ईश्वर सदैव हमारे साथ रहते हैं, पोप फ्रांसिस।

अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में पोप फ्रांसिस ने प्रार्थना पर अपनी धर्मशिक्षा देते हुए कहा कि दैनिक जीवन में प्रार्थना करना सहज नहीं है।
पोप फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर वाटिकन के संत दमासुस प्रांगण में उपस्थित सभों का अभिवादन किया।
पोप फ्रांसिस ने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में विश्वासियों और तीर्थयात्रियों की उपस्थिति को लेकर अपनी खुशी व्यक्त करते हुए कहा कि पुनः आमने-सामने आना मेरे लिए हर्ष की बात है। एक खाली कमरे से वार्ता करना जहाँ कोई भी नहीं है, अपने में अच्छा नहीं लगता है। उन्होंने धर्माध्यक्ष सपियेन्सा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जिन्होंने विश्वासियों और तीर्थयात्रियों की उपस्थिति में आमदर्शन समारोह हेतु निर्णय लिया। संत पापा ने कहा कि आप सभों को देख मुझे अत्यंत खुशी होती है क्योंकि हम सभी येसु ख्रीस्त में भाई-बहनें हैं जो एक दूसरे को देखते हुए एक दूसरे के लिए प्रार्थना करते हैं। लोग यद्यपि हम से दूर हैं लेकिन वे हमारे करीब हैं। उन्होंने आमदर्शन समारोह में सहभागी हो रहे लोगों का शुक्रिया अदा किया और कहा कि आप पोप फ्रांसिस के इस संदेश को सभों के लिए ले जाये कि संत पापा सभों के लिए प्रार्थना करते हैं और वे सभों से प्रार्थनामय सहचर्य की मांग करते हैं।  
पोप फ्रांसिस ने कहा कि प्रार्थना के बारे में यदि हम कहें तो ख्रीस्तीय प्रार्थना वाटिका में चहल कदमी जैसा नहीं है। प्रार्थना करने वाले जिन्हें हम धर्मग्रंथ और कलीसिया के इतिहास में पाते हैं, कोई भी ऐसा नहीं जिसकी प्रार्थना अपने में “आरामदेह” रही हो। हाँ, आप तोते की भांति रट्टी-राटाई प्रार्थना कर सकते हैं लेकिन यह एक प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना निश्चय ही शांति प्रदान करती है लेकिन अपने में आतंरिक संघर्ष के बाद, कभी-कभी यह जीवन की लम्बी कठिन अवधि बन जाती है। प्रार्थना करना अपने में सहज नहीं होता है और इसी कारण हम इससे दूर भागते हैं। हर समय जब हम प्रार्थना करने की चाह रखते हैं, हमें तुरंत दूसरे कार्यक्रमों की याद आ जाती है जो उस समय हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण और अधिक तत्काल लगते हैं। संत पापा ने कहा कि मेरे साथ भी ऐसा ही होता है मैं थोड़ी प्रार्थना करने की सोचता हूँ... लेकिन दूसरी चीजों का ख्याल आने लगता है, इस तरह हम प्रार्थना से भाग जाते, हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों होता है, लेकिन ऐसा ही होता है। अपनी प्रार्थनाओं को दरकिनार करने के बाद, हमेशा ही हमें ऐसा अनुभव होता है वो चीजें हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं थीं, हमें ऐसा प्रतीत होता मानों हमने समय बर्बाद किया है। इस भांति, कैसे शत्रु हमें फुसला देता है।
ईशप्रजा स्त्री और पुरूष प्रार्थना की खुशी का केवल जिक्र नहीं करते बल्कि वे हमें इसमें होने वाली असुविधा और थकान के बारे में बतलाते हैं। कभी-कभी वे हमें प्रार्थना में समय व्यतीत करना और प्रार्थना करने के तरीके में होने वाली कठिनाइयों का जिक्र करते हैं। कुछ संतों ने इसकी उपयोगिता का ख्याल किये बिना, प्रार्थना के स्वादहीन होने पर भी वर्षों निरंतर प्रार्थना करना जारी रखा। शांति, प्रार्थना और ध्यान अपने में कठिन क्रियाकलाप हैं कई बार मानवीय प्रवृति इनका विरोध करती है। हम दुनिया में कहीं भी रह सकते हैं लेकिन गिरजा प्रार्थना में हम नहीं रह सकते हैं। वे जो प्रार्थना करने की चाह रखते हैं इस बात को याद करें कि विश्वास अपने में सहज नहीं है, और कई बार यह जीवन के अंधकारमय क्षणों में अभर कर आता जिसका कोई संदर्भ नहीं होता है। हमारे विश्वासी जीवन में कुछ क्षण ऐसे अंधकार भरे होते जिसे कुछ संतगण “अंधेरी रात” की संज्ञा देते हैं क्योंकि हमें कुछ नहीं सुझता है। लेकिन वे प्रार्थना करना जारी रखते हैं।
पोप फ्रांसिस ने कहा कि कलीसिया की धर्मशिक्षा में हम प्रार्थना के शत्रुओं की एक लम्बी श्रृंखला को पाते हैं। जो हमारे लिए प्रार्थना को कठिन बनाते हैं। कुछ हैं जो प्रार्थना को संदेह की नजरों से देखते हैं कि यह सर्वशक्तिमान ईश्वर के यहाँ पहुँचता है, ईश्वर क्यों चुपचाप रहते हैं? यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं तो वे दो शब्द कह कर ही सारी चीजों को ठीक कर देते। ईश्वर की दिव्यता के आगे कुछ लोग हैं जो प्रार्थना को केवल मनोवैज्ञानिक क्रियाकलाप स्वरुप देखते हैं। यह कुछ हद तक उपयोगी हो सकता है लेकिन यह न तो सही है और न ही आवश्यक, एक व्यक्ति विश्वासी नहीं होने पर भी प्रार्थना का अभ्यास कर सकता है।
पोप फ्रांसिस ने कहा कि प्रार्थना के सबसे खराब शत्रुएं हमारे अंदर ही व्याप्त हैं। कलीसियाई धर्मशिक्षा उनका जिक्र करते हुए कहती है, “अपने जीवन के सूखे क्षण, उदासी की घड़ी, क्योंकि हमारे पास बहुत संपत्ति है जिसे हमने ईश्वर को अर्पित नहीं किया है, हमारी इच्छा अनुरूप नहीं सुने जाने के कारण निराशा, अहम को चोट लगना, पापी होने के कारण अपने में क्रोध की कठोरता, इस विचार का प्रतिकार करना कि प्रार्थना हमारे लिए एक स्वतंत्र और अनमोल उपहार है।” यह स्पष्ट रुप से हमारे लिए सारांश सूची है जिसे हम विस्तृत कर सकते हैं।
हम अपनी परीक्षा की घड़ी में क्या करें जब सारी चीजें डोलती नजर आती हैं? यदि हम आध्यात्मिकता के इतिहास को देखें तो हम तुरंत इस बात को पाते हैं कि आत्मा के गुरूओं ने उन परिस्थितियों के स्पष्ट रुप से समझा जिनका जिक्र हमने किया है। इस स्थिति पर विजय प्राप्त करने के लिए हर किसी ने कुछ योगदान दिया,एक विवेकपूर्ण ज्ञान या कठिन परिस्थितियों का सामना करने हेतु एक सुझाव। यहाँ हम विस्तृत सिद्धांतों को नहीं पाते हैं बल्कि सुझाव को देखते हैं जो अनुभवों से उत्पन्न होता है जो प्रार्थना में विरोध और दृढ़ता के महत्व को दर्शाता है।

