नकारात्मक मनोभावों से मुक्ति का पर्व है होली

Bunch of people celebrating Holi

क्रोध, गुस्स, नफरत, गुणा का हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है| जीवन में प्रेम और सदभाव का बढ़ा  महत्व है | इससे जो सकारात्मक उर्जा उत्पन्न होती है, वहा हमारे शरीर को स्वस्थ रखती है | गुस्से और नफरत को ख़त्म करने के लिए ही, शायद हमारे पूर्वजों ने होली जेसा पर्व मनाने की शुरुआत की होगी | लेकिन शनै:शनै: इसमें ऐसी विकृतियाँ जुड़ती गई कि यह त्यौहार प्रेम की जगह नफरत बढाने, लकड़ी जलाने, पर्यावरण बिगाड़ने और पानी बर्बाद करने की बुराइयो से भर गया | जरुरत है समझदारी के साथ होली मनाने की | बुराइयों को होली की ज्वाला में भस्म कर दें | क्रोध व नफरत की आग को प्रेम रूपी रंगो से सराबोर कर दें तो ही होली की सार्थकता है |

प्रेम और सौन्दर्य का पर्व होली मानव और मानवेतर प्रकृति में बदलाव का नूतन सन्देश लेकर आता है | वृक्षों, लताओं, बेलों में नव पल्लव, कोपलें, पुष्प और उन पर मंडराते भवरों-तितलियों के झुण्ड प्रकृति को संगीतमय बना देते हैं | नीरस पतझड़ और काटने वाली वायु के झोकों के स्थान पर प्रकृति का नव पल्लवों से लद जाना, सुखद मंद पवन का बहने लगना सभी कुछ अपनी माधुरी के मोहपाश में मनुष्य को जकड लेता है. प्रकृति और मनुष्य का यह साहचर्य प्रारंभ से अब तक ज्यों का त्यों है. आज की भव्य अट्टालिकाये, साफ़-सुथरी, चौड़ी-चौड़ी सडकें, उन पर दौड़ने वाले चमकीले वाहनों की कतार भी प्रकृति के उस सहज सौंदर्य से होड़ लेने में पिछड़ जाती है. मनुष्य के कल्पनाशील मस्तिष्क में उठने वाली भावनओं की तरंगे ‘होली’, जो मधु मास में होती है, में मादकता से भर जाया करती हैं. आदिम युग के हमारे पूर्वज मानव के लिए यह नवल बसंत का आगमन प्रजनन के पर्व ‘मदन महोत्सव’ के रूप में सबसे पहले अस्तित्व में आया | इसके संकेत हमारे प्राचीन साहित्यिक स्रोतों में मिलते हैं | आदिम समाज में जब मातृदेवियों की सत्ता थी, वे अपने एकांत वन निकुंजों में रहा करती थी, जहाँ पुरुषों का प्रवेश निषिद्ध था | ऋतु परिवर्तन से उपजी मादकता से जब वे अपने की सम्भाल नहीं पाती थी, तो पुरुष समाज को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए भांति-भांति की चेष्टाओं और म्रिद्राओं का प्रदर्शन करती थी | इससे समाज रचना के लिए प्रजनन की शाश्वत परम्परा का जन्म हुआ | माधुर्य पूर्ण आकर्षण के मोहपाश में बंधकर दोनों का अद्भुत संगम का अवसर होली पर्व याद दिलाता है |

