़ुशी से स्वीकार किया और बड़े प्रेम, शिष्टाचार एवं आज्ञाकारिता के मनोभाव के साथ संपन्न करने लगे। जब कभी द्वार पर घंटी बजती थी, वे स्वयं से कहा करते थे कि आगन्तुक के रूप में स्वयं प्रभु येसु ही अंदर आना चाहते हैं। "प्रभु, मैं आ रहा हूँ" कहते हुए वे शीघ्र ख़ुशी से आगन्तुक का स्वागत करने जाते और आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की सेवा बड़ी तत्परता एवं प्रसन्नता के साथ करते थे, मानों सभी आगन्तुक उनके लिए स्वयं प्रभु येसु ही हो। सेमिनरी में आने जाने वाले सभी लोग उनके इस व्यवहार से अत्यंत प्रभावित होते थे। इस प्रकार उन्होंने 35 वर्षों तक कार्य किया। सेमिनरी के सभी प्राध्यापक,पुरोहितगण तथा विद्यार्थी भी इस दीन धर्मबन्धु को बहुत प्यार और सम्मान देते थे। संत पीटर क्लेवर जो इसी सेमिनरी के छात्र थे और दक्षिणी अमेरिका में मिशनरी बने, अल्फोन्सुस के परम मित्र थे। यद्यपि अल्फोन्सुस को कोई उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं थी, प्रभु ने अपने इस दीन सेवक को पवित्रात्मा की प्रज्ञा, विवेक, अन्तर्दृष्टि एवं निरंतर ईश्वरानुभव के वरदानों से अनुग्रहित किया था। लोगों ने धीरे-धीरे इस विनीत धर्मबंधु में छिपी महान पवित्रता को पहचान लिया और उनके पास परामर्श के लिए आने लगे। फिर भी वे सदैव अत्यंत विनीत ही बने रहे; और उनकी बाल-सुलभ सरलता एवं निष्कपटता तथा माँ मरियम के प्रति उनकी पुत्र-तुल्य भक्ति से सभी आकर्षित होते थे। उन्होंने "निष्कलंक माता मरियम के प्रति लघु प्रार्थना" नामक पुस्तिका की रचना की और स्वयं ही उनकी अनेक प्रतियाँ लिखकर दूसरों को दिया करते थे।  इस प्रार्थना पुस्तिका के द्वारा वे बहुत लोक-प्रिय हो गए।

अन्त में 31 अक्टूबर सन 1617 को प्रभु के इस विनीत सेवक धर्मबन्धु अल्फोन्सुस का देहांत हुआ। 15 जनवरी 1888 को सन्त पिता लियो 13वें द्वारा उनके मित्र संत पीटर क्लेवर के साथ उन्हें सन्त घोषित किया गया।  सन्त अल्फोन्सुस कहा करते थे- "हमारे दैनिक जीवन के कष्ट-पीड़ाओं रुपी क्रूस ही हमारे लिए स्वर्ग का मार्ग है।" माता कलीसिया सन्त अल्फोन्सुस का पर्व 31 अक्टूबर को मनाती है।

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