इच्छा

बाईबल के पठन - पाठन से पता चलता है कि सृष्टि के बाद से ही मनुष्यों की दुष्टता बढ़ती ही गयी और उनके मन में बुरे विचार और बुरी प्रवृतियाँ उत्पत्र होती गयीं, जिसका फल हुआ जलप्रलय (उत्पत्ति 7 : 1-24)। इतना सब होने के बावजूद ईश्वर ने मनुष्यों को नहीं त्यागा। उन्होंने उनसे प्रेम किया। इसी प्रेम का परिणाम हुआ येसु का इस धरा पर जन्म लेना। येसु ने अपने जीवनकाल में लोगों से अथाह प्रेम किया और पिता के कार्यों को आगे बढ़ाया। किन्तु फिर भी उनका काम अधूरा रह जाता। इस बात से वे भली - भाँति वाकिफ थे। अत: उन्होंने अपने अधूरे काम को आगे बढ़ाने के लिए चेलों को चुना। चुनने के बाद वे उन्हें बल , शक्ति और सामर्थ्य के साथ चंगाई करने की कृपा देते हैं। 
ऐसे बहुत से लोग थे जो बुलाये गये थे।" क्योंकि बुलाये हुए तो बहुत हैं, लेकिन चुने हुए थोड़े हैं" (मत्ती 22 :14)। जिन्हें बुलाया गया था, उन्होंने बुलाहट को इन्कार कर दिया (येरेमियस 7 : 13 )। जिन्हें येसु ने चाहा, उन्हें ही उन्होंने बुलाया और चुना। यहाँ येसु की इच्छा और चेलों की इच्छा, दोनों ही ईश्वर की इच्छा पर आधारित है। प्रारम्भ से ही येसु ख्रीस्त अपने शिष्यों को अपने पास रखना चाहते थे, ताकि वे उनके साथ रहकर उनके सुसमाचार को इस दुनिया में फैलायें। आज के युग में उन्होंने हममें से प्रत्येक जन को बुलाया और चुना है, कि हम उनके कार्यों को आगे बढ़ायें।

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