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प्रार्थना हमारे लिए ऑक्सीजन है - संत पिता फ्राँसिस !
संत पिता फ्राँसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में निरंतर प्रार्थना करते रहने हेतु प्रोत्साहन दिया। हम प्रार्थना पर अपनी धर्मशिक्षा माला को जारी रखते हैं। किसी ने मुझसे कहा, “आप प्रार्थना पर बहुत अधिक बोलते हैं जो आवश्यक नहीं है।” हाँ, यह हमारे लिए आवश्यक है क्योंकि यदि हम प्रार्थना नहीं करते हैं तो हमें जीवन में आगे बढ़ने की शक्ति प्राप्त नहीं होती है। प्रार्थना हमारे लिए ऑक्सीजन की भांति है। यह हमें पवित्र आत्मा की ओर आकर्षित करती जो हमें जीवन में आगे ले चलते हैं। यही कारण है कि मैं बहुत अधिक प्रार्थना के बारे में बातें करता हूँ।
प्रार्थना में दृढ़ता :- संत पिता फ्राँसिस ने कहा कि येसु हमें सदैव प्रार्थना का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसे हमें दृढ़ता पूर्वक करने की जरुरत है। अपनी शांतिमय प्रार्थना में जहाँ वे पिता से वार्ता करते थे उनके सम्पूर्ण प्रेरितिक कार्य का आधार था। सुसमाचार हमारे लिए शिष्यों को येसु की इस शिक्षा का हाल प्रस्तुत करता है जिससे वे भी बिना थके निरंतर प्रार्थना करते रहें। काथलिक कलीसिया की धर्मशिक्षा प्रार्थना की तीन विशेषताओं का उल्लेख करती है जो येसु के तीन दृष्टांतों में प्रस्तुत किया गया है।
सर्वप्रथम प्रार्थना को दृढ़तापूर्ण होनी चाहिए, जैसे कि हम दृष्टांत में उस व्यक्ति को पाते हैं जो अचानक अतिथि के आने पर आधी रात को अपने मित्र के यहां जाकर रोटी की मांग करते हुए द्वार खटखटाता है। उसका मित्र उसे उत्तर में “नहीं” कहता है क्योंकि वह बिस्तर में है। लेकिन उस व्यक्ति के बारंबार विनय करने पर वह उठता और उसे कुछ रोटियाँ प्रदान करता है (लूका.11.5-8)। यह एक दृढ़ता है। लेकिन ईश्वर इससे भी अधिक धैर्यपूर्ण ढंग से हमारे साथ पेश आते हैं, वे उस व्यक्ति को जो विश्वास और दृढ़ता में उनके हृदय को दस्तक देता, उसे कभी निराश नहीं होने देते हैं। ईश्वर सदैव हमें उत्तर देते हैं। पिता अच्छी तरह जानते हैं कि हमें किन चीजों की आवश्यकता है। दृढ़ता में प्रार्थना करना उन्हें किसी बात की याद दिलाना या उनके विश्वास को जीतना नहीं वरन यह हमें अपनी चाह में बने रहते हुए उनमें आशावान होना है।
हमें निरंतर प्रार्थना करनी चाहिए :- दूसरा दृष्टांत हमें एक विधवा के बारे में बतलाता है जो न्यायकर्ता के पास न्याय की मांग हेतु जाती है। वह न्यायकार्ता अपने में भ्रष्ट है जो किसी की परवाह नहीं करता है लेकिन अंततः वह उसके निरंतर आग्रह करने पर उसे न्याय दिलाता है (लूका.18.1-8)। वह अपने में यह सोचता है कि निरंतर तंग होने से अच्छा उसे न्याय दिलाना उचित है। यह दृष्टांत हमें यह शिक्षा देती है कि विश्वास अपने में कोई क्षणिक चुनाव नहीं वरन् साहस पूर्वक ईश्वर को पुकारना है, चाहे हमें उनके साथ तर्क-वितर्क ही करना क्यों न पड़े, लेकिन हम अपनी बुराई और अन्याय के सामने नहीं झुकाते हैं।
तीसरा दृष्टांत हमारे लिए एक फरीसी और एक नाकेदार की चर्चा करता है जो ईश मंदिर में प्रार्थना हेतु जाते हैं। पहला ईश्वर के सामने अपनी अच्छाइयों का बखान करता है, दूसरा अपने को इतना अयोग्य समझता की वह ईश्वर के निवास स्थल में प्रवेश तक नहीं करता है। ईश्वर पहले की प्रार्थना को नहीं सुनते हैं जो अपने में घमंडी है लेकिन वे उस नम्र व्यक्ति की प्रार्थना पर ध्यान देते हैं (लूका.18.9-14)। संत पिता फ्राँसिस ने कहा कि नम्रता के अभाव में प्रार्थना सच्ची नहीं होती है। यह हमारी नम्रता है जो हमें मांगने, प्रार्थना करने हेतु प्रेरित करती है।
