जीवन-धारा

दुख हर इंसान की शिराओं में बहता है, राग-रेशे में सुलगता रहता है। पर इसकी आँखों से भी डर लगता है। जितना मुमकिन हो सके, इससे दूर भागने में ही कल्याण है। लेकिन दुख को समझना है, तो उसे सहेज कर रखना पड़ेगा। दुष्यंत कुमार ने इसे बखूबी व्यक्त किया है – ‘दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें, सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया।‘

आखिर क्या है इस दुख में ऐसा कि दिल में तो आता है, समझ में नही आता। दुख बस व्यक्तिगत नहीं। पेशावर से पेरिस तक, कश्मीर से कैलिफोर्निया तक, परिंदों और पेड़ों का दुख – कई तरह के, कई स्तर, रंग-रूप और महक वाले दुख को हमने देखा है। कोई संबंध है हमारे खुद के दिल में रिसते दुख और दुनिया में धधक रहे दुख के बीच? दर्द तो दैहिक है और इसकी दवा है, पर दुख का निवारण शायद किसी गहरी प्रज्ञा कि मांग करता है। ग्रीक पोरणिक पात्र प्रोटियस कि तरह यह इधर डूबता है तो उधर उबरता है। लगातार जीवन के दरवाजे पर इसकी दस्तक सुनी जा सकती है। आमतौर पर मन इससे भाग लेने में ही अपनी भलाई समझता है। इसके विराट ढांचे के भीतर प्रवेश करने का साहस विरलों में ही होता है। दरअसल, ‘दुख को जानना’ और ‘दुख के बारे में जानना’ एक ही बात नहीं।

जो सोचते हैं कि दुख के बारे में चर्चा एक निराशावादी, सीनिकल और रुग्ण मनोदशा कि ओर इशारा है। उन्हें एक बार रोज़ कि खबरें देखने-पढ़ने की जरूरत है। इस देश में हर बीस मिनट में एक स्त्री के साथ बलात्कार होता है, दुनिया में करोड़ों की संख्या में लोग भूख से मरते हैं और न जाने कितने लोग बेघर-बेरोजगार हैं। जिस धर्म का आविष्कार हमने अपने सुख और शांति के लिए किया, वह हमारा सबसे बड़ा शत्रु बना हुआ है। इसीलिए बुध्द ने तो किसी रहस्यवादी, आत्मविषयक प्रश्नों का उत्तर देने से ही इनकार कर दिया और बार-बार यह स्पष्ट किया कि उनका सरोकार सिर्फ मानव के दुख और उसकी निरोध से ही है।

हमारा व्यक्तिगत जीवन हो सकता है बड़ा सुरक्शित हो, लेकिन सिर्फ भयंकर रूप से आत्मकेंद्रित और स्वार्थी व्यक्ति ही अपने सीमित सुख के छोटे से द्वीप पर चैन से रह सकता है। आप जीतने अधिक संवेदनशील होंगें, दुख कि कील आपके कलेजे में उतनी अधिक चुभेगी। यहाँ बात सिर्फ उस दुख की है, जिसका एक प्रबल मनोवेज्ञानिक अवयव होता है, देह की पीड़ा की नहीं। दुख प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है उन रिश्तों के साथ, जिन्हें हम बनाते-तोड़ते हैं। कई रतह सम्बन्धों के संजल के बीच सबसे महत्वपूर्ण होता है अपना संबंध, खुद के साथ। जो खुद के साथ खुश नहीं, खुद से ही उकता गया है, वह चाहे किसी के साथ भी रह ले, देर-सवेरे उसे भी दुखी कर डालेगा। सुख की छाछ को पहले से ही फूँक-फूँक कर पिया अजे तो दुख का उबलता दूध कलेजे को थोड़ा कम ही जलाएगा।

दुख के बारे में एक लोकप्रिय मिथक यह है कि समय बड़े से बड़े दुख का इलाज़ है। जबकि होता यह है कि दुख देने वाली घटना और उसकी स्मृति पर कई नए विचारों और स्मृतियों की परतें चढ़ जाती हैं, पर उसके भीतर दुख ठीक अपनी जगह पर ही बैठा रहता है। समय बीतने के साथ वह हमारे अवचेतन का हिस्सा बन जाता है और उसके बाद वहाँ से कई अप्रत्याशित, विचित्र और कभी-कभी विकृत अभिव्यक्तियों के रूप में बाहर आता है। दूसरा झूठ यह है कि दुख बाटने कि दुख बाटने से कम होता है। ऐसा होता नहीं। दो-चार या दस-बीस दुखी लोग मिल कर किसी एक को सुखी नहीं बना सकते। दुख सिर्फ छितरा जाता है। दुख बाटने कि आदत जारी रही तो आगे चल कर आत्मदया का भाव भी इससे ही उपजता है। दुख सिर्फ इसके कारण कि समझ और उसके अंत से ही हो सकता है।

दुख का हर अनुभव य आटो हमें कोमल और समझदार बनाता है या फिर नए पूर्वग्रहों, नई कड़वाहट के लिए जगह बना देता है। पहली बात बहुत दुर्लभ है और बहुत अधिक समझ और धैर्य की मांग करती है; दूसरी बात बड़ी सामान्य है। दुख के अनुभव के बाद कठोर, सीमित हो जाना, सिकुड़ कर अपनी खोल में बंद हो जाना, ये सामान्य बातें हैं। कोई कवि या शायर दुख को लेकर रूमानी हो जाए, उसका महिमामंडन करने लगे या फिर उसे नियति भी मन ले, ऐसा कुछ कहे कि ‘मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यो’, तो उसे संदेह के साथ ही देखना ठीक है। दुख में ऐसा कुछ भी नहीं जो खूबसूरत हो। मस्तिष्क की कोशिकाओं को यह भौतिक रूप से नष्ट कर डालता है। इसमें एक बात ध्यान देने लायक है कि दुख कि भत्स्रना दुख से मुक्त नहीं करती; ठीक वैसे ही, जैसे इसका महिमामंडन मुक्त नहीं करता। अब सवाल है कि कुछ गिने-चुने लोग अगर इस दुख के दरिया को पार कर भी लें, तो क्या मानव जाति की पीर का पर्वत थोड़ा भी पिघलता है?

कभी तुम यदि किसी दुखी व्यक्ति के पास बैठो तो देखोगे कि थोड़ी देर में तुम भी दुखी होने लगते हो। इसी तरह यदि कोई प्रसन्नता और अत्यधिक उत्साह से भरा हुआ है और तुम उनके पास जा कर बैठो तो थोड़ी देर में तुम भी हँसना, खेलना शुरू कर देते हो। यदि तुम वास्तव में देखो तो पाओगे कि प्रसन्नता और दुख में रहने के लिए तुमने ही मन को प्रशिक्षित किया होता है।

यदि तुमने उदास रहने की आदत बना राखी है, तब तुम्हें दुखी होने के लिए कोई विशेष कारण की भी आवशयकता नहीं पड़ती है। यह तुम्हारा एक दूसरा स्वभाव ही बन जाता है और मुँह मसोसकर शिकायते करने में ही तुम्हें मज़ा आने लगता है। अधिकतर व्रद्धाश्रमों में तुम यही होता देखोंगे, वहाँ लोग बिना बात भी शिकायतें करते ही रहते हैं। उनका उदास चेहरा देखकर तुम्हें भी आश्चर्य ही होगा कि बिना बात के ये लोग क्यों दुखी हुए बैठे हैं।

तुम्हें यह देख के हैरानी होगी कि उन लोगों ने जीवन में जो भी करना था, वह सब किया है। जो उनकी आवशयकताएँ हैं, वह भी सब पूरी की जा रही हैं। तब भी बिना जरूरत के बहुत लोग दुखी होने का कारण ढूंढ ही लेते हैं।

कुछ लोग बुढ़ापे में इसलिए भी दुखी होते है कि वो इस उम्र में काम नहीं कर पाते हैं। अब यह तो शरीर का स्वभाव है। तुम अस्सी वर्ष की उम्र में अपने तीस बरस की तरह चार किलिमीटर नहीं भाग सकते, इस बात के लिए दुखी होना बेवकूफी है।

एक बार एक वृद्ध व्यक्ति मुझसे मिलने आया, मैंने उन्हें पूछा कि क्या आप खुश हैं? वह बोले, “देखिये गुरुजी, एक समय था जब में दिन में सोलह घंटे काम कर पाता था, शाम की सैर पर भी जाता था, परंतु अब मैं उतना कुछ नही कर पाता हूँ। बहुत जल्दी ही कुछ घंटे में थक जाता हूँ। मैं अपने भीतर पुरानी जैसी शक्ति पुनः कैसे लाऊँ?”

मैंने पूछा, आपको इस उम्र में उतना काम करके क्या ही करना है।

उन्हें अपने भीतर तो तंदरुस्ती की टीस रहती ही है पर शरीर का अपना स्वभाव है। बूढ़े होने के विचार मात्र से ही व्यक्ति दुखी हो जाता है। इस तरह की उदासी से ऐसे व्यक्ति को कोई भी बाहर नहीं निकाल सकता, क्योंकि यह स्वयं की बनायी हुई उदासी है। ऐसे दुखी मन के साथ व्यक्ति तुनकमिजाज, गुस्सैल और तनवग्रस्त रहता है। ऐसी नकारात्मक्ता में डूब कर उनका सारा जीवन कट जाता है और वे ऐसे ही मर जाते है।

महर्षि पतंजलि कहते हैं, “विशोक, दुख के पार जाओ। दुखी होना तुम्हारी आदत मात्र है। जैसे ही तुम अपने मन की ओर ध्यान दोगे, दुख को देखोंगे तब पाओगे कि वह निराधार है, स्वयं की बनायी हुई आदत है। यह जागरूकता आने मात्र से ही दुख मीट जायेगा, तुम दुख से मुक्त हो जाओगे।

यह एक धारणा मात्र है। इसी तरह एक धारणा यह भी हो सकती है कि लोग मेरा आदर नहीं करते हैं या फिर मैं बेवकूफ़ हूँ, यह सब निराधार विचार हैं। क्यों कोई तुम्हारा आदर नहीं करेगा? अरे तुम बेवकूफ़ भी कैसे हो सकते हो? बेवकूफी तुलनात्मक ही हो सकती है। जो तुमसे अधिक बेवकूफ़ हैं, उनके लिए तो तुम समझदार ही हुए। बेवकूफी का भी तो मानक है, तुम अपने आप को अपने नीचे वालों से तुलना करो।

तुम्हारी ऐसी सभी तुलनाएँ तुम्हें दुखी कर सकती हैं। स्वयं कि दूसरों से तुलना मत करो, तब तुम अधिक प्रसन्न राहोंगे।

विशोक, अर्थात मन को ऐसी सभी धारणाओं के उपजे दुख से मुक्त कर लेना।

और ज्योतिष्मती प्रज्ञा, अपने पूरे मन को प्रकाश, एक ज्योति की तरह देखों। तुम्हारी चेतना एक ज्योति ही है, तुम्हारा मन भी ज्योति ही है, अपने आप को यह याद दिलाओं। क्योंकि तुम्हारा मन एक ज्योति की तरह है इसलिए तुम्हारा पूरा शरीर काम कर रहा है, नहीं तो तुम एक बुझे हुए मोमबत्ती के जैसे होते।

जैसे कोई भी ज्योति मोमबत्ती के मोम और ऑक्सिजन का प्रयोग कर ज्वलित रहती है, इसी तरह जीवन में तुम भी ऑक्सिजन लेते हो और पदार्थ पर जीवित बने रहते हो। जैसे ज्योति मोम, बाती और ऑक्सिजन पर चलती है उसी तरह तुम्हारा मन शरीर को बाती और उसके भोजन को मोम की तरह लेकर ऑक्सिजन पर चलता है जैसे ज्योति प्रकाश बिखेरती है उसी तरह यह मन और चेतना जीवन को प्रदर्शित करती है।

जीवन और ज्योति में बड़ी समानता है। किसी जलती हुए मोमबत्ती पर यदि कोई बर्तन को उल्टा कर रख दें तो कुछ ही समय में वह बुझ जाति है उसी तरह तुम्हें भी यदि बिना खिड़की झरोखों के कमरे में बंद कर दिया जाए तो तुम्हारे भीतर का जीवन भी कुछ समय में चला जाता है। तुम जो भी मोमबत्ती के साथ करते हो वही यदि अपने साथ करने लगा, तब कुछ समान ही प्रतिक्रिया आती है।

जैसे मोम अधिक डालने से ज्योति अधिक देर तक और तेज़ जलती है इसी तरह शरीर में भोजन डालने से जीवन की ज्योति अधिक देर तक चलती है और यदि बाती बहुत जल चुकी हो तब कितना भी मोम डालने से वह ज्यादा देर नही चल पाती ऐसे ही बहुत समय के बाद शरीर भी, कितने भी भोजन खिलाने पर एक सीमा से अधिक दिन तक नहीं चल सकता है।

यही शरीर बाती की तरह है और मन ज्योति की तरह है। जैसे ज्योति बाती के चारों ओर है उसी तरह यह शरीर ज्योतिष्मती प्रज्ञा को संभाले हुए है।

विशोका ज्योतिष्मती :

प्रसन्न रहो और यह भी याद रखो कि मन प्रकाश के पुंज जैसे है। मन पदार्थ नहीं है, मन ऊर्जा है, तुम भी ऊर्जा ही हो।

आगे पतंजलि कहते है, “मन जल जैसा है, उसे आत्मज्ञानी ओर की केन्द्रित रखो।” विस्तार रोप से गुरुदेव अगले ज्ञान पत्र में वर्णित करते है।

जीवन-धारा अपनी गति में बह रही है। रास्ता एक सा नहीं है, उचि-नीची, ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों से इसका प्रवाह कभी धीमा तो कभी तेज़ हो आता हैं। यही इसका रूप है। हम हरपाल एक जैसी गति में नही रहते। यही है सुख ओर दुख की रीत। हम चाहे भी तो हरपाल सुखी नहीं रह सकते। वैसे भी हर पल सुखी रहने वाला, सुख का मूल्य कभी समझ नही सकता, वो दुख भी जरूरी है।”

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