चालीसा ईश्वर की ओर लौटने का समय- पोप। 

संत पिता फ्रांसिस ने वाटिकन के संत पेत्रुस महागिरजाघर में राखबुध का पवित्र मिस्सा बलिदान अर्पित करते हुए चालीसा काल को ईश्वर की ओर अभिमुख होने का समय बतलाया।
हम चालीसा काल की यात्रा आज नबी योएल के वचनों से शुरू कर रहे हैं। वे हमें राह चलने हेतु दिशा निर्देश देते हैं। हम एक निमंत्रण को सुनते हैं जो ईश्वर के हृदय से आता है जो हमें अपनी खुली बांहों और प्रतीक्षा भरी निगहों से कहते हैं, “अपने पूरे हृदय से मेरे पास लौट आओ” (योएल 2.12)। मेरे पास लौट आओ। चालीसा ईश्वर की ओर लौटने की एक यात्रा है। कितनी बार अपने कार्यों के कारण या उदासीनता में हमने उन्हें कहा है, “प्रभु, मैं बाद में आऊंगा...मैं आज नहीं आ सकता, लेकिन मैं कल से अपनी प्रार्थना शुरू करते हुए दूसरों के लिए कुछ करूँगा।” ईश्वर हमारे हृदय में आज पुकारते हैं। इस जीवन में, बहुत सारी चीजें हैं जिन्हें हमें करना है और हम बहाना करते हैं लेकिन यह ईश्वर के पास लौट आने का उपयुक्त समय है।
ईश्वर हमें कहते हैं कि अपने पूरे हृदय से मेरे पास लौट आओ। चालीस एक यात्रा है जो हमारे पूरे जीवन, हमारे अस्तित्व को अपने में सम्माहित करता है। यह हमारी राहों पर पुनः विचार करने का समय है, उस राह को खोजने का जो हमें अपने निवास की ओर ले चलता और हमारे संबंध को ईश्वर के साथ पुनः मजबूत करने में मदद करता है, जिन पर सारी चीजें निर्भर करती हैं। चालीसा अपने में छोटा-मोटा त्याग करने का समय नहीं वरन यह हमारे लिए आत्ममंथन करने का समय है कि हमारा हृदय किस ओर झुका है। हम अपने आप से पूछें, “मेरे जीवन का दिशा निर्देशक मुझे किस ओर लेकर चल रहा है ईश्वर की ओर या स्वयं मेरी ओर” क्या मैं ईश्वर को खुश करने हेतु जीता हूँ या दिखावे, प्रंशसा और प्रगाति पाने हेतुॽ क्या मेरा हृदय कमजोर है जो एक कदम आगे बढ़ता और फिर पीछे की ओर लौट जाता हैॽ क्या मैं थोड़ा प्रेम येसु से करता हूँ और थोड़ा संसार से या क्या मेरा हृदय ईश्वर के प्रति निष्ठावान हैॽ क्या मैं अपनी आडम्बरी जीवन से खुश हूँ य़ा क्या मैं अपने हृदय को नकलीपन अपने झूठेपन के बंधन से मुक्त करने हेतु कार्य करता हूँॽ
चालीसा की यात्रा हमारे लिए गुलामी से मुक्ति की ओर जाना है। ये चालीस दिन हमारे लिए चालीस वर्षों की ओर इंगित कराते हैं जहाँ ईश प्रज्ञा अपने देश लौटने के पूर्व मरूभूमि में  भटकती रही। मिस्र देश को छोड़ना उनके लिए कितना कठिन था। उस यात्रा के दौरान, एक तरह का प्रलोभन था जहाँ वे वापस लौटने को उतारू थे, अपनी पुरानी यादों में डूबे, इस मूर्ति या उन देवी-देवताओं में खोये थे। हमारी स्थिति भी ऐसी ही है ईश्वर के पास लौटने के क्रम में हम अपने को कई अनुचित असक्तियों को पाते हैं, जो हमें पाप के बंधनों में फंसाये रखती है, जहाँ हम धन और अपने रूप-रंग की झूठी असंतुष्टि से कुंठित रहते हैं। इस यात्रा में चलने हेतु हमें दिग्भ्रमित करने वाली झूठी बातों का परित्याग करना होगा। हम अपने आप से पूछें कि कैसे हम ईश्वर के पास वापस लौटते हैंॽ हम ईश्वर के वचनों में ही अपने लिए दिश निर्देशों को पाते हैं।