‘होली’ मनुष्य के आदिमयुगीन जीवन से जुड़कर सहस्रों धाराओं में कालांतर में प्रस्फुटित होती गयी | सौंदर्य, प्रेम और माधुर्य का यह आदिम सांस्कृतिक पर्व विभिन प्रकार की गाथाओं, कथाओं, विचारों, धारणाओं की भी रंगस्थली बनता गया | उनको अलग-अलग समझ पाना अब केवल अकादमिक बहस का विषय हो सकता है | वैसे वे एक-दूसरे के रंग में इतने रंग गये हैं कि उनकी अलग पहचान समाप्त हो गई है | इसलिए इसका एक निश्चित कारण बता पाना असंभव हो गया है | इसकी उर्वर पृष्ठभूमि में सांस्कृतिकता के  साथ-साथ धार्मिकता के समावेश का एक कारण यह भी है | हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों ने भक्ति में जिस माधुर्य भाव की प्रतिष्ठा की है उसका भारी प्रभाव होली पर पड़ा है | यहाँ भक्ति रस की धारा कृष्ण भक्ति के उज्ज्वल आदर्श ‘परकीया प्रेम’ से प्रेरित है | परकीय प्रेम की अभिव्यक्ति और उसके विभिन्न अवसरों पर चित्रण की परम्परा ने भी होली में रंग घोला है | होली के रसिया परकीया प्रेम के निःस्वार्थ और निधड़क प्रेम मार्ग में चल पड़ने वाली गोपिकाओं की भावनावों के प्रवाह में बह निकलते हैं | भक्ति और श्रृंगार की यह धारा मानव को भावविह्वल कर डालती है | इसका लोक पक्ष उसे अपने आदिम पूर्वज से मिला है |

होली के सामाजिक पक्ष पर कम सोचा गया है | होली का घनिष्ठ सम्बन्ध मनुष्य के यौनजनित उद्गारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुडा है | यह आदिम मानव की प्रजनन की अभिव्यक्ति की चिरंतर आकांक्षा है | मनुष्य के बन्धनों में समाज के विकास से उत्तरोत्तर कसावट आती गई | उसकी आदिम प्रवृतियों पर रोक लगाना समाज को अनुशासित और विकसित करने के लिए आवश्यक था | उसके विपरीत लिंगी संबंधों और व्यापारों की परिभाषित कर दिया गया, जो समाज के संगठन के स्थायित्व के लिए आवश्यक था | इसके परिणाम ज्यादातर अच्छे निकले, किन्तु इनके चलते मानव की भावनाओं की स्वछन्द अभिव्यक्ति पर रोक लग गई | परिवार की सीमा में यौन भावनाओं के सहज प्रकटीकरण में यह असहज अंकुश मनुष्य को खलने लगा | जीवन में घुटन और एकरसता को कैसे तोडा जाये, जीवन की नीरसता को सरस कैसे किया जाय, इसका समाधान होली में ढूंढा गया | सीमाओं को तोड़कर खुली हवा में साँस लेने के लिए होली का पर्व अस्तित्व में आया |    

समाज में सभी प्रकार के सम्बन्ध हैं | उनमे देवर-भाभी, साली-साला-जीजा के सम्बन्ध ऐसे हैं, जिनके सामने आपने भीतर की घुटन (भड़ांस) निकलने की सुविधा है | देवर द्वितीय ‘वर’ (पति) भी मन जाता है| साली-साला-जीजा में भी कुछ ऐसा ही रेशमी धागे से बंधा सम्बन्ध है, जिनके सामने संकोच और झिझक झक कम रहती है| इसलिए अपने भीतर के प्रेम और सौंदर्य से ओतप्रोत सौन्दर्य श्रृंगारिक उद्गारों को व्यक्त करने की सामाजिक स्वीकृति है | यह स्वीकृति उद्गारों को व्यक्त करने तक ही सीमित है | वहीँ तक, जहाँ तक हास-परिहास, हल्की छेड़-छाड़, थोड़ी-सी धक्कामुक्की या हाथापाई, जितने से मनोगत बोझ हल्का हो सके | इन सबकी सीमा है | क्योंकि भाभी देवर के लिए पूजनीय भी है| भाभी के हृदय में देवर के लिए पुत्रवतू भाव भी रहता है| अत: इन भावनाओं को भी ठेस लगने बचाने का ध्यान रखा जाता है | इस संवेदनशीलता से यह हास-परिहास, छेड़छाड़ को होली में कोई अधिक गंभीरता से नही लेता | परोक्ष रूप से यह रसीलापन साल में एक बार होने पर भी पुरे साल के लिए रंगों की बरसात कर देता है |

होली में कुछ दिनों या कहीं कुछ घंटो के लिए सामाजिक मर्यादा की सीमाएं या तो ढीली पड़ जाती हैं या टूट जाती हैं | बड़े-बूढे, बच्चे-युवा सामाजिक स्तर पर छोटे-बड़े सभी आबाल-वृद्धि एक-दूसरे के कपोलों पर रंग चुपड़ते हैं, कपड़ों में रंग डालते हैं | साधारणतया जिनसे हम सालभर बड़े अदब से पेश आते हैं, डरे-डरे से रहते हैं, होली आने पर यह कड़ाई पिघल जाती है| इसे बुरा नहीं माना जाता | एक स्वस्थ शरीर के लिए जिस प्रकार उन्मुक्त प्रदुषणरहित वातावरण आवश्यक होता है, उसी प्रकार भावनाओं की खुलकर अभिव्यक्ति का अवसर भी भीतर की घुटन को बाहर निकालकर हल्का अनुभव करती है | इससे पारस्परिक विश्वास बढ़ता है | डर, झिझक और संकोच के स्थान पर खुलकर अपनी बात कहने की हिम्मत बढती है | जिनके पैरों पर ही हमेशा हमारी नजर रहती है, साल भर में एक ऐसा भी अवसर आता है जब वे अपना माथा झुकाकर रंग का टीका लगवाते हैं | अपनी बात रखने की हिम्मत बढने से बढकर अपने भीतर आत्मविश्वास की भावना जगती जाती है |

होली में रूप-कुरूप, अवस्था, आर्थिक बडप्पन में किसी को महत्व नही दिया जाता | भाभी बुढिया हो या कुरूप, उससे बढकर कोई नही लगता है | इसी प्रकार जिससे हम रंगभरी होली खेलते हैं, उनके व्यक्तित्व में इतना घुस जाते हैं कि वे हमें अपने से भिन्न नही लगते हैं | होली के अवसर पर देवर-भाभी के लिए नये जेवर, कपड़े लेकर आता है | इसी प्रकार अन्य सामाजिक सम्बन्धों में भी आदान-प्रदान से खुशियाँ बाँटते हैं | जिनके साथ होली खेली जाती है, होली के बाद उनसे मिलकर उनको मिठाई या अन्य उपहार देने की पुरानी परम्परा है | गुझिया खिलाना तो अब शुरू हुआ है | होली ही एक ऐसा अवसर है जब पिछले साल का मनमुटाव, मतभेद गले मिल कर लोग भुला देते हैं और एक नये बेहतर साल की कामना करते हैं | होली के अगले दिन गाँव के देवता के प्रांगण में सबके घर से आटा, दूध, घी, तेल, गुड, नमक इत्यादि से पुड़ी-पकवान का सामूहिक भोज होता है | अब इन सामूहिक भोजों का स्थान घर की चारदीवारी में सिमट गया है | पहले यह त्यौहार से बढकर उत्सव या समारोह था, जिसमें सब ही मिलजुलकर भागीदारी रहती थी | लोग गाँव की चौपाल, गाँव ली सामूहिक अधिकार की सार्वजनिक भूमि, मुखिया के आँगन में जुटते थे | अब यह त्यौहार अधिक हो चूका है, जिसका दायरा अपना घर हो जाता है | लोग घरों में गुझिया परोसकर होलियारों की प्रतीक्षा करते हैं | आज के होली मिलन के समारोहों में दबदबे वाले लोगों की उपस्थिति में वह स्व्च्छन्दता और बराबरी नहीं दिखाई पडती हैं |

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