अन्ताखिया का संत इग्नासियुस

"जब तक गेंहूँ का दाना मिटटी में गिर कर नहीं मर जाता, तब तक वह अकेला ही रहता है; परन्तु यदि वह मर जाता है, तो बहुत फल देता है।" (संत योहन 12:24)
अन्ताखिया के संत इग्नासियुस प्रारम्भिक कलीसिया के महान धर्माध्यक्ष एवं शहीद थे जो प्रभु येसु में अपने दृढ विश्वास एवं प्रेम को त्यागने की अपेक्षा खूंखार जंगली पशुओं के सामने फेंके जाने और अपने प्रभु के लिए रक्त बहा कर उनके साक्षी बनने के लिए सहर्ष तैयार हुए।
इग्नासियुस का जन्म सन 45 ई. के आस-पास सीरिया में हुआ। प्रभु के प्रिय शिष्य एवं सुसमाचार लेखक प्रेरित संत योहन से ख्रीस्त के सुसमाचार की ज्योति पाकर वे ख्रीस्तीय बन गए। साथ ही वे संत योहन के प्रिय शिष्य भी बन गए और संत योहन के ही द्वारा अन्ताखिया के धर्माध्यक्ष अभिषिक्त हुए। उन दिनों रोमी साम्राज्य इटली एवं पुरे यूरोप तथा एशिया माइनर तक भी विस्तृत था और रोम के सम्राट ईसाईयों पर घोर अत्याचार करते थे। क्योंकि वे रोमी देवताओं की पूजा करने से इंकार करते थे। सन 94 से 96 तक सम्राट डोमीशियन के शासनकाल में ईसाईयों को अति भयंकर सतावट का सामना करना पड़ा। तब ख्रीस्त के वीर योद्धा धर्माध्यक्ष इग्नासियुस ने निरंतर प्रार्थना और अथक परिश्रम करते हुए अपने विश्वासियों के हृदयों में ईश्वर पर विश्वास को सुदृढ़ बनाये रखने और धैर्यवान बने रहने के लिए अपने प्रवचनों के द्वारा उन्हें प्रेरणा एवं प्रोत्साहन दिया। डोमीशियन के पश्चात् सम्राट ट्रॉजन ने भी ख्रीस्तीयों पर अत्याचार करना प्रारम्भ किया। तब भी ख्रीस्त के वीर इग्नासियुस अपने जीवन और वचन से अन्ताखिया की कलीसिया के निर्भीक अगुआ बने रहे। वे कहते थे- "ख्रीस्तीय केवल अपने लिए नहीं जीता है; बल्कि वह ईश्वर का है और उसे ईश्वर के लिए जीना है। "सन 107 में सम्राट के आदेश के उल्लंघन के कारण इग्नासियुस को बंदी बना कर सम्राट ट्रॉजन के सम्मुख लाया गया जो उन दिनों अन्ताखिया में थे। सम्राट ने उनसे कहा- "तुम नीच दुष्टात्मा हो; तुम मेरे आदेश का विरोध करते हो।"सम्राट के इन अपमान जनक बातों के उत्तर में इग्नासियुस ने निडरता से कहा- "आप मुझे नीच व दुष्टात्मा ना कहें। क्योंकि सर्वशक्तिमान ईश्वर मेरे साथ है।" यह सुनकर ट्रॉजन बहुत क्रुद्ध हो गया और उसने आदेश दिया कि इग्नासियुस को बंदी के रूप में रोम भेजा जाए और वहाँ नगर के अखाड़े में उन्हें जंगली जानवरों के सामने डाल दिया जाए।
उस समय इग्नासियुस बासठ वर्ष के थे और उन्हें जहाज द्वारा यात्रा करनी थी। उतनी लम्बी यात्रा उनके लिए बहुत कष्टदायक थी। किन्तु वह एक विजय-यात्रा में बदल गयी क्योंकि मढ़ में एशिया माइनर और यूनान के ख्रीस्तीय विश्वासी गण भीड़ की भीड़ उनसे मिलने और उनका आशीर्वाद लेने आये। सुदूर कलीसियाओं ने उनके प्रति सम्मान, सहानुभूति एवं भ्रातृ-प्रेम से पूर्ण सन्देश के साथ अपने प्रतिनिधि भेजे। जब स्मिरना में उन्हें कुछ दिन रूकना पड़ा तब उनके प्रिय शिष्य संत पोलिकार्प उनसे मिलने आये और इससे उन्हें अपार हर्ष हुआ। वहाँ से इग्नासियुस ने एफेसुस, माग्नेशिया, ट्रेलस तथा रोम की कलीसियाओं को पत्र लिखे जो उन कलीसियाओं के प्रति उनके पितृ-तुल्य स्नेह,प्रेमपूर्ण उत्कंठा के भाव से पूर्ण होने के कारण अत्यंत हृदयस्पर्शी एवं चिरस्मरणीय रहेंगे।

संत के कुछ प्रमुख परामर्श ये थे- "अन्याय को भी धैर्य से सहना सच्चे ख्रीस्तीय का लक्षण है। हमारे छोटे से छोटे काम को भी यदि प्रभुवर ईसा मसीह से संयुक्त होकर किया जाए तो वह ईश्वर की दृष्टि में अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है। हमें प्रभुवर येसु का हर क्षण अपने हृदय मंदिर में बसाये रखना चाहिए। हम अपने दैनिक जीवन में दुःख कष्टों को प्रभु के प्रेम के खातिर धैयपूर्वक सहे और क्रूस से प्रेम करना सीखे। इस प्रकार हु प्रभु येसु के सच्चे शिष्य बनें।"
प्रभु येसु में अपने विश्वास के कारण मृत्यु का स्वागत करने के लिए इग्नासियुस बहुत उत्साहपूर्वक तैयार थे; और रोम के अखाड़े में प्रवेश करते ही उन्होंने हर्षपूर्वक कह- "मैं प्रभु के गेहूं का दाना हूँ और मुझे शेरों के दांतों तले पिसा जाना चाहिए।" सिपाहियों ने उन्हें अखाड़े में खड़ा कर दिया। तब दो खूंखार शेरों को उन पर छोड़ दिया। कई दिनों से भूखे शेर उनपर टूट पड़े और उनके शरीर को चीर-फाड़ कर कुछ ही क्षणों में खा गए। रक्त की तीव्र धारा बह निकली और केवल उनकी हड्डियाँ बची रही। इस प्रकार संत धर्माध्यक्ष इग्नासियुस की प्रार्थना पूर्ण हो गयी; और उनकी निर्मल आत्मा सीधे अपने प्रभु के चरणों में उनके साथ महिमान्वित होकर अनंत आनंद मनाने पहुँच गयी। अन्ताखिया के भक्त विश्वासीगण उनके पवित्र अवशेष एकत्र कर अन्ताखिया ले गए और वहाँ बड़े सम्मानपूर्वक उन्हें कब्र में रखा गया। तब से वहाँ प्रति वर्ष 17 अक्टूबर को माता कलीसिया संत इग्नासियुस का पर्व मनाती है।

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