लीमा की संत रोज़

St Lima of Rose

अमेरिका के इतिहास में संत रोज़ का विशिष्ट स्थान है। वही पहली अमेरिकी महिला है जो कलीसिया में संत घोषित की गयी। वह विशेषकर अमेरिकी बच्चों की संत है, नयी दुनिया का प्रथम पुष्प। वह प्रभु की प्रिय दुल्हन थी जिनको उन्होंने अपने साथ संसार के पापों का प्रायश्चित करने के लिए चुना था।

रोज़ का जन्म दक्षिणी अमेरिका के पेरू नामक राज्य की राजधानी, लीमा नगर में सन 1586 में हुआ। वह अपने परिवार के ग्यारह बच्चों में सातवीं थी। बपतिस्मा में उसे ईसाबेल नाम दिया गया था। किन्तु बच्ची अत्यंत सुन्दर थी और खिले हुए गुलाब जैसी आकर्षक थी। अतः उसकी माँ उसे रोज़ कहकर पुकारने लगी। आगे उसके दृढ़ीकरण संस्कार के दिन उसे यही नाम दिया गया और यह उसका वास्तविक नाम हो गया। रोज़ के माता-पिता उत्तम ख्रीस्तीय थे और परिवार में नियमित रूप से दैनिक प्रार्थना होती थी। रोज़ के नन्हे हृदय में उस प्रार्थना का इतना प्रभाव पड़ा था कि वह अपनी हर आवश्यकता में प्रभु येसु एवं माता मरियम से प्रार्थना करती थी। 

नन्ही रोज़ का स्वास्थ्य बहुत ही कमज़ोर था। अतः उसकी माँ को सदैव उसका विशेष ध्यान रखना पड़ता था। रोज़ के माता-पिता बहुत निर्धन थे। इसलिए रोज़ को बाल्यावस्था से ही माता-पिता एवं भाई- बहनों के साथ परिवार की जीविका के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता था। पहले तो वह अपनी माँ के साथ घर के कामों में हाथ बंटाती थी। बाद में वह सिलाई, बुनाई तथा बागवानी भी करने लगी ताकि परिवार के लिए कमाई कर सकें। इन कार्यो के बाद जो समय बचता उसे वह प्रार्थना में बिताया करती थी। येसु एवं मरियम को वह अपने सर्वश्रेष्ठ मित्र मानती और प्रार्थना के समय उनसे वार्तालाप करती थी। 

रोज़ ने अपने घर के बगीचे में एक छोटी सी कुटिया बनवा ली थी जहाँ एकांत में रह कर वह प्रार्थना करती थी। माँ मरियम के प्रति उसके हृदय में शिशु-तुल्य प्यार था। और वह अपनी हर कठिनाई में इस माँ से प्रार्थना करती और माँ मरियम उसकी समस्याओं को हल कर देती। अतः वह अपने को माँ मरियम का गुलाब कहा करती थी। 

रोज़ रात को घंटो तक अपनी कुटिया में प्रार्थना में लीन रहती थी। इस प्रकार प्रार्थना करते हुए प्रभु कई बार उसे दर्शन देते और स्वर्गीय आनंद से पुलकित कर देते थे। जब वह करीब 20 वर्ष की हुई, तब उसे किसी मठ में प्रवेश करने की इच्छा हुई ताकि वह दुनिया की आँखों से चिप कर प्रार्थना एवं तपस्या का जीवन बिता सकें। इस विषय में ईश्वर की इच्छा जानने के लिए वह जब प्रार्थना कर रही थी, तब माँ मरियम के द्वारा उसे यह अनुभव हुआ कि मठ में नहीं जा कर घर में ही रहे और प्रार्थना और तपस्या का बिताये। तब उसने डोमिनिक-समाजी पुरोहितों के अध्यक्ष की अनुमति से संत डोमिनिक के तृतीय संघ का वस्त्र धारण कियाऔर उनके नियमों का पालन करते हुए घर में ही रहने लगी। साथ ही ईश्वर की इच्छा को पहचान कर गरीबों दुःखियों बीमारों की सेवा करने लगी, विशेषकर गरीब आदिवासियों की जो उनसे मिलने आते थे। इस प्रकार उसने अपने जीवन के पंद्रह वर्ष बिताये और उसकी पवित्रता की चर्चा लोगों के बीच होने लगी। 

अंत में सं 1617 ईस्वी के 24 अगस्त को प्रभु-प्रेम के लिए कठिन पीड़ा सहते हुए उसने अपने आपको होम बलि के रूप में प्रभु के चरणों में अर्पित कर दिया और अनंत पुरुस्कार पाने के लिए अपने पिता के राज्य में पहुँच गयी। उस समय उसकी आयु केवल 31 वर्ष थी। रोज़ के देहांत का समाचार पा कर सम्पूर्ण लीमा नगर के लोग उसके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े। उसके दर्शन मात्र से अनेको लोगों को रोगों से चंगाई तथा अन्य वरदान भी प्राप्त हुए। रोज़ के पार्थिव शरीर को डोमिनिक समाजी गिरजे में कब्र में रखा गया।  सन 1671 में संत पिता क्लेमेंट 10वें ने उसे संत एवं लैटिन अमेरिका की संरक्षिका घोषित किया। उनका पर्व 23 अगस्त को मनाया जाता है।

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