हम उड़ाव पुत्र के बारे में विचार करते हुए अपने में यह सोच सकते हैं कि यह हमारे लिए भी पिता के पास लौटने का समय है। उस पुत्र की भांति, हमने अपने घर की खुशबू को खो दी है, हमने अपने कीमती घन सम्पति को व्यर्थ की चीजों में लूटा दिया है और हम अपने को खाली हाथ, नखुश हृदय पाते हैं। हम गिर गये हैं मानों छोटा बालक चलने सीखने के क्रम में बार-बार गिर जाता है, जिसे पिता द्वारा बारंबार उठाने की आवश्यकता होती है। यह पिता की क्षमाशीलता है जो हमें अपने कदमों पर खड़ा करता है। ईश्वर की दया- पापस्वीकार- हमारे लिए इस यात्रा में प्रथम कदम है।
हमें उस कोढ़ी का तरह येसु के पास लौटने की जरूरत है जिसने अपनी चंगाई पर उन्हें धन्यवाद कहने को लौटा। यद्यपि दसों को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हुआ लेकिन सिर्फ एक को ही मुक्ति मिली क्योंकि वह येसु के पास लौट कर आया (संत लूकस 17.12-19)। हम सभी आध्यात्मिक रुप से बीमार हैं और हम स्वयं में चंगाई प्राप्त नहीं कर सकते हैं। हम सबों में घर कर गई बुराई है जिसे हम अपने में उखाड़ नहीं सकते हैं। हम अपने में भय से ग्रस्ति हैं कि हम अकेले विजय नहीं प्राप्त कर सकते। हमें उस कोढ़ी का अनुसरण करने की जरुरत है जो येसु के पास लौट कर आया और उनके चरणों में गिर पड़ा। हमें येसु से चंगाई की जरूरत है हमें अपने घावों को उनके सामने प्रस्तुत करते हुए कहना है, “येसु, मैं आप की उपस्थिति में हूँ, मेरे पापों के साथ, अपने दुःखों के साथ। आप ही चिकित्सक हैं। आप मुझे मुक्त कर सकते हैं, मेरे हृदय को चंगा कीजिए।”
हम पुनः पवित्र आत्मा की ओर लौटने हेतु आमंत्रित किये जाते हैं। हमारे माथे का राख हमें इस बात की याद दिलाता है कि हम मिट्टी हैं और मिट्टी में मिल जायेंगे। फिर भी हमारे  इस राख से येसु जीवन उत्पन्न करते हैं। अतः हम अपने जीवन को मिट्टी की खोज में न जीयें, उन चीजों के पीछे न भागें जो आज हैं कल नष्ट हो जायेंगी। आइए हम पवित्र आत्मा की ओर लौटे, जो हमें जीवन देते हैं, उस आग की ओर जो हमें, राख को पुनर्जीवित करते हैं। आत्मा की ओर लौटते हुए हम स्तुति की आग को पुनः प्राप्त करें जो विलाप और त्याग के राख को भस्म करता है।