पोप फ्रांसिस ने कहा कि हमारे लिए सुझावों के कुछ भागों का पुनरावलोकन करना उचित होगा क्योंकि हर एक का विस्तार अपने में जरूरी है। उन्होंने संत इग्नासियुस की आध्यात्मिक साधना का उदाहरण देते हुए कहा कि उनकी वह छोटी पुस्तिका ज्ञान का भंडार है जो हमारे जीवन को व्यवस्थित करने में मददगार है। यह हमारे ख्रीस्तीय जीवन को सैन्य बुलाहट के रूप में समझने हेतु मदद करता है। यह हमारे लिए एक निर्णय को दिखलाता है जहाँ हम येसु ख्रीस्त के झण्डे के तले खड़ा होने का चुनाव करते हैं न कि शैतान के, हम अपने जीवन की कठिन परिस्थिति में भी अच्छाई करने को प्रत्यशील रहते हैं।
पोप फ्रांसिस ने कहा कि जीवन की कठिन परिस्थितियों में हमारे लिए यह याद करना अच्छा है कि हम अकेले नहीं हैं, कोई हमारे साथ है जो हमें देख रहा और हमारी रक्षा कर रहा है। ख्रीस्तीय मठवासी जीवन के संस्थापनक संत अंतोनी आब्बोत ने मिस्र में घोर कठिनाइयों का सामना किया जब प्रार्थना उनके लिए एक कठिन संघर्ष बन गया। उनकी जीवनगाथा के रचियेता संत अथनासियुस, अलेक्सजडिया के धर्माध्यक्ष, उनके जीवन की एक सबसे बुरी घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि मठवासी अंतोनी अपने जीवन के पैंतीसवें साल में, जो जीवन का मध्यकालीन पड़ाव है जहाँ बहुत से लोग जटिलताओं से होकर गुजरते हैं, उन्होंने अपने जीवन में तूफानों सामना किया और विचलित भी हुए लेकिन उन्होंने उन पर विजय पाई। जब वे आखिरकर शांत हुए तो उन्होंने ईश्वर की ओर मुड़ते हुए एकदम कटु शब्दों में यह कहा, “आप कहाँ थे? आपने जल्दी आकर मुझे तकलीफों से निजात क्यों नहीं दिलायी? इस पर येसु कहते हैं, “अंतोनी, मैं वहाँ था। लेकिन मैं तुमको संघर्ष करते हुए देखना चाहता था?
यदि अंधेपन के एक क्षण में हम उनकी उपस्थिति को देखने में विफल रहते हैं, फिर भी हम भविष्य में उन्हें देखने हेतु सफल होंगे। हमारे साथ भी वैसा ही होगा जैसा कुलपति याकूब ने एक बार कहा था,“निश्चिय ही ईश्वर इस स्थान में हैं और मैंने इसे नहीं जाना” (उत्प.28.16)। अपने जीवन की ओर पीठे मुढ़कर देखते हुए हम भी यही कहेंगे, “मैं सोचता था, मैं अकेला था लेकिन नहीं, येसु मेरे साथ थे।” हम सभी ऐसा कह सकते हैं।

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