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शुद्ध और अशुद्ध
ईश्वर ने मनुष्य को अन्त में शायद इसलिए बनाया जिससे उसे सभी प्रकार की सुविधाएँ मिले। मानव एक बुद्धिसम्पन्न प्राणी है ईश्वर ने अपने प्रतिरूप बनाया एक विशेष उद्देश्य से कि वह अदन वाटिका की देखभाल करें। उसने मनुष्य का मार्गदर्शन करने की हैसियत से आदेश दिया- तुम वाटिका के सभी वृक्षों के फल खा सकते हो, किन्तु भले- बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना, क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे। जौभी कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने अनुरूप बनाया लेकिन उन्होंने उनकी स्वतंत्रता नहीं छीनी।
शुद्ध और अशुद्ध को लेकर ईसा का कानून के जानकारों से वाद- विवाद होता है। सीरिया के राजा अन्तियोकुस एपिफनेस, यहूदियों के विश्वास को उखाड़ फेंकना चाहता है इसलिए सूअर का माँस खाने का आदेश देता है। उस बहुत नियम को खत्म करना जिसके लिए यहूदी अत्याचार सहते और शहीद होते हैं जटिल परिस्थिति है। मक्काबियों के दूसरे ग्रंथ में विधवा और उसके सात पुत्रों के बारे जिक्र किया गया है। ईसा अपनी दलील रखते हैं कि सिर्फ मनुष्य का कार्य, जो उसके मन और हृदय की उपज है वही उसे अशुद्ध करता है। लेवी ग्रंथ के अध्याय 11 में शुद्ध और अशुद्ध की लम्बी चौड़ी सूची दी गई है। लेकिन अब ईसा की बारी है जहाँ वे अशुद्ध चीजों की लम्बी सूची लोगों के सामने रखते हैं- व्यभिचार, चोरी, हत्या, परगमन, लोभ, विद्वेष, छल- कपट, लम्पटता, ईर्ष्या, निन्दा, अहंकार और मूर्खता।
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