प्रार्थना करनेवाला कभी अकेला नहीं :- धर्मग्रंथ की शिक्षा हमारे लिए सुस्पष्ट है, हमें निरंतर प्रार्थना करने की जरुरत है, उस समय भी जब हमें ऐसा लगता कि सारी चीजें व्यर्थ प्रतीत होती हैं, जब ईश्वर हमारे लिए बहरे और गूंगे जैसे लगते हैं, हमें लगता है कि हम बेकार ही समय बर्बाद कर रहे हैं। स्वर्ग में अंधेरा छाया रहें तब भी एक ख्रीस्तीय को प्रार्थना का परित्याग नहीं करना चाहिए। ख्रीस्तीय प्रार्थना विश्वास के साथ-साथ चलती है। हमारे जीवन की बहुत सारी परिस्थितियों में हम विश्वास को सूखा पाते हैं। हम अपने जीवन को अंधेरे में पाते जहाँ विश्वास हमारे लिए सदैव एक भ्रम-सा प्रतीत होता है। प्रार्थना में बने रहना उन परिस्थितियों को भी स्वीकार करना है। अपने जीवन के सूखेपन की अनूभूतियों में भी हमें प्रार्थना करते हुए आगे बढ़ने की आवश्यकता है। बहुत सारे संतों ने अपने को विश्वास की अंधेरी रात में पाया जहाँ ईश्वर चुप रहे, लेकिन वे अपनी प्रार्थनाओं में सुदृढ़ बने रहे।
विश्वास की ऐसी रातों में जो प्रार्थना करता वह अकेला नहीं रहता है। येसु वास्तव में, हमारे लिए प्रार्थना के साक्षी और शिक्षक मात्र नहीं वरन् वे उससे भी बढ़कर हैं। वे अपनी प्रार्थना में हम सबों को सम्मिलित करते हैं जिससे हम उनमें और उनके साथ प्रार्थना कर सकें। यह पवित्र आत्मा का कार्य है। यही कारण है कि सुसामाचार हमें येसु के नाम पर पिता से प्रार्थना करने हेतु निमंत्रण देते हैं। संत योहन येसु की इन बातों को हमारे लिए प्रस्तुत करते हैं, “तुम मेरा नाम लेकर कुछ मांगोगे, मैं तुम्हें वही प्रदान करूंगा, जिससे पुत्र के द्वारा पिता की महिमा प्रकट हो” (यो.14.13)। कलीसिया की धर्मशिक्षा हमें बतलाती है कि हमारी प्रार्थनाएँ येसु ख्रीस्त की प्रार्थना में सुनी जाती हैं । यह हमें यह दिखलाती है कि मानव की प्रार्थना अपनी चाह पूरी होने की इच्छा रखती हैं।
प्रार्थना करनेवाला कभी नहीं डरता :- संत पिता फ्राँसिस कहते हैं कि यहां हम स्तोत्र 91 की प्रार्थना को कैसे भूल सकते हैं, जो विश्वास में हृदय से उत्पन्न होता और ईश्वरीय आशा में बनता रहता है, “वह अपने पंख फैला कर तुम को ढँक लेता है, तुम्हें उसके पैरों के नीचे शरणस्थान मिलता है। उसकी सत्यप्रतिज्ञता तुम्हारी ढाल है और तुम्हारा कवच। तुम्हें न तो रात्रि के आतंक से भय होगा और न दिन में चलने वाले बाण से; न अन्धकार में फैलने वाली महामारी से और न दोपहर को चलने वाले घातक लू से।” (स्रोत 91.4-6) येसु ख्रीस्त में यह अति सुन्दर प्रार्थना अपनी पूर्णत को प्राप्त करती और पूरी होती है। येसु के बिना मानवीय प्रार्थनाएं, रूदन, खुशी, हर निवेदन अधूरी रह जाती हैं। हम पवित्र आत्म को न भूलें। वे हमारे लिए प्रार्थना करते हैं। ये वे हैं जो हमें प्रार्थना करने हेतु प्रेरित करते हैं, और येसु की ओर ले चलते हैं। वे हमारे लिए पिता की ओर से दिये गये उपहार हैं जिसे हम पिता से मिल सकें। हम जब प्रार्थना करते हैं तो पवित्र आत्मा हमारे हृदयों में प्रार्थना करते हैं।
संत पिता फ्राँसिस ने कहा कि येसु ख्रीस्त हमारे लिए सब कुछ हैं। संत अगस्टीन इस तथ्य को हमारे लिए एक प्रकाशित वचन में व्यक्त करते हैं जिसे हम धर्मशिक्षा में पाते हैं, येसु “पुरोहित की भांति हमारे लिए प्रार्थना करते हैं, वे अगुवे की तरह हमारे लिए प्रार्थना करते हैं, और हम ईश्वर के प्रतिरुप उनके पास प्रार्थना करते हैं। अतः हम अपनी आवाज उनमें और उनकी आवाज को अपने में स्वीकार करें।” यही कारण है कि ख्रीस्तीय जो प्रार्थना करता है वह किसी चीज से नहीं डरता है। वह अपने को पवित्र आत्मा को सौंप देता है जो हमें उपहार स्वरुप मिला है, जो हममें प्रार्थना करते और हमें प्रार्थना करने हेतु प्रेरित करते हैं। पवित्र आत्मा प्रार्थना के शिक्षक हमें प्रार्थना करना सिखलायें।
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