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शिष्यत्व
ईश्वर ने मनुष्य को अपने अनुरूप बनाया और यह कह कर आशीर्वाद दिया कि फलो - फूलो और पूरी दुनिया में फैल जाओ। लेकिन अन्ततः मानव जाति पाप में डूब जाती है। ईश्वर यह देखकर व्यथित हुए और उन्होंने मानव जाति का सर्वनाश करने का फैसला लिया। वे हमें बचा भी सकते हैं जैसे जो ईश्वर की दृष्टि में धर्मी था बचाया। ईश्वर ने योजनानुसार चालीस दिन- रात वृष्टि भेजकर सृष्टि का नाश किया ताकि मानव जीवन में परिवर्तन हो।
जब किसी के कहने के अर्थ को नहीं समझते हैं तो हममें नकारात्मक सोच और भावना आती है। ईसा चाहते थे कि शिष्य फरीसियों और हेरोद की बुराई के प्रभाव के विरुद्ध अपने को सुरक्षित रखे। फरीसियों के चिह्न की माँग करने का तात्पर्य था कि मसीह चमत्कार दिखाएँ, राष्ट्रीय विजयी हों तथा राजनीतिक सर्वोच्चता प्राप्त करें क्योंकि वे एक दुनियावी राजा और नेता के रूप में देखना चाहते थे। दूसरी तरफ हेरोद ने खुशी, शक्ति, बल, धन, प्रभाव, मान- सम्मान के साम्राज्य की स्थापना करनी चाही। ईश्वर का राज्य का अर्थ उनके लिए इस दुनिया का हो। चिन्ता की कोई बात नहीं क्योंकि उन्होंने दो- दो बार रोटियों के चमत्कार को किया है। बात यह है कि अनुभव के द्वारा हम आधा ही हकीकत को सीखते हैं। प्रभु ईसा के द्वारा अपने शिष्यों को प्रशिक्षण देने के बावजूद अब तक वे अपने गुरु की शिक्षा को नहीं समझ पाये हैं और न ही गुरु को पहचान पाए हैं। गूढ़ बातों पर न चिन्ता है, न ध्यान ही। वे अपने हृदय रूपी दरवाजे को नहीं खोल पाते हैं। प्रभु से विनती है कि आज हम भी चेलों के समान इस दुनिया में रहते हुए ऊपर की बातों को समझ सकें और अपनी मुक्ति और दूसरों की मुक्ति के साधन बनें।
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