अस्सीसी के संत फ्रांसिस

कलीसिया के असंख्य संतों के बीच संत फ्रांसिस अस्सीसीएक ऐसे अनुपान व्यक्तित्व हैं जो प्राणी-मात्र के प्रति अपने कोमल प्रेम तथा विश्व बंधुत्व के कारण न केवल ख्रीस्तीय जगत में बल्कि अन्य सभी धर्मावलम्बियों द्वारा भी सार्वभौम रूप से सम्मानित हैं। वे शांति-दूत के नाम से विश्व-विख्यात हैं।
उनके जीवन की प्रमुख विशेषता यह थी कि उन्होंने मुक्तिदाता ख्रीस्त के सुसमाचार को अपने ह्रदय की गहराइयों तक अपनाया और हर बात में उनका पूर्ण अनुसरण करते हुए येसु के इतने सामान बन गए कि वे कलीसिया के द्वितीय ख्रीस्त कहलाते है।
फ्रांसिस का जन्म इटली के अस्सीसी नगर में सन 1182 में हुआ। उनके पिता पीटर बर्नाड कपडे के धनी व्यापारी थे और माँ पीका बड़ी धार्मिक महिला थी। माँ ने फ्रांसिस के हृदय में प्रारम्भ से ही गहरे ईश्वर प्रेम एवं विश्वास की नींव डाली। साथ ही प्रार्थना करना, गरीबों के प्रति प्रेम एवं दया करना सिखाया। उनका बचपन बड़ा ही आनन्दायक रहा। युवावस्था के प्रारम्भ में वे बड़े मन मौजी एवं आडम्बर-प्रिय थे। एक वीर योद्धा बनना उनका सपना था। इस उद्देश्य से वे अपने साथियों के साथ क्रूस-युद्ध में भाग लेने गए। किन्तु मार्ग में ही वे बीमार हो गए। एक रात को निद्रा-विहीन होकर जब वे करवटें बदल रहे थे, तब उन्होंने किसी को उनका नाम लेकर पुकारते सुना- "फ्रांसिस, किसकी सेवा करना उत्तम हैं? स्वामी या दास की?" 'फ्रांसिस ने कहा- "स्वामी की।" तो तुम क्यों दास की सेवा कर रहे हो?" फ्रांसिस समझ गए कि यह वाणी स्वर्ग से आयी है। सुबह होते ही वे अपने शहर वापस गए। उन्होंने अब जीवन की क्षणभंगुरता और असारता को समझ लिया और अपना अधिकांश समय प्रार्थना में बिताने लगे।
एक दिन जब सड़क पर उन्हें एक कोढ़ी मिला,  फ्रांसिस ने प्रभु येसु का स्मरण करते हुए उसका आलिंगन किया और उसके हाथों को चुम लिया। वह स्वयं दरिद्रों का-सा जीवन बिताने लगे और निकट के अस्पताल में जाकर रोगियों तथा कोढ़ियों की सेवा करने लगे।
अस्सीसी शहर के बाहर "सान दामियानो" नामक एक छोटा सा गिरजाघर था जहाँ फ्रांसिस देर तक प्रार्थना में लीन रहते थे। एक दिन अचानक वहाँ की क्रूस-मूर्ति सजीव हो गयी और येसु ने फ्रांसिस से कहा, "मेरे गिरजे की मरम्मत करो क्योंकि वह जीर्ण होकर गिर रहा है।"
येसु के शब्दों का एक विशेष अर्थ था जिसे फ्रांसिस समझ न पाया। अतः उन्होंने अपने पिता की अनुमति के बिना दूकान से काफी पैसा लाकर पुरोहित को दिया  ताकि उस गिरजे की मरम्मत हो सकें। इस पर उनके पिता ने क्रोधित होकर धर्माध्यक्ष के पास शिकायत की। धर्माध्यक्ष ने फ्रांसिस से कहा कि पिता का पैसा उन्हें लौटा दे। फ्रांसिस ने तुरंत धर्माध्यक्ष एवं अन्य उपस्थित लोगों के सामने न केवल पिताजी का धन लौटाया बल्कि अपना पहना हुआ वस्त्र  दे दिया, यह कहते हुए कि अब से पीटर बर्नाड नहीं, स्वर्गीय पिता ही मेरे पिता होंगे। वहाँ से बाहर निकल कर फ्रांसिस ने किसिस गरीब किसान से एक चोगा लेकर पहना और कमर में एक रस्सी बांध लिया। बाद में गिरजा की मरम्मत के लिए सब सामान भीख मांगकर जुटाया और स्वयं काम में लग गए। यह देख कर लोगों ने उनकी सहायता की और गिरजे की मरम्मत का कार्य पूर्ण हुआ।
अस्सीसी के बाहर पोरस्युंकूला नामक एक छोटा गिरजाघर जहाँ बहुधा फ्रांसिस प्रार्थना करने जाय करते थे। एक दिन पवित्र मिस्सा में उन्होंने सुसमाचार के ये शब्द सुने, "अपने फेंटे में सोना, चांदी या पैसा न रखो। रास्ते के लिए न झोली, न दो कुरते, न जुते, न लाठी ले जाओ।" फ्रांसिस ने कहा "यही मैं चाहता था।" तब से फ्रांसिस सुसमाचारी सलाह का अक्षरशः पालन करने लगे। उनकी इस कठोर जीवन चर्या को देखकर सबसे पहले उनके एक धनी मित्र बेर्नाड उनकी और आकर्षित हुए। उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति बेचकर गरीबों में बाँट दी और फ्रांसिस के अनुयायी बन गए। पोरस्युंकूला के निकट एक छोटी सी कुटिया में रहते हुए फ्रांसिस और साथी, तपस्या और परोपकार का जीवन बिताते थे। वे दूसरे के खेत में काम करते और अपनी जीविका के लिए जितनी आवश्यकता है, उतना ही भोजन लेते थे। कुछ ही वर्षों में फ्रांसिस के तीव्र ईश्वर-प्रेम, परोपकार, प्रार्थना, तपस्यामय जीवन को देखकर अनेक लोग उनके साथ रहकर प्रभु के सच्चे अनुयायी बनने के लिए आये। दस वर्षों में उनकी संख्या पांच हज़ार तक हो गई। उनमे सब प्रकार के लोग सम्मिलित थे-  याजक-अयाजक, शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्धन आदि। जब भाइयों की संख्या बढ़ गयी तो सबके लिए एक सामान्य नियम की आवश्यकता हुई।
अतः फ्रांसिस ने एक नियमावली की रचना की जो वास्तव में पूर्णता प्राप्ति के लिए प्रभु की शिक्षा और आदेशों का सारांश ही था। इस नियमावली के लिए संत पिता की स्वीकृति लेना आवश्यक था। फ्रांसिस अपने प्रथम ग्यारह साथियों के साथ रोम गए। वहाँ उन्हें अस्सीसी के धर्माध्यक्ष मिले जिन्होंने उनका परिचय एक कार्डिनल से कराया जो संत पिता के विशेष मित्र थे। ईश्वर ने भी एक स्वप्न के द्वारा संत पिता को बताया कि कलीसिया के पुनरुद्वार के लिए वे फ्रांसिस को माध्यम बनाना चाहते हैं। अतः संत पिता इन्नोसेंट तृतीय ने फ्रांसिस के संघ को स्वीकृति प्रदान की। साथ ही उन्होंने इसे सब देशों में सुसमाचार प्रचार करने की अनुमति दी।
फ्रांसिस अस्सीसी नगर तथा आसपास के सभी शहरों एवं गाँवों में घूम-घूमकर ईश्वर के प्रेम, पश्चाताप, पाप-क्षमा आदि विषयों पर ऐसे प्रवचन देते थे कि बड़ी संख्या में लोग मंत्र-मुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। अस्सीसी नगर की क्लारा नामक कुलीन युवती उनसे बहुत अधिक प्रभावित हुई और उन्होंने अपना जीवन पूर्ण रूप से प्रभु की सेवा में अर्पित करने का संकल्प किया। क्लारा का निवेदन स्वीकार कर फ्रांसिस ने स्त्रियों के लिए फ्रांसिस्कन संघ की दूसरी शाखा की स्थापना की। इसी प्रकार विवाहित लोगों ने जो उत्तम पारिवारिक जीवन बिताना चाहते थे, फ्रांसिस ने मांग कि की वे उन्हें कोई सरल मार्ग बताये जिससे वे परिवार में रहते हुए अच्छे ख्रीस्तीय बने रह सकें। फ्रांसिस ने उन लोगों के लिए भी एक संघ की स्थापना की जो संत फ्रांसिस का तृतीय संघ कहलाता है। इसके द्वारा वे भी प्रार्थना, परोपकार एवं तपस्या का जीवन बिताते हुए ईश्वर प्रेम के मार्ग में अग्रसर होने लगे। परिणाम-स्वरुप समाज में प्रचलित बुराइयाँ काम हो गयी और लोगों में आपसी-प्रेम, मेल-मिलाप एवं शांति की भावना विकसित हुई। फ्रांसिस के अनुयायियों ने पुरे यूरोप तथा अफ्रीका  देशों में जाकर लोगों को ख्रीस्तीय शिक्षा दी जिससे कलीसिया में नई जागृती एवं नवीनीकरण संभव हो सका।
संत फ्रांसिस मानव-मात्र से ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी, पेड़-पौधे एवं सम्पूर्ण प्रकृति में ईश्वर के दर्शन करते थे; और सबको अपने भाई-बहन मानकर प्यार करते थे और उनके साथ ईश्वर का गुणगान करते थे। जंगल के पशु-पक्षी एकत्र होकर प्रवचन सुनते और उनके साथ ईश्वर की स्तुति करते थे। चरनी में जन्मे बालक येसु के प्रति उनकी भक्ति असाधारण थी। ख्रीस्त जन्म मनाने का एक नया तरीका उन्होंने प्रारम्भ किया। सन 1223 की ख्रीस्त जयंती ओर उन्होंने ग्रेचियो ग्राम की एक पहाड़ी गुफा में अपने एक मित्र की मदद से एक वास्तविक गौशाला तैयार किया  की पूजन- विधि में लेने के लिए आस-पास के लोगों को आमंत्रित किया। अर्ध-रात्रि की पवित्र मिस्सा में सुसमाचार पाठ के पश्चात् फ्रांसिस ने बालक येसु की छोटी सी प्रतिमा को लेकर चरनी में रख दिया। तब उन्होंने चरनी में जन्मे बालक येसु के अद्भुद प्रेम और गरीबी पर बड़े ही हृदयहारी प्रवचन दिया।
बाद में फ्रांसिस ने येसु की प्रतिमा को अपनी बाहों में उठाया और चुम्बन किया। तब उसे वापस चरनी में रख दिया। लोग यह देखकर आश्चर्य चकित रह गए कि चरनी में जीवित बालक येसु विराजमान थे जो उनकी ओर देखकर मुस्कुरा रहे थे। तब से लेकर फ्रांसिस समाजी धर्मबंधु इस प्रकार ख्रीस्त जयंती मनाने लगे और धीरे-धीरे यह सुन्दर प्रथा सम्पूर्ण कलीसिया में प्रचलित हो गयी।
अपने अंतिम वर्षों में प्रभु के दुःखभोग में सहयोगी बनने की प्रंसिस की इच्छा तीव्र हो गयी। उन्होंने संस्था के संचालन का भार अपने उत्तराधिकारी को सौंपा। वह अलवेरना पहाड़ी की एक गुफा में रहते हुए चालीस दिन तक उपवास, प्रार्थना एवं तपस्या करते रहे। 14 सितम्बर सन 1224 को प्रार्थना में तल्लीन फ्रांसिस ने दिव्य प्रकाश से चमकते हुए एक सेराफिम दूत को देखा जिसके पंखों के बीच स्वयं क्रूसित प्रभु उपस्थित थे। फ्रांसिस की आत्मा एक अवर्णनीय आनद की अनुभूति से पुलकित हो गयी। वह समझ गए कि प्रभु अपने दिव्य प्रेमाग्नि में गला कर उन्हें अपने साथ साथ एकरूप बना रहे हैं और क्रूसित प्रभु की पीड़ा में उन्हें सहभागी बना रहे है। यह दिव्य दर्शन समाप्त होने पर फ्रांसिस ने अनुभव किया कि उनका हृदय एवं हाथ-पैर एक आलोकिक एवं मधुर पीड़ा से जल रहे है। वास्तव में प्रभु   ने अपने पांच घाव फ्रांसिस के शरीर में अंकित  उनको अपने अनुरूप बनाया था।

वर्षों तक कठोर परिश्रम, लम्बी यात्राओं तथा कठिन जीवन-चर्या के कारन फ्रांसिस का स्वास्थ्य बुरी तरह बिगड़ गया, विशेषकर उनकी आँखों की ज्योति जाती रही। उन दिनों कोई सफल चिकित्सा विधि न होने के कारण लोहा गरम करके उनके ऊपरी गाल को तपाया गया ताकि आँख ठीक हो जाए; उन्हें कोई राहत नहीं मिली।  उन्ही दिनों में उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध 'सूर्य-ग़ीत' की रचना की जिसमे उन्होंने समस्त सृष्टि के नाम से, विशेषकर सूर्य, चन्द्रमा और तारों के लिए ईश्वर का स्तुतिगान किया। फ्रांसिस की बिमारी दिनों-दिन बढ़ती गयी और उनके धर्मबंधु उन्हें पोरस्युंकूला ले गए।
अपनी मृत्यु निकट जानकार उन्होंने अपने पास एकत्र भाइयों से कहा- "मैं  को जो अब हैं और भविष्य में आने वाले हैं, आशीर्वाद देता हूँ। सबके लिए मेरी मेरी अंतिम अभिलाषा   वैसे ही प्यार करें जैसे मैंने आपको प्यार किया हैं; कि सदा-सर्वदा निर्धनता को प्यार करें और उसका पालन करें। साथ ही वे सदैव कलीसिया के अधिकारीयों के अधीन रहे। अंत में मात्र 44 वर्ष की अवस्था में 4 अक्टूबर सन 1226 को प्रभु ने अपने पिता के निवास में, अनन्त महिमा के सहभागी बनाने के लिए उन्हें बुला लिया। 16 जुलाई 1228 को संत पिता ग्रेगेरी नौवें ने उनको कलीसिया में संत घोषित किया। संत पिता पियूष दसवे ने उन्हें द्वितीय ख्रीस्त की उपाधि प्रदान की। माता कलीसिया 4 अक्टूबर को संत फ्रांसिस अस्सीसी का पर्व मनाती हैं।

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