प्रिय भाइयो एवं बहनो, ईश्वर की ओर हमारी यात्रा इसलिए संभव होती है क्योंकि उन्होंने हमारी ओर पहला कदम बढ़ाया है। इसके पहले की हम उनकी ओर आयें, वे हमारे लिए स्वर्ग से उतर कर आये। वे हमारे आगे आते हैं वे हमसे मिलने आते हैं। हमारे खातिर वे अपने को नम्र बनाते जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, वे पापों को अपने ऊपर लेते और मृत्यु को प्राप्त करते हैं। संत पौलुस इस भांति हमें कहते हैं, “हमारे खातिर ईश्वर ने उन्हें पाप में डाला, (2 कुरू. 5.12)। वे हमें नहीं छोड़ते वरन हमारे साथ चलते हैं उन्होंने हमारे पापों को, हमारी मृत्यु को गले लगाया। हमें अपनी यात्रा में उन्हें अपना हाथ पकड़ कर लेने देना है। पिता जो हमें अपने पास बुलाते वे घर छोड़कर हमें खोजने आते हैं। वे जो हमें चंगाई प्रदान करते हैं वे हमारे खातिर क्रूस पर दुःख सहते हैं, पवित्र आत्मा जो हमारे जीवन में परिवर्तन लाते वे वही हैं जो धीरे से फूंकते यद्यपि वह हमारे राख को शक्तिशाली बन देता है।
अतः आज का पाठ हमें कहता है, “ईश्वर से मेल-मिलाप कर लीजिए”। हमारी यात्रा हमारी शक्ति में निहित नहीं है। हृदय परिवर्तन जो हमारे कार्यों और व्यवहारों में अभिव्यक्त होता है, केवल तब संभव है जब ईश्वर हममें कार्य करते हैं। हमें उनकी ओर हमारी योग्यता या गुण नहीं लाते वरन उनकी कृपा ऐसा करती है। येसु इसे सुसमाचार में कहते हैं कि हमें धर्मी वह नहीं बनाता जिसे हम दूसरों के सामने प्रकट करते हैं बल्कि पिता से हमारा निष्ठापूर्ण संबंध हममें ऐसा करता है। ईश्वर की ओर लौटने की शुरूआत तब होती है जब हम उनकी जरुरत और करूणा को अपने लिए पहचानते हैं। यही सही मार्ग है, नम्रता का मार्ग। क्या मुझे उनकी जरुरत है या मैं अपने में आत्म-निर्भर हूँ।
आज हम शीश नवाते हुए राख ग्रहण करते हैं। चालीसा के अंत में हम इससे भी अधिक झुक कर अपने भाई-बहनों के पैरों को धोयेंगे। चालीसा नम्रता में अपने अंदर प्रवेश करना और दूसरों की ओर अपने से बाहर जाना है। यह इस बात का अनुभव करना है कि मुक्ति महिमा की ओर चढ़ना नहीं अपितु प्रेम में उतरना है। यह अपने में नम्र, छोटा बनना है। यदि ऐसा नहीं होता तो हम अपनी यात्रा में भटक जायेंगे, आइए हम येसु के क्रूस, ईश्वर के शांति सिहांसन के सामने खड़े हों। आइए हम प्रति दिन उनके घावों पर चिंतन करें। उन घावों में हम अपने खालीपन को पहचानते, अपनी त्रुतियों, पाप के कारण अपने घावों और अपने चोटिल अनुभवों को पाते हैं। फिर भी वहाँ हम ईश्वर को किसी की ओर अपनी अंगुली उठाते हुए नहीं देखते हैं बल्कि वे अपनी बाहें फैलाकर सभों का आलिंगन करते हैं। उनके घावों को हमारे कारण कुरेदा गया और उन घावों के द्वारा हम सभी चंगे किये गये हैं (1 पेत्रु, 2.25. इसा. 53.5)। उन घावों का चुंबन करते हुए हम इस बात का अनुभव करेंगे कि अपने जीवन की बड़ी पीड़ादायक घावों में, ईश्वर अनंत करूणा में हमारा इंतजार करते हैं। क्योंकि वहाँ, उस परिस्थिति में हम अपने को अतिसंवेदनशील पाते, अपने में अत्यधिक लज्जा का अनुभव करते, ईश्वर उस परिस्थिति में हम से मिलने आते हैं। वे हमें अपने पास लौट आने का निमंत्रण देते हैं जिनमें हम प्रेम किये जाने की खुशी का अनुभव करते हैं। 

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