अविला की संत तेरेसा

कलीसिया में कार्मेल धर्मसंघ के नवीनीकरण एवं पुनर्जागरण के लिए विख्यात संत तेरेसा का जन्म स्पेन देश की राजधानी मेड्रिड से कुछ दूर अविला नगर में सन 1515 में हुआ। उनके पिता का नाम अलोंसो तथा माता का नाम बियाट्रिस था। वे दोनों धर्म परायण काथलिक थे। संत तेरेसा की आध्यात्मिक प्रगति एवं चरित्र निर्माण में उनके पिताजी विशेष रुचि एवं ख्याल रखते थे। इससे टेरेसा के हृदय में बचपन से ही ईश्वर को प्रेम करने और उनके दर्शन पाने की तीव्र इच्छा जागृत हुई। फलस्वरूप सात वर्ष की अवस्था में वह अपने भाई रोड्रिगो के साथ अफ्रीका जाने के लिए घर से निकल भागे ताकि मुस्लिमों के हाथों शहीद बनकर प्रभु के दर्शन कर सकें। किन्तु वे कुछ ही दूर पहुंचे थे कि संयोग से उनके चाचा ने उन्हें देख लिया और वापस घर ले आये। 
तेरेसा बाल्यावस्था से ही अत्यंत सुन्दर एवं आकर्षक थी। वह सदैव हंसमुख तथा सबके साथ मिलनसार, प्रेममय एवं व्यवहार कुशल थी। साथ ही लेखन कला और विभिन्न ललित कलाओं तथा गृहकार्यों में भी निपूर्ण थी। हर परिस्थिति एवं हर प्रकार के व्यक्तियों के साथ स्वयं को अनुकूल बनाना वह जानती थी। किशोरावस्था को पहुँचते-पहुँचते उनके आध्यात्मिक जीवन की सरगर्मी में कुछ शिथिलता आने लगी। उनका ध्यान बहुदा अपने स्वाभाविक सौंदर्य को बढ़ने की और लगा रहता था। साथ ही साहसिक कथाएं और प्रेम कहानियां पढ़ने में वह रुचि लेने लगी।
तेरेसा के इस परिवर्तन से उनके पिता चिंतित हो गए। जब वह 15 वर्ष की थी, उनकी माता का देहांत हो गया। तब से तेरेसा ने माँ मरियम को अपनी माँ के रूप में अपनाया और मरियम के प्रति भक्ति में बढ़ने लगी। माँ की जगह उसका मार्गदर्शन करने के लिए कोई नहीं होने के कारण पिता ने तेरेसा को सन 1531 में अगस्तिन समाजी धर्म-बहनों द्वारा संचालित विद्यालय में भर्ती कर दिया। वहाँ डोना मरिया नामक एक शिक्षिका थी जिसने विश्वास एवं ईश्वर के प्रति प्रेम में प्रगति करने में तेरेसा का मार्गदर्शन किया। वहीं से उसे बुलाहट की प्रेरणा भी प्राप्त हुई। आगे. संत जेरोम के पत्रों के अध्ययन करने के पश्चात् तेरेसा ने किसी धर्मसंघ में भर्ती होने की इच्छा प्रकट की। किन्तु उनके पिता ने उस समय उन्हें अनुमति नहीं दी। बाद में सन 1535 में अपने पिता की सहमति से उन्होंने अविला के कार्मेल मठ में प्रवेश लिया। एक वर्ष के प्रशिक्षण के पश्चात् उन्होंने धार्मिक व्रत लेकर स्वयं को पूर्णरूप से प्रभु के हाथों में सौंप दिया और कठिन तपस्या एवं प्रार्थना के जीवन को अपनाया। किन्तु कुछ समय के पश्चात् वह गंभीर रूप से रोगग्रस्त हो गयी और किसी प्रकार की चिकित्सा एवं उपचार से उनको कोई लाभ नहीं हुआ। फलस्वरूप आध्यात्मिक जीवन में उनका जोश और उत्साह मंद पड़ गया। वह प्रार्थना नहीं कर पाती थी; फिर भी निराश हुए बिना प्रार्थना में अटल रही। 
तेरेसा की बिमारी का समाचार पा कर उनके पिता उनसे मिलने आये। उनकी नाजुक हालत  देखकर  उपचार लिए अपने घर ले गए। किन्तु वहाँ उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ। अतः पिताजी उन्हें वापस अविला के मठ में ले आये। वहाँ उनकी स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि चार दिनों तक वह बेहोश रही। उसके बाद उनकी चेतना लौट आयी किन्तु उनके दोनों पैरों में लकवा हो गया जो तीन वर्षों तक बना रहा।अंत में संत योसेफ से उन्होंने प्रार्थना की जिनकी मध्यस्थता से वह चंगी हो गयी। फिर भी आध्यात्मिक जीवन में जो शिथिलता वह महसूस करती थी, वह स्थिति अट्ठारह वर्षों तक बनी रही। अंत में प्रभु की कृपा से वह समझ गयी कि प्रार्थना प्रभु के साथ प्रेम की अभिव्यक्ति है; प्रभु के साथ प्रेमपूर्ण एकता और सहभागिता ही प्रार्थना है जिसके लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं। रोग की अवस्था में प्रार्थना करने के लिए ईश्वर को प्यार करने की इच्छा करना पर्याप्त है। साथ ही सृष्ट वस्तुओं के प्रति अनासक्त होना, आत्मत्याग करना तथा ख्रीस्त के अनुसरण करने में पूर्णता-प्राप्ति के लिए संघर्ष करना भी उन्होंने सीखा। ईश्वर की दृष्टि में सबसे अच्छी प्रार्थना वही है, जिसमे हम निरंतर प्रयास करते रहे और उनकी प्रसन्नता खोजे, दूसरों के लिए  कार्य करते रहे।
मनन प्रार्थना से सम्बन्ध में तेरेसा ने बहुत ही सुन्दर विवरण अपनी पुस्तक 'सिद्ध-मार्ग' में किया जो प्रभु ने स्वयं उन्हें सिखाया था। धीरे-धीरे प्रभु ने उन्हें प्रार्थना के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचाया और आध्यात्मिक आनंद प्रदान किया और उसके प्रेम में आत्म-विस्मृत होने का अनुभव कराया।
आगे सन 1561 में जब वह 46 वर्ष की थी,  तेरेसा को आदेश दिया कि वह कार्मेल धर्मसंघ का नवीनीकरण करें। क्योंकि तत्कालीन समाज में प्रचलित बुराइयों का प्रभाव कार्मेल संघ पर भी पड़ा था। जिसके फलस्वरूप वे  तपस्या  छोड़कर सच्चे आध्यात्मिक जीवन से भटक गए थे। उनके जीवन में प्रारम्भिक सरगर्मी एवं जोश में भारी कमी आ गयी थी, और अन्य अनेक बुराइयों ने जड़ जमा ली थी। नवीनीकरण का वह कार्य तेरेसा के लिए अत्यंत कठिन था। किन्तु प्रभु ने उसे सिख्या था- "तेरेसा अकेली कुछ नहीं कर सकती, किन्तु जब येसु तेरेसा के साथ है, वह सब कुछ कर सकती है।" अतः प्रभु के आदेश अनुसार अपने धरसंघ की भूतपूर्व सरगर्मी एवं नियम-पालन वापस लाने के लिए उन्होंने हर संभव प्रयास किया।

संस्था के सदस्यों तथा अन्य लोगों की ओर से उन्हें घोर विरोधों का सामना करना पड़ा। किन्तु इक्कीस  अथक परिश्रम, तपस्या एवं प्रार्थना के फलस्वरूप महिलाओं के लिए सत्रह एवं पुरुषों के लिए पंद्रह नवीकृत मठों की स्थापना करने में वे सफल हो गयी तथा  उनके लिए संस्था के नियमों को प्रारम्भिक रूप से लागू कर सकी।
ईश्वर से प्राप्त सभी आध्यात्मिक वरदानों का विवरण संत तेरेसा ने अपने आत्मिक संचालकों के आदेशानुसार तीन पुस्तकों के रूप में लिखा है  "आंतरिक दुर्ग", "सिद्ध-मार्ग", एवं "आत्मकथा" । इस प्रकार निरंतर अथक परिश्रम करते-करते उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और सन 1582 में 67 वर्ष की अवस्था में उनका देहांत हो गया।
संत  ग्रेगरी पन्द्रहवें ने सन 1662 में उन्हें संत घोषित किया और सन 1970 में उन्हें कलीसिया में धर्माचार्या की उपाधि से विभूषित किया गया। माता कलीसिया 15 अक्टूबर को संत अविला की संत तेरेसा का पर्व मनाती है।

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