धर्माध्यक्ष के रूप में उन्होंने, विनम्र, प्रार्थनामय एवं तपस्यापूर्ण जीवन जिया। वहाँ के अधिकांश लोग मूर्तिपूजक थे। मार्टिन अपने तीव्र विश्वास एवं प्रवचनों तथा आदर्श जीवन के द्वारा उन लोगों का मन परिवर्तन करने में सफल हुए; और इस कारण वे टूर्स के प्रेरित कहलाये। उनका धर्माध्यक्षीय शासन न्याय एवं शांति पर आधारित था। फिर भी एरियन तथा अन्य विधर्मियों ने उनके कार्य में विविध प्रकार की बाधाएं कड़ी की। किन्तु मार्टिन की प्रार्थना एवं पवित्र जीवन के संमुखब वे टिक नहीं सके। शहर के कोलाहल से बचने के लिए मार्टिन कुछ दूर देहात में एक छोटी सी कोठरी बनवा कर उसमे रहने लगे। धीरे- कई मठवासी वह उनके साथ रहने आये और वहाँ फ़्रांस का दूसरा मठ बन गया। ईश्वरीय राज्य के प्रसार के लिए धर्माध्यक्ष मार्टिन ने निरंतर कठिन परिश्रम किया और अंत 11 नवम्बर 397 को 80 वर्ष की आयु में वे अनंत पुरुस्कार के लिए अपने पिता के निवास में बुला लिए गए।
पश्चिमी कलीसिया में सन्त मार्टिन ही ऐसे प्रथम सन्त थे जो शहीद नहीं होते हुए भी उन्हें सार्वजानिक रूप से सम्मान दिया जाता है। अनेक गिरजाघर उनके नाम पर समर्पित हैं जहाँ उनकी विशेष भक्ति की जाती है। कई शहर भी उनके नाम से पुकारे जाते है।
माता कलीसिया सन्त मार्टिन का पर्व 11 नवम्बर को मनाती है।

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