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मोक्ष
समय- समय पर विद्वानों और मनीषियों ने मोक्ष का रूपांतरण किया है। कभी यह सत्य को स्वीकारने के कड़े आग्रह के रूप में तो विवेकानंद जैसे संतों ने इसे गरीबी, रोग, अज्ञान से मुक्ति के रूप में पेश किया है। यह कहना गलत है कि मोक्षवादी भारतीय दर्शन की अवधारणा पलायनवादी है। इसके विपरीत यह मुक्ति का ऐसा मार्ग हैं, जो बार- बार बंधन में नहीं डालने देता। मोक्ष का अर्थ जगत से छुटकारा नहीं है, वरन जगत में छुटकारा है। इसका अभ्यास करने वाले मुमुक्षु कहलाते हैं।
मोक्ष शब्द मुन्च धातु से बना है, जिसका अर्थ है छूट जाना। इस शब्द का प्रयोग उपनिषद काल से आरंभ होकर आज तक निरंतर होता जा रहा है। विभिन्न कालों में इसके अर्थ में परिवर्तन होते रहे हैं। भारत में दर्शन की जितनी शाखाएं विकसित हुई हैं, सबमें इस अर्थ को व्यक्त करने वाले अलग- अलग शब्द प्रचलित हुए। निर्वाण, कैवल्य, अपवर्ग, मुक्ति सदृश शब्द इसके निकट अर्थों को व्यक्त करते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो इन अर्थों में थोड़ा- थोड़ा अंतर दिखता है। किंतु मूल अर्थ में छूट जाने का भाव सब में मिलता है। बौद्ध निर्वाण शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ है, दुःख का अभाव अथवा दुःख का छूट जाना मुक्ति है। उपनिषदों में इस शब्द का प्रयोग अनंत आनंद की अवस्था के लिए होता है। इस प्रकार के सूक्ष्म अंतरों के होते हुए भी यह बात सबमें समान है कि इसे एक अलौकिक आदर्श के रूप में देखने की परंपरा भारत में आधुनिक काल के आगमन के पूर्व तक बनी रही।
इस अलौकिक आदर्श की प्रतिष्ठा में भारत में इस तरह हुई कि संपूर्ण भारतीय चिंतन पर पश्चिमी आलोचकों ने यह आरोप लगाया कि यहां का चिंतन परलोकवादी, पलायनवादी और जीवन तथा जगत का निषेध करने वाला है। बीसवीं सदी के आरंभ में इस आलोचना का प्रत्याख्यान करने के लिए भारतीय मनीषियों ने मोक्ष शब्द को एक नया अर्थ देने का प्रयास किया। इसे नया अर्थ कहना भी ठीक नहीं लगता। अधिक संगत यह कहना होगा कि इन मनीषियों ने मोक्ष शब्द के अव्यक्त अर्थ को व्यक्त और मुखर किया।
इनमें स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, डॉ . सर्वपल्ली राधाकृष्णन, महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। ये सभी अलग अलग क्षेत्रों से जुड़े हैं, किंतु सबने मोक्ष को नवीन अर्थ देने का प्रयास किया है। विवेकानंद और रामतीर्थ संत थे, राधाकृष्णन शिक्षक, गांधी और तिलक राजनीति, लोकनीति से जुड़े थे। फिर भी परंपरागत रूप से प्रतिष्ठित मोक्ष के आदर्श स्वरूप में थोड़ा- थोड़ा परिमार्जन इन सबने किया। इस परिमार्जन की दिशा लोकपरक दिखाई पड़ती है।
मोक्ष अथवा निर्वाण का लोकपरक अर्थ परंपरागत भारतीय चिंतन में भी था। किंतु इसे गौण महत्व दिया गया था। प्रमुख महत्व उसका था, जो लोक बंधन से छूटकर अलौकिक अवस्था के रूप में प्रतिष्ठित भी हो। आधुनिक मनीषियों ने गौण अर्थ को उभारने तथा उसके महत्व को स्थापित करने का प्रयास किया।
विवेकानंद ने गरीबी से छूट जाना, रोग से छुटकारा पाना, अशिक्षा से छुटकारा, के रूप में मोक्ष की परिभाषा करते हुए यह अनेक स्थलों पर कहा है कि ईश्वर की सेवा करना है तो गरीब की सेवा करो, रोगी की सेवा करो। उनकी दरिद्रनारायण की अवधारणा इसी ओर संकेत करती है। दरिद्र, रोगी, मूर्ख, अकिंचन में ईश्वर का दर्शन करना ही उनके अनुसार मोक्ष का मार्ग है। प्रतिष्ठित अद्वैत वेदांत की परंपरा एक ही आत्मा के अलग- अलग बिखरे रूपों की बात करती है। विवेकानंद ने उसी बात को जीवन में उतारने को कहा है। उनका विश्वास है कि सच्चा मोक्ष संसार से होकर ही मिलता है।
रामतीर्थ के लेखों और उपदेशों का संकलन यह सिद्ध करता है कि उनकी दृष्टि भी विवेकानंद की ही तरह विकसित हुई है। वे अस्पृश्यता का विरोध और स्त्री की स्वतंत्रता का पक्ष पोषण करते हैं, उनका भी मूल आधार यही है कि जब एक ही आत्मतत्व सर्वत्र बिखरा है, तब भेदभाव कैसा? हमारा परंपरागत अद्वैत वेदांत इस अनुभव को मोक्ष की संज्ञा देता है कि संपूर्ण सृष्टि में एक ही चेतन सत्ता व्याप्त है। बीसवीं शताब्दी के इन संतों ने इस अनुभव को लोक- व्यवहार में उतारने पर जोर दिया। परिणाम यह हुआ कि मोक्ष का रूपांतरण हो गया। यह रूपांतरण युग की मांग के अनुरूप है। इस परिवर्तन से यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय चिंतन लोक से पलायन का समर्थन नहीं करता।
ईसाई धर्म के अनुसार प्रभु येसु मसीह लोगों को मोक्ष देने ही इस संसार में आये थे। लोगों को उनके पापों से मुक्त करने एवं उन्हें एक नया जीवन देने के लिए उन्होंने इस धरती पर जन्म लिया। अपने जीवन काल में उन्होंने केवल सत्य की शिक्षा दी। लोगों को सत्य से अवगत करने के लिए उन्होंने नगर-नगर, गाँव-गाँव घूमकर लोगों को शिक्षा दी एवं ईश्वर का बोध कराया। ईश्वर एवं मानव के बीच की दुरी को ख़त्म करने के लिए येसु मसीह ने धरती पर मानव रूप धारण किया। लोगों के बीच रहकर उन्हें सत्य से रूबरू कराया। क्योंकि सिर्फ सत्य ही है जो मानव को मोक्ष प्रदान कर सकता है। लोगों की पाप मुक्ति के लिए येसु ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।
डॉ . सर्वपल्ली राधाकृष्णन औपचारिक रूप से दर्शन के अध्येता थे, उन्होंने जीवन की आदर्शपरक दृष्टि को विकसित करते हुए भारत को कोरी अध्यात्म दृष्टि और पश्चिम की यांत्रिक जीवन दृष्टि दोनों को एकांगी कहा है। मोक्ष का मार्ग दोनों के मध्य से जाता है। कोरा अध्यात्म आत्यंतिक निषेध के कारण स्वीकार करने योग्य नहीं है और यांत्रिक दृष्टि से अत्यंत संकीर्ण है, जो जीवन को उसकी संपूर्णता में देख ही नहीं सकती। इसलिए उन्होंने आदर्शपरक दृष्टि का विकास किया, जिसमें इन दोनों को उचित स्थान दिया गया है। जीवन की पूर्णता में इन दोनों का आंशिक योगदान होता है , जिन्हें हम मुक्त मानते हैं , उन्होंने दोनों का समन्वय किया था। मोक्ष लोक से जुड़ा है, किंतु लोक तक ही सीमित नहीं है। अनंत में सर्वग्राही होना छिपा है। मोक्ष अनंतता का बोधक है, अत : उसे लोक- समावेशी होना ही चाहिए ।
गांधी और तिलक न तो संत थे और न ही औपचारिक दार्शनिक । वे लोक जीवन से जुड़ी समस्याओं के निराकरण में मोक्ष के आदर्श का सुंदर उपयोग करते हैं। अद्वैत वेदांत मानता है कि मोक्ष स्वरूप में स्थित होना है। आत्मा नित्य मुक्त है, अज्ञानवश वह बंधन का अनुभव करता है। अज्ञान दूर होते ही वह स्वरूप में स्थित हो जाता है। तिलक ने इस स्थापना से यह ग्रहण किया कि मोक्ष आत्मा का स्वरूप है । इस गूढ दार्शनिक मान्यता को उन्होंने अपनी इस घोषणा में व्यक्त किया- स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हम स्वसंयत : मुक्त अथवा स्वतंत्र हैं , इस दृढ़ धारणा ने उनके अंदर भारत की स्वतंत्रता के लिए अनंत ऊर्जा का संचार कर दिया था। मोक्ष को तिलक ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता का ही चरमोत्कर्ष समझा। यह नवीन अर्थ भी युग के अनुरूप दिखाई पड़ता है।
गांधी सत्य को ईश्वर मानते हैं और सत्य के साक्षात्कार को ही ईश्वर साक्षात्कार। यही ईश्वर साक्षात्कार मोक्ष है। इस संक्षिप्त सर्वेक्षण का प्रायोजन यह दिखाना है कि मोक्षवादी भारतीय दर्शन को यह कहकर हीन स्वीकार करना कि यह परलोक परक होने के कारण लोक का निषेध करता है, गलत धारणा है। मोक्ष का तात्पर्य जगत से छुटकारा नहीं, बल्कि जगत में छुटकारा है। इस तात्पर्य को जिन्होंने समझ लिया, उन्होंने जगत के उत्थान के लिए महान कार्य किया है।
जिस तरह से पंच महाभूत में शरीर को विलीन किया जाता है, उसी तरह से जीवनभर शरीर इन्हीं पांच तत्वों की तन्मात्राओं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध में उलझा रहता है। जिसने इससे पार पा लिया, वह जगत में छुटकारा पा लेता है ।
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