विल्लानोवा के संत थॉमस

संत थॉमस के जीवन काल में ही उन्हें गरीबों का पिता एवं दान-दाता कहा जाता है। उनका जन्म स्पेन देश के विल्लानोवा नगर में सन 1488 में हुआ। उनके पिता अत्यंत धर्मपरायण एवं दान-शील थे। वे चक्की चलने का कार्य करते थे और हर शुक्रवार की पूरी कमाई वे गरीबों को बाँटा करते थे। इसके अलावा वे प्रतिदिन के अपने भोजन का एक हिस्सा गरीबों को  देते थे। गरीब किसानों को वे बीज तथा पैसों का क़र्ज़ भी दिया करते थे। बालक थॉमस अपने पिता की इस दानशीलता एवं गरीबों के प्रति प्रेम से अत्यंत प्रभावित हुए और बचपन से ही पिता का अनुकरण करने लगे।
थॉमस की बुद्धि बहुत ही तीव्र थी। अतः पिता ने उनकी उच्च शिक्षा का प्रबंध किया। उन्होंने बड़े उत्साह एवं परिश्रम से अध्ययन किया और विश्वविद्यालय की उपलब्धियाँ हासिल की। उनकी विशेष योग्यता को देखते हुए 26 वर्ष की आयु में ही सलामांका विश्वविद्यालय के व्याख्याता-पद पर उनकी नियुक्ति हुई। किन्तु दो ही वर्ष के बाद उन्होंने अध्यापन कार्य त्याग दिया और सलामांका में संत अगस्तिन के संघ में भर्ती हो गए और पुरोहित बने। बिना देरी उनका नाम विद्वान एवं ईश्वर प्रेरित उपदेशक के रूप में होने लगा। उनके उपदेश सुनकर अनेकों कठिन पापियों का मन परिवर्तन हुआ करता था। लोग दूर-दूर से उनके उपदेश सुनने के लिए आया करते थे। स्पेन में सभी ओर उनकी मांग होने लगी। 
उन दिनों स्पेन के सम्राट चार्ल्स पंचम का सारे यूरोप में शासन था। वे थॉमस की व्यक्तिगत पवित्रता के कारण उनका बड़ा सम्मान करते थे और उन्होंने थॉमस को अपने दरबार के परामर्शदाता एवं उपदेशक बनाया। कुछ साल पश्चात् थॉमस अपने संघ के प्रोविंशियल नियुक्त हुए। उन्होंने संत अगस्तिन के मिशनरियों के प्रथम दल को सुसमाचार प्रचार के लिए मेक्सिको भेजा। सन 1544 में सम्राट ने उन्हें वलेंसिया का महाधर्माध्यक्ष नियुक्त किया। यद्यपि थॉमस ऐसे पद को बिलकुल नहीं चाहते थे; किन्तु आज्ञाकारिता के कारण उन्हें यह पद स्वीकार करना पड़ा। महाधर्माध्यक्ष के पद पर रहते हुए उन्होंने सभी विश्वासियों के नैतिक एवं धार्मिक जीवन के सुधर पर ज़ोर दिया। जो धनराशि उन्हें अपने आवास के खर्च के लिए उपहार में मिली, उसे उन्होंने वहाँ के क्षति-ग्रस्त सार्वजनिक अस्पताल के पुनर्निर्माण के लिए दे डाला। गरीब मजदूर माता-पिता के बच्चों के लिए उन्होंने एक बाल भवन की स्थापना की।
महाधर्माध्यक्ष थॉमस स्वयं अत्यंत सादा एवं निर्धनता का जीवन बिताते थे। धर्मप्रान्त की जो वार्षिक आय होती थी, उसका दो तिहाई भाग वे भिक्षा दान में खर्च करते थे। प्रतिदिन पाँच सौ गरीबों को वे मुफ्त में भोजन दिलाते थे; और आर्थिक कठिनाइयों में पड़े हुए लोगों की चुपके से मदद किया करते थे। गरीब मिस्रियों को काम के लिए औज़ार वे मुफ्त में दिला देते थे ताकि वे अपनी जीविका कमा सकें। संक्षेप में उनका जीवन परोपकार एवं आत्म-दमन के कार्यों का एक निरंतर सिलसिला था।

ईश्वर ने धर्माध्यक्ष थॉमस को बीमारों को चंगा करने एवं कठोर पापियों के मन परिवर्तन के वरदानों से विभूषित किया था। सन 1555 में इस पवित्र धर्माध्यक्ष का देहांत हुआ; और सन 1658 में संत पिता अलेक्जांडर सातवें ने उन्हें संत घोषित किया। संत थॉमस का कथन था -"उत्तम जीवन ही सबसे बड़ी समझदारी है। यदि आप में यह समझदारी है तो आप सर्वाधिक ग्यानी व्यक्ति होंगे। 
माता कलीसिया उनका पर्व 22 सितम्बर को मनाती है।

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