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सृष्टि की रचना
सृष्टि की रचना क्यों, कब और कैसे हुई? यह प्रश्न हमेशा से मानव जाति के लिए एक अनबूझ पहेली बना रहा है। इसके अतिरिक्त इस प्रश्न की विशेषता तथा महत्व इस बात से भी है कि विज्ञान तथा धर्म, विचार पद्धतियां समान रूप से इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए उत्सुक तथा तत्पर दिखाई पड़ती हैं। बौद्ध दर्शन में ब्रह्मांड की उत्पत्ति, आत्मा और ईश्वर आदि की अवधारणा संबंधी प्रश्नों को कोई विशेष स्थान नहीं दिया गया है। जबकि सांख्य दर्शन ने इसे पुरुष और प्रकृति बताया है।
ईसाई धर्म में समय की एक गति के रूप में परिकल्पना की गई है, जिसके अनुसार सृष्टि की एक निश्चित शुरुआत तथा अंत है। यह एक सर्वव्यापी व सर्वज्ञ ईश्वर की रचना है। हिंदू धर्म के अनुसार सृष्टि अनादि काल से आरंभ व विलय का विषय रहा है। यह अनंतकाल तक ऐसा ही रहेगा। वैज्ञानिकों के अनुसार सृष्टि की रचना एक सर्वव्यापी विस्फोट के साथ हुई, जिसे वह बिग- बैंग की संज्ञा देते हैं। इसके कारण ब्रह्माण्ड अब भी विस्तार पा रहा है। इसके अतिरिक्त विभिन्न दार्शनिक व्यक्तिगत स्तर पर भी इस प्रश्न का उत्तर देने में प्रयासरत दिखाई पड़ते हैं। दसवीं शताब्दी में भारतीय दार्शनिक उदयन अपने ग्रंथ न्यायकुसुमांजलि में कहते हैं कि जिस प्रकार संसार की सभी वस्तुएं अपनी रचना तथा विकासक्रम के लिए किसी अन्य बुद्धिमान जीव पर निर्भर करती हैं, उसी प्रकार पृथ्वी भी एक वस्तु के समान है, जिसकी सृष्टि तथा विकासक्रम किसी सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान सत्ता पर निर्भर करता है तथा इस सत्ता का नाम ईश्वर है।
दो शताब्दी पश्चात कुछेक बदलाव के साथ लगभग यही युक्ति ईसाई विचारक संत अक्वाइनस भी प्रस्तुत करते हैं। वहीं मत्स्य पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना एक सुनहरे गर्भ में ब्रह्मा के प्रवेश कर जाने के फलस्वरूप हुई है। इसी गर्भ को हिरण्यगर्भ की संज्ञा दी गई है, जबकि सांख्य दर्शन सृष्टि की रचना की गुत्थी को पुरुष तथा प्रकृति नामक दो शाश्वत तत्वों के आधार पर सुलझाने का प्रयास करता है। सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष शुद्ध चेतन स्वरूप है तथा प्रकृति तमस, रजस तथा सत्व नामक त्रिगुणों से युक्त अचेतन तत्व है। सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व प्रकृति के तीनों गुण एक संतुलन की स्थिति में शांत अवस्था में विद्यमान रहते हैं। किंतु अनादि काल में पुरुष की प्रकृति से निकटता के कारण ये तीन तत्व कम्पायमान अवस्था में आकर सृष्टि का निर्माण करने लगते हैं। इस दर्शन के अनुसार जब पुरुष अथवा शुद्ध चैतन्य, प्रकृति के इस नृत्य अथवा क्रीड़ा से स्वयं को तटस्थ कर स्वयं में लीन हो जाता है तब वह कैवल्य अथवा मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
किंतु इन सभी परिकल्पनाओं तथा विचारों से अलग ऋग्वेद का नासदीय सूक्त सृष्टि के सृजन की समस्या को एक ऐसे अनोखे रूप में प्रस्तुत करता है कि सृष्टि की रचना के प्रश्न पर ही प्रश्न- चिह्न लग जाता है। नासदीय सूक्त के प्रथम सूत्र के अनुसार सृष्टि की रचना का प्रश्न सृष्टि की रचना से पहले उपस्थित तत्व के प्रश्न से अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ है। किंतु सृष्टि से पहले तो न हम किसी सत्य या सत् की कल्पना कर सकते हैं न ही किसी असत्य अथवा असत् की। यदि सृष्टि की उत्पत्ति की समस्या को हम इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो सृष्टि प्रकरण से जुड़े सारे प्रश्न अपने मायने ही खोते हुए प्रतीत होने लगते हैं। सृष्टि के आरंभ से पहले किसी बिंदु की कल्पना सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा को ही खण्डित कर देती है। अतः सृष्टि के आरंभ की कल्पना का प्रश्न स्वयं में ही विरोधाभास से ग्रसित है तथा इन मायने में यह प्रश्न हमें केवल रहस्यीकृत ही कर सकता है, किंतु इस प्रश्न से जुड़ी हमारी जिज्ञासा को शान्त नहीं कर सकता।
इसके अतिरिक्त, ब्रह्मांड की उत्पत्ति कब हुई? इस प्रश्न से भी अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति क्यों हुई? मुख्य तौर पर इस प्रश्न का उत्तर की केवल दो दिशाएं हो सकती हैं। पहला कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति किसी कारण अथवा विशेष प्रायोजन से हुई तथा दूसरा कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति का कोई विशेष कारण नहीं है। इसमें से यदि हम पहला विकल्प चुनें तो इसके लिए हमें किसी एसी चेतना अथवा बुद्धि की कल्पना करनी होगी, जिसमें पृथ्वी तथा ब्रह्मांड की उत्पत्ति के प्रायोजन का विचार आया किंतु इस परिकल्पना को स्वीकारते ही दूसरे बहुत से प्रश्न इसके साथ ही खींचे चले आते हैं।
इस बुद्धि जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति का विचार आया उसे इस विचार के लिए अनादि काल क्यों लगा? इस ईश्वरीय चेतना जिसमें यह विचार आया वह किसी युक्तिबद्ध कारण से आया अथवा अकारण ही आया? वहीं दूसरी ओर हम यह मान लें कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति अकारण हुई है तो मानो यह विचार हमारे अस्तित्व की भूमिका को ही छिन्न- भिन्न कर देता है । एक अकारण उत्पन्न ब्रह्मांड में अपने जीवन को किन्ही नैतिक मूल्यों तथा आध्यात्मिक प्रायोजनों से जोड़ने का क्या अर्थ हो सकता है?
आश्चर्यजनक रूप से बौद्ध दर्शन में इन प्रश्नों को कोई विशेष स्थान नहीं दिया गया है। जैसा कि सर्वविदित है बुद्ध ब्रह्मांड की उत्पत्ति, आत्मा, ईश्वर आदि अवधारणाओं पर आधारित प्रश्नों के प्रत्युत्तर में मौन धारण कर लेते हैं क्योंकि ये प्रश्न मानव बुद्धि के कौतूहल से जन्म लेते हैं। इन प्रश्नों का मानव जीवन, उससे जुड़ी पीड़ाओं तथा उसके निराकरण से कोई सीधा सरोकार नहीं है। बौद्ध दर्शन में ऐसे प्रश्नों को व्यर्थ तथा त्याज्य माना गया है।
ब्रह्मांड की उत्पत्ति से जुड़े प्रश्न तथा उनके उत्तर की विभिन्न दिशाओं पर विचार करने के पश्चात शायद हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि ये प्रश्न मानव बुद्धि तथा उसकी अथाह सम्प्रेषण क्षमताओं से उपजते हैं। इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर अपने साथ अनेक प्रश्नों को साथ ले आता है जिनका समग्रता में कोई संतोषजनक उत्तर देना लगभग असंभव- सा जान पड़ता है। इन प्रश्नों के उत्तर देने की चेष्टाएं केवल बौद्धिक परिकल्पनाओं को ही जन्म दे सकती हैं जो कभी एक निश्चित सिद्धांत का रूप इसलिए नहीं धारण कर सकती क्योंकि उन्हें सिद्ध अथवा असिद्ध करने की कोई निर्णायक कसौटी हमारे पास है ही नहीं। इसके अतिरिक्त इन प्रश्नों से उपजी कोई भी परिकल्पनाएं तथा उनसे जन्में रीति- रिवाज मानव जीवन को केवल और अधिक उलझा ही सकते हैं, उनका निराकरण नहीं कर सकते।
किंतु इन प्रश्नों के अबूझ होने या एक पहेली मात्र होने से इनका महत्व कम नहीं हो जाता वरन बढ़ जाता है। शायद ये प्रश्न मानव बुद्धि को स्वयं में उलझा कर उसे यथास्थान दिखाते हैं। इन प्रश्नों से जूझ तथा थक हारकर मानव बुद्धि जब विश्रांति अथवा विश्राम का स्थान खोजती है, उसी क्षण में हमारी चेतना इन प्रश्नों के धरातल से स्वयं को ऊपर उठा लेती है। अतः इन प्रश्नों का महत्व मानव बुद्धि को रहस्यीकृत करने में है न कि उनका समाधान में।
महर्षि पतंजलि ने भी योग दर्शन में जिस तरह से आसन प्राणायाम का जिक्र नहीं किया है, उसी तरह से ईश्वर का भी उल्लेख नहीं किया है। पूरे दर्शन में सिर्फ एक ही स्थान पर ईश्वर प्राणिधान कहा है